सिर्फ तुम, दरबार सिनेमा और खाली दिल नहीं जान वी ये मंगदा
देखने में तो नहीं लगता है, पर सच यही है कि बड़ी मौसी के सबसे छोटे लड़के सुनील भैया मुझसे छह माह बड़े हैं। मुझे इस बड़े छोटे का फायदा अक्सर हुआ है और मैंने यह फायदा उठाया भी खूब है। उनकी खासियत रही है कि वह बड़े होने की जगह बड़ा दिखने-बनने में जरा भी समय नहीं लगाते और जहाँ इसके बिना भी काम चल सकता हो, वहाँ भी वह बड़े ही बने रहते हैं। फिर भी, हम में याराना बहुत है। उनके गाँव की छत पर जब सब सो जाते तो मैं और वह चुपके से उतर कर बगल के गाँव, बगीचे, स्कूल अहाते, टोले मोहल्ले में आये बारात या किसी आयोजन के सामियाने में भोर तक वीडियो पर फिल्में देखा करते । यह वही समय था जब ऑर्केस्ट्रा के आतंक ने पाँव नहीं जमाए थे और लौंडा नाच पूरी तरह तो नहीं पर धीरे-धीरे ही सही रिप्लेस हो रहा था। मैं छुटपन का लाभ लेता फ़िल्म कैसे देखें के सुनील भैया के आइडिए के साथ चिपका रहता। सिनेमा भी देख लो और पकड़े भी न जाओ, इसकी सौ तरकीबें सुनील भैया के पास थीं। उनमें एक यह आजमाया नुस्खा था कि वह शाम को ही एक डिब्बा बाहर दुआर की ओर दरवाजे बगल में फेंक देते ताकि पकड़े जाने पर पूरी ढीठता और आत्मविश्वास से चाँपाकल के पास हाथ माँजते कह सकें कि दिशा-मैदान को चले गए थे। यह तरकीब हिट थी और उस समय तक उनके ही क्या भारत भर के शायद ही किसी गाँव के शौचमुक्त गाँव होने की उम्मीद रही थी। पूरे देश के गाँव छोड़िए, राजधानी दिल्ली के रिसेटलमेंट वाले इलाके लंबे समय तक सुबह के इस तरह के दृश्यों के बड़े साझी रहे हैं। बहरहाल, मुझे आज पक्का यकीन है मौसी को हमारे इस तरह बंक मारने पर संदेह तो था पर संगत में मेरे साथ होने की वजह से संदेह पक्के यकीन में नहीं बदल पाता था। किसी तरह की छुट्टियाँ हो, हम मामा के यहाँ सिवान आ जाते। हमारी छुट्टियों का अधिकतर समय सिवान के ही कागज़ी मुहल्ले में बीता करता।
सुनील भैया पढ़ते-वढ़ते नहीं थे तो वह छोटे वाले मामा के साथ उनकी दुकान पर हाथ बंटाया करते। मामा भी फ़िल्म देखने में टेक्का थे, पर उनका जमाना 'मर्द', 'प्यार झुकता नहीं' और 'तेरी मेहरबानियाँ' से निकला नहीं था। पर मामा को यह उम्र और कमाई के कारण यह सहूलियत थी कि वह नानी से बिना पूछे जा सकते थे और हम 'बेचारे' अभिशप्त थे झूठ बोलकर, छुप छुपाकर जाने को। कागज़ी मुहल्ला का सबसे नजदीकी सिनेमा हॉल दरबार था। दरबार यानी सिवान के कई दफे के सांसद मोहम्मद यूसुफ साहब के परिवार का था और सिनेमा घरों के लिहाज से इज्जतदार हॉल भी था।
पड़ोसी टॉकीज होने की वजह से हमारी अधिकतर फिल्में वहीं होतीं।
सो एक दफे हमने अजय देवगन की फ़िल्म 'हिंदुस्तान की कसम' देखना का मन बनाया। उम्र के हिसाब से मारपीट वाली फिल्में और उसमें भी अजय देवगन तबसे ही पसंद आ गए थे, जबसे उन्होंने फूल और कांटे में टांगे पसारकर स्टंट किया था। फिर सुनील भैया तो 'फूल और कांटे' के बाद से ही जुल्फी झुलाकर, अपनी गर्दन साढ़े सत्ताईस डिग्री झुकाकर और उचककर चलने के आदि हो चुके थे।
