यादें: विजयपथ, दरबार और तब्बू का खोंइछा भरा जाना
उन दिनों दूरदर्शन और डीडी मेट्रो का जमाना था। बैट्री चार्ज करने की दुकानें जगह-जगह थी और हमारी उम्र के सिनेमचियों ने उन बैटरी वालों से दोस्तियाँ भी गांठी हुई थी। हम घर से साइकिल के कैरियर पर जूट वाले बोरे की चट्टी बिछाकर उस पर बैट्री बाँध कर घर ले आते । इससे बैटरी के सुरक्षित रह जाने की गारंटी तय होती थी और ऐसा करने पर हम चित्रहार, रंगोली, गीत बहार, महाभारत, चंद्रकांता प्रेमी माँओं के आँखों में योग्य बालक की छवि झिलमिलाते पाते थे। हम सब दोस्त भी सामूहिक रूप से रंगोली से लेकर सुपरहिट मुकाबला के टॉप टेन गीत देखा करते। इस लिस्ट में टी-सीरीज वाले गीत बहार का भी नम्बर था हालांकि उसकी इज्जत हम सबकी नजरों में सुपरहिट मुकाबला से बेहद कम थी। सुपरहिट मुकाबला नए गीतों वाला था तो ये प्रोग्राम उन सबको जमता था, जो 'हवा हवा ऐ हवा' वाले हसन जहांगीर से आगे की पौध थे। होता भी क्यों ना! स्कूल में अगले दिन के गप्प का मामला जो इससे जुड़ता था।
सिनेमची मित्र हर्षवर्द्धन अपने गाँव से लंबी छुट्टी के बाद लौटा था। उसके एबसेन्स में हम लोगों ने राजू वीडियो हॉल में 'विजयपथ' देख ली थी। क्लास में हम सबसे उस नई वाली 'रुक रुक' नायिका के चर्चे सुन हर्षवर्द्धन और आनंद भूषण काफी डिस्टर्ब हुए थे। इस बेचैनी का कारण वाजिब था। वह अजय देवगन और रवीना टण्डन का 'कुख्यात' फैन था। मेरा दावा है कि आज भी कोई उसको नाईन्टीज के फिल्मों के गीतों की एक झलक दे दे तो यह इंजीनियर/मुखिया प्रतिनिधि दीक्षित महाशय 99.99 प्रतिशत मामलों में सही सिद्ध होंगे। सो उनकी दीवानगी का हमें पता था। फिर उसने टीवी के गाने में रुक रुक वाली हीरोइन को देख रखा था।
तो हुआ यह था कि हाथियों वाली याददाश्त के धनी हर्षवर्द्धन को गाँव से गोपालगंज आते वक्त सभी बड़ों ने आशीर्वाद के तौर पर दस, बीस के नोट हाथ में दिए थे। अंदाजा है कि तब उसकी वह कुल जमा रकम सौ के थोड़ा पार गयी थी। चूंकि वह हमारे ग्रुप में सिनेमागिरी में बिल्लू बादशाह था तो विजय पथ का न देख पाना उसकी नींद हराम किए हुए था। वह ऐसा 'तीर चला मेरे दिल पर जिसकी मार सही न जाए' नुमा पीर में था और हम उसमें खासकर अभय नमक छिड़क देता। नहीं! नहीं! वह नमक नहीं छिड़कता था बल्कि हर्षवर्द्धन के जख्मों पर भरपूर नमक रख कर रगड़ दिया करता था। लेकिन नियति इस नब्बे के ईमानदार आशिक की हिय की पीर कैसे न सुनती। एक रोज अखबार में उसकी नजर फिल्मों वाले विज्ञापन पर पड़ी। वहाँ विजय पथ के अजय देवगन की गुलेल चलाती तस्वीर और तब्बू के रुक रुक वाली फ़ोटो चस्पां थी, ऊपर लिखा था - शान से चल रहा है, शानदार चौथा सप्ताह दरबार सिवान में। दरबार, सिवान की गोपालगंज से कायदे से हिसाब जोड़ा जाए तो यह दूरी कम से कम पैंतिस किलोमीटर तो पड़ती है और बसों के वहाँ पहुँचने का समय लगभग डेढ़ घंटे होता था।
