ईब हरियाणा
‘के सै न आजकाल हरयाणा शाहरुख खान हो ग्या सै। बिन्या इसके फिल्म ए कोन्या बणती।’ (क्या है न कि आजकल हरियाणा शाहरुख खान हो गया है। बिना इसके फिल्म नहीं बनती।) चौबीस साल के विजेन्द्र गर्व के साथ बताते हैं कि कैसे उनके 'हरियाणे’ में आजकल शूटिंग हो रही है। यह गर्व हर हरियाणा वासी को करना चाहिए क्योंकि स्विट्जरलैंड, फिर पंजाब, दुबई, उत्तर प्रदेश के बाद अब कैमरे हरियाणा की ओर 'पैन’ हो गए हैं। यह सब अचानक नहीं हुआ है कि शिफॉन की साड़ी का पल्ला लहराती हुई नायिका अचानक से ट्यलिप के बगीचे से निकल कर हरियाणा की खुरदुरी जमीन पर उतर आई।
हरियाणा को सुनहरे परदे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए लंबा सफर तय करना पड़ा है। यह सफर कुख्याति से निकलकर विख्याति तक पहुंचने का है। खाप पंचायत, भ्रूण हत्या, लड़कियों की घटती संख्या, दूसरे प्रदेशों से शादी के लिए लड़कियों की तस्करी जैसे कई विषयों पर जब लगातार समाज में पहले सहमी सी फिर कुछ दबंग आवाजें उठीं तो हरियाणा ने सैल्यूलाइड पर अपनी जगह बना ली। हरियाणा ने फिल्मी परदे पर अपनी यह पकड़ वहां के बाशिंदों द्वारा दिए जाने वाले दो टूक उत्तर पर बनाई है। इस बात में सभी एकमत रहते हैं कि हरियाणा के लोगों के पास जबर्दस्त सेंस ऑफ ह्यूमर है। इन 'वन लाइनरों’ की बदौलत फिल्मी दृश्यों में सहज हास्य खुद ब खुद पैदा हो जाता है। सहज हास्य जिसे फिल्मी भाषा में सिचुएशनल कॉमेडी कहा जाता है, कि फिल्मी परदे पर बहुत पूछ-परख होती है।
फिल्म कहानी की पटकथा लेखिका अद्वैता काला कहती हैं, 'किसी भी राज्य की कहानियां दिखाने से उस राज्य के लोग में अलग तरह के गर्व का भाव पैदा होता है। यदि हरियाणा दिखाया जा रहा है तो यह फिल्म में नएपन की निशानी है। फिल्मकार तो चाहते ही हैं कि हर बार वे दर्शकों को कुछ नया दिखाएं। यही वजह है कि फिल्म की कहानी से लेकर किरदारों तक हर किसी में प्रयोग होता है। और यदि फिल्म की लोकेशन भी बदल जाए तो दर्शकों को और भी नयापन मिलता है।’ हाल ही में हरियाणवी चरित्र और यहीं की पृष्ठभूमि पर फिल्मों का लगातार आना जारी है। अनुष्का शर्मा ने एनएच 10 फिल्म बनाई और खाप पंचायत-ऑनर किलिंग को अलग ढंग से रखा। इस फिल्म में ऑनर किलिंग पर कोई भाषणबाजी नहीं थी और सिर्फ घटनाओं के जरिए अनुष्का ने इसकी भयावहता को दर्शाया था। हाल के कुछ सालों में खाप पंचायत के फैसले और ऑनर किलिंग से होने वाली प्रेमी जोड़ों की मौतों ने समाज के हर तबके को हिला दिया था। जब भी सामाजिक तौर पर कोई विषय जोर पकड़ता है तो फिल्मों में उसकी झलक जरूर दिखाई देती है।
प्रसिद्ध फिल्म आलोचक, स्तंभकार जयप्रकाश चौकसे कहते हैं, 'फिल्म में परिवेश कहानी का मजबूत पहलू होता है। एक वक्त था जब फिल्मों में पंजाब छाया रहता था। गांव की सौंधी खुशबू का मतलब होता था, सरसों के खेत और भांगड़ा। टेलीविजन में भी टीआरपी ने गुजरात को प्रसिद्ध कर दिया। गुजरात की पृष्ठभूमि पर धारावाहिकों के ढेर लग गए। बीच में उत्तर प्रदेश उसमें भी बनारस ने जगह बनाई। विदेश की बात तो छोड़ ही दीजिए। लेकिन अब फिल्मकार अपनी कहानियों को देसी टच देना चाहते हैं। अब यह देसी टच आएगा कहां से। तो इसलिए ही फिल्मकारों को परिवेश बदलना पड़ता है।’
मिस टनकपुर हाजिर हो और गुड्डू रंगीला ऐसी ही घटनाओं पर बनी फिल्में थीं जिसमें हरियाणा का अलग रंग था। गुड्डू रंगीला फिल्म को कोई भी पहली बार में एक हास्य फिल्म करार दे सकता है। लेकिन दरअसल यह मशहूर मनोज-बबली हत्याकांड पर बनी फिल्म है, जिसमें हास्य का छौंक लगा कर इसे थोड़ा हल्का कर दिया गया है। कई बार फिल्मकारों की इच्छा विदेश में फिल्माने की होती है, पर आर्थिक पक्ष उन्हें इसकी इजाजत नहीं देता और वे कहानी में थोड़ा कस्बाई रंग डाल कर फिल्म को स्थानीय स्तर पर फिल्मा लेते हैं। अभी हरियाणा के फिल्मी परदे पर छा जाने के पीछे