हमने डेढ़ रुपये वाले बाबू क्लास (फ्रंट स्टाल) की टिकट ली 'हिंदुस्तान की कसम' खाने यानी देखने चले गए। हमेशा की तरह प्लान फुलप्रूफ था। पकड़े जाने का डर भी मैनेज था। आज बेशक यह फ़िल्म देखने का जी भले खुद अजय देवगन को भी न करे और तब उफ्फ जलवा था देवगन का । अगर उसके साथ रवीना टण्डन हो तो मामला एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा हो जाता था। नब्बे मतलब रवीना, रवीना मतलब नब्बे। बिहार में चाहे कैसा भी राजनीतिक, आर्थिक, आपराधिक सिनेरियो रहा हो, नब्बे के दीवानों के लिए रवीना और शाहरुख, अजय के अलावा कुमार शानू, अल्ताफ रजा , अताउल्लाह खान जैसे कुछ कारण रहें, जो युवा वर्ग किसी बड़ी क्रांति की ओर नहीं गया। वैसे तब्बू, करिश्मा, ममता वगैरह भी रहीं पर मामला व्यक्तिगत चॉइस का है। तो हमने मध्यांतर में 'सिर्फ तुम' का ट्रेलर बोनस में देख लिया। ट्रेलर ने एकतरफ़ा वालों को बता दिया कि इस फ़िल्म हीरो हीरोइन से एक-दूसरे को देखे बिना इश्क़ किया है। फिर बैकग्राउंड में गिटार के स्ट्रिंग हिलते ही दिल में छप गए, बाकी का जहर जिंदा रहने के लिए तेरी कसम एक मुलाकात जरुरी है सनम ने' भरा और फिर एक झलक 'दिलबर दिलबर' की आते ही टीनएजर दिल कबूतर हो गया। देशभक्ति फ़िल्म के बीच ही हम गद्दारों ने उसी क्षण मन-ही-मन कसम खायी, 'पहला दिन पहले शो'। अब बस फ़िल्म के लगने का इंतज़ार था।
हम पर नियति का भी प्यार पूरा था। उस रोज जन्माष्टमी थी। मामा की दुकान बंद थी और मामा किसी मित्र के साथ हुसैनगंज निकले हुए थे। यह मौका मुफीद जान हमलोगों ने प्लान कर लिया कि 'अब तो ऊपर वाला भी अपने साथ है'। जैसाकि था सुनील भैया हमेशा से बड़े थे, सो उन्होंने बड़े होने का फर्ज निभाया, साढ़े दस बजे ही टिकट लेकर हम अपनी जगह पर बैठ गए। इस बार बाबू क्लास नहीं रियर स्टाल था। वह साइज में मुझसे छोटे थे पर उनका सिनेमाई मन बहुत खिलंदड़ था। वह फ़िल्म को पूरा लाइव जी कर देखा करते थे। फ़िल्म शुरू हुई जैसी उम्मीद की थी फ़िल्म बिल्कुल वैसी ही लगी। जबकि हीरो और हीरोइन सिनेमाई यश में बादाम के छिलके थे। आरती और दीपक की लव स्टोरी ने कलेजा काट लिया था। और जो छिलके माफिक थे वह नायक-नायिका भी बादाम के भाव तुल गए थे। हालांकि असल इमरौती 'दिलबर-दिलबर' वाली नायिका सुष्मिता ने भी कम कहर नहीं बरपाया था। फ़िल्म खत्म हुई, सुनील भैया 'दिलबराए' हुए बोले - "बाबू ! एक शो और देखा जाए?"- अभी ग्यारह से दो वाला खत्म था और ढ़ाई से पाँच वाला अगला शो शुरू होना था। मैंने मासूमियत ओढ़ी और तुरंत छोटा भाई में कन्वर्ट हो गया - "लेकिन टिकट कैसे भइया? भीड़ भी है।"- उधर सिवान की सिनेमची जनता काउंटर पर जमी हुई थी। केवल हमी दोनों ने कसम नहीं खाई थी, बाकी भी दीवाने थे। आपको बताया न! सुनील भैया बड़े थे और पर साइज में पॉकेट साइज। तो बड़े होने का फर्ज निभाने वह भीड़ के साथ हॉल से बाहर निकले और गेटकीपर से मेरे भीतर बैठे रहने की सेटिंग कर ली। गेटकीपर कागज़ी मुहल्ला का ही था। सो, उसने सुनील भैया के कहने पर मुझे शो के बाद भी भीतर ही बैठे रहने दिया। अब टिकट धारी जनता भीतर आने लगी थी, मैंने भी रुमाल से सुनील भैया के लिए सीट छेंक रखी थी। फ़िल्म ने स्टार्ट होने की हरकत शुरू की और थोड़ी देर में ही अंधेरे में मुझे आवाज़ लगाते सुनील भैया अंदर आए। चेहरे पर विजेता भाव था। 'सिर्फ तुम' का दूसरा शो चालू हो गया था, फ़िल्म का सर्टिफिकेट दिखाया जा चुका था। सुनील भाई ने सांस संयत करनी शुरू की थी। इंटरवल के उजाले में मैंने पाया कि टिकट विजेता सुनील भैया की शर्ट के काँख की सिलाई से उधड़ गई थी। कॉलर के पीछे से एक इंच भर कपड़ा जगह छोड़ गया था। अगर कहूं कि फट गया था तो गलत नहीं होगा। बाद में पता चला कि उनके टिकट वाली दाहिनी मुट्ठी की उंगलियों की गाँठे छिल गयी थीं। वैसे ऑनलाइन ने यह सुख छीन लिया वरना उस दौर में सिनेमचियों के लिए यह आम बात थी। टिकट लेने वाला हर ग्रुप में कोई एक ही वीर होता था, जो मुट्ठियों में भींचे रुपये को लिए, काउंटर में समाई अनेक मुट्ठियों में से उस छोटी टिकट मुहानी में से टिकट खींच लाने की काबिलियत रखता था। इस खींचतान में छिलने का खतरा तो रहता ही था पर फ़िल्म का सुख इससे ऊपर था। सुनील भैया वही वीर थे। वह अलग बात है कि 'सिर्फ तुम' का दूसरा शो देखते रहे और छिली हुई जगह को चूसते भी रहे। 