हर्षवर्द्धन अजय देवगन की तरह नहीं था, पर उठते-जागते विजयपथ ओर हार जाने की कसक अताउल्लाह खान के गीतों के पास ले जा चुकी थी।
एक नई सुंदर, लंबी, छरहरी हीरोइन, जो हमारे उम्र के लड़कों के बीच चर्चा में थी कि वह रवीना टण्डन को टक्कर दे रही है। हीरो को कातिलाना ढंग से रुकने को कह रही थी और वह मुआ रुक नहीं रहा है तो अजय देवगन बेशक न रुके हों पर हर्षवर्द्धन बाबू अब रुक गए थे। वह इतने सख्त लौंडे न थे। हालांकि वह स्त्रियों का समुचित सम्मान करते थे। हम बाकी के तिग्गो की नजर में तब्बू की ओर यह झुकाव रवीना टण्डन से बेवफाई लग रही थी। पर हर्षवर्द्धन था कि उसने मानो प्रतिज्ञा की थी कि कुछ भी हो अब दरबार सिनेमा हॉल, सिवान जाएंगे, विजय पथ अब तक नहीं देखा है, इस बार सीमा पार जाकर ही सही देखूँगा।
ध्यान रहे कक्षा नौ का यह किशोर इस बात पर अड़ा था, चाहे लाख तूफान आए, देखना है तो देखना है। स्कूल से भाग कर शहर में ही फ़िल्म देखना अलग बात है पर पैंतीस किमी की दूरी का चैलेंज? ना जी ना - उसके सीमा पार जाने वाले इस प्लान में हर्षवर्द्धन के साथ हममें से कोई शामिल नहीं हुआ था लेकिन इसी वक्त हीरो का जॉनी लीवर आनन्द भूषण पाण्डेय आगे आया। वह हर्ष के पाप-पुण्य (यदि कुछ हो) कैसेट रिकॉर्डिंग, फ़िल्म बाजी, के. चौधरी के चाट में, स्कूल में बदमाशी में हमसे बड़ा साथी था। मतलब यह जानिए कि हर्षवर्द्धन मौनिया चौक वाले मार्किट में कैसेट ए अपनी पसन्द का भरवाता तो बी साइड आनंद के पसंद के होते। शुक्र है हीरो - हीरोइनों में पसंद का कंपटीशन न था। आनंद वाकई जॉनी लीवर था। सो, घर के बड़े-बुजुर्गों का प्यार जो रुपयों की शक्ल में था, को लेकर हर्ष बाबू आनंद के साथ सवेरे ही सिवान जाने वाली बस में बैठ गए। साइकिल को स्कूल के स्टैंड में खड़ा कर दिया गया था।
दरबार में विजयपथ लंबे समय से चल रही थी तो भीड़ न थी। आजकल में फ़िल्म उतरने जैसा मामला था। दोनों ने बालकनी की टिकट ली और पसरकर अंदाजा लगाते रहे कि हीरोइन रवीना को रिप्लेस कर सकती है कि नहीं। हमें बाद में पता चला हर्षवर्द्धन ने हम सबसे झूठ बोला था कि तब्बू उसको पसंद नहीं। उसने जब पहली बार सुपरहिट मुक़ाबला में तब्बू का वह गीत देखा था तो उसकी फिल्मी चाह बढ़ी थी। तब्बू ने उसको तभी कह दिया था- 'तुम जो ना आते हम तो मर जाते, कब तक अकेले जिंदा रहते हम, हालत हमारी वो हो गयी थी, पागल हमें लोग कहने लगे थे, आज हमारे प्यासे दिल पर बनके घटा तुम छाए तो'- हम उसको रुक रुक समझाते रहे और उसका खुद का 'मन देर लगी आने में तुमको शुक्र है फिर भी आये तो ' पर मलंग हुआ पड़ा था। हुआ यह था कि एक रोज उसने भी वीडियो में हीरोइन की एक झलक देख ली थी। बस उसी बुलाहट का कर्ज उतारने वह उतनी दूर गया था। वह भी बुजुर्गों के आशीर्वाद को उस तब्बू के झोली में डाल देने को, जो कैरियर शुरू ही कर रही थी।
सच तो यह भी है कि रवीना के 'अंख मेरे यार की दुःखे' की ब्लू साड़ी और पियानो पर गुलाबी साड़ी में बैठी तब्बू को देखने के बाद उसकी हालत तहस-नहस हो गयी थी। जवान होता छोकरा था और हममें सबसे पहले मूंछ दाढ़ी पाने वाला भी। जब वह तब्बू से विजयपथ में मिलकर दरबार से हवाओं में उड़ता गोपालगंज पहुँचा तब तक शाम हो गयी थी। स्कूल तो बंद हो ही गया था, साथ ही सायकिल भी अंदर बंद थी। बुजुर्गों का दिया आशीर्वाद नायक ने तब्बू के खोंइछा (आँचल) में डाल दिया था। चेहरे पर संतोष था और पीठ मर्द सह नायक, जॉनी लीवर आनंद मित्र के आनंद में डूबा हुआ था। लेकिन प्रेम की मिठासमे वक़्त का तीखापन भी तो मिलता है। परेशानी इतनी भर थी कि सायकिल अब कल मिलनी थी। तो क्या हुआ अब दोनों विजय पथ के विजेता थे। निर्णय हुआ, कल की कल देखेंगे।
अगले दिन स्कूल के दिग्गज टीचर्स इन दोनों साइकिलों को लॉन में खड़ी करके पूछताछ में थे कि किसकी है? हीरो हर्षवर्द्धन आगे आया बोला - मेरी है और आनंद ने कहा - और दूसरी वाली मेरी है। फिर दोनों ने जवाब दिया - हमारी तबियत खराब हो गयी थी सो किसी और के साथ घर चले गए थे। हमारे टीचर्स भी कमाल के थे, वह जानते थे कि इनके गिरोह में कुल पांच ही हैं जो अस्सी की संख्या वाली कक्षा में छिहत्तर, सतहत्तर, अठहत्तर, उन्यासी और अस्सीवें स्थान पर बैठते थे। हमारी पेशी हुई कौन ले गया था इनको। हमारे जवाब से हमें मुर्गिया शैतान समझने वाले टीचर्स की जज मंडली संतुष्ट न हुई और दुःखद यह था कि हमें पसंद करने वाले शिक्षकों ने भी उस रोज कायर चुप्पी साध ली थी। हर्षवर्द्धन और आनंद के साथ हम बाकी के तीन भी झूठ में साथ देने के लिए बीच मैदान में दो-दो सोंटा खा गए और उस दिन की क्लास से निकाल दिए गए। उन दोनों गुलेल-चमेल के साथ अब मैं, महेश, अभय कुढ़ते हुए क्लास के बाहर थे। हर्षवर्द्धन ने दाँव खेल दिया था और उसके पास तब्बू के नाम खर्च करने के बावजूद थोड़े से आशीर्वाद बच भी गए थे सो उसने गेट पर भूंजा खरीदा। वहीं राजू सायकिल वाले के बेंच पर बैठकर हमने भूंजा खाया और हर्षवर्द्धन विजयपथ के इंटरवल में देखे 'हम आपके हैं कौन' के ट्रेलर की कथा सुनाने लगा। 'हम आपके है कौन'? उफ्फ़! अब असल विजेता वही था, वह दरबार से लौटा था, दस कोस लाँघकर और हम राजू वीडियो हॉल के मामूली देखनिहार थे। ट्रेलर कहाँ से देखते? जिसे हम फ़िल्म का बोनस माना करते थे। हालांकि क्लास छूटने का अफसोस भी किसे था? आज व्यवस्था ने हमें बाहर किया था वरना गाहे-बगाहे हम ही व्यवस्था को चुनौती देते रहते थे। हाँ! पर एक बात और हुई अब हमारे ग्रुप में रवीना के साथ तब्बू भी सादर शामिल थी। भले इस बार का आशीर्वाद तब्बू के हिस्से था पर वह रवीना टण्डन ही थी, जिसने सबसे पहले पूछा था 'बता मुझको सनम मेरे...डू यू लव मी' और हम सबने एक साथ कहा था - 'एक से लेकर दस तक नम्बर वन है तू' आई लsssव यू - उसको कैसे छोड़ देते?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)