'केरल में गर्मी है नैनीताल से सर्दी' की रुमानियत, 'दिलबर दिलबर के बाद का मनमसोस भाव, और 'जिंदा रहने के लिए' की तड़प के बाद 'ये जमीं आसमां, ये सदी ये जहाँ, ये चमन ये फ़िज़ां, कुछ रहे न रहे, प्यार तो हमेशा रहेगा' के साथ आरती-दीपक का नई दिल्ली स्टेशन पर मिलन हुआ। सुनील भाई ऐसे लहालोट थे मानो आरती उनकी हुई और आज से वह दीपक हुए। शाम होने वाली थी। सब कुछ प्लान के हिसाब से हुआ था और हमारे चेहरे पर निश्चिंतता और संतोष सुख ऐसा पसरा था गोया हमें इंटरेस्ट फ्री पर्सनल लोन मिल गया था। लेकिन कहते हैं ना कि जब सब शांति से गुजर रहा हो तो आशंका तूफान की भी होती है। जिसका डर और तनिक भी आशंका न थी, वही हुआ। सुबह से गायब होने की ख़बर मामा को लग गयी थी और नानी ने सुबह से हमें घर में न देख बवाल काट दिया था - "दोनों बच्चे कहाँ गए, कुछ हो तो नहीं गया, आजकल माहौल कितना खराब है"- आदि आदि। दूर से लौटे मामा परेशान हाल हुए कि नहीं पर पता नहीं क्यों और कैसे वह सिनेमा हॉल के एक्जिट पर खड़े होकर हमारा ही इंतज़ार कर रहे थे। बुजुर्गों ने सही कहा है - किस्मत खराब हो तो हाथी पर बैठे को कुत्ता काट लेता है। वही हुआ क्योंकि लिखना थोड़ा मुश्किल है क्योंकि बाकी का मामला दर्दनाक है। मामा को उस रोज इस पारंपरिक लोकविश्वास का भी भय न रहा कि भांजों पर हाथ उठाने से बुढ़ापे में हाथ कांपता है। मामा तो विशुद्ध नए जमाने के बने हुए थे। दर्द पिटाई का नहीं था बल्कि थोड़ी देर तक उस अपमान का था, जो दरबार के गेट पर हुआ था। जहाँ न आरती जी आईं, न दीपक बाबू और न दिलबर दिलबर वाली नेहा जी - सारे गीत सभी किरदार छह से नौ वाले शो में किसी और के लिए निकल लिए थे। वहाँ मौजूद जनता हंस रही थी और हम थे कि जी कड़ा किये हुए फिर से कसम खा रहे थे कि अगला प्लान फुलप्रूफ करेंगे। एक ही बार तो पकड़े गए हैं। कमबख्त इस बार किस्मत ही बुरी थी।
घर जाते मेरे कान से गर्मी निकल रही थी और सुनील भाई जो अजय देवगन कट के बाल लिए साढ़े सत्ताईस डिग्री टेढ़े उचकते चलते थे, उनकी जुल्फें मामा को उसी रोज अधिक पसंद आईं थी। वह सब अगले दिन ही दाहा नदी के मंसूर घाट की भेंट चढ़ गई। 'सिर्फ तुम' ने जादू किया था और उस जादू के खिलौने हम हुए थे। पर अगली बात की कसम पक्की थी। दरबार सिनेमा ने ही तो यह सबक सिखाया था - 'इश्क है पानी का एक कतरा/कतरे में तूफान/एक हाथ में अपना दिल रख ले एक हाथ में रख ले जान/खाली दिल नहीं जान वि ये मंगदा/इश्क दी गली विच कोई कोई लंगदा' - वहाँ लगने वाली अगली फिल्मों 'कच्चे धागे' और ' दाग : द फायर' के पोस्टर लगे हुए थे। उन्होंने कनखियों में हमने न्योता दे दिया था। फिर उस दौर का सिनेमा तो हमारा पाकीजा इश्क था, वह किसी अमरीशपुरी, परेश रावल टाइप मामा, काका, पापा से कहाँ डरता? सौ संकट थे पर सौ रास्ते भी तो रहे हैं। माना इश्क आग का दरिया है फिर डूब के तो जाना हीं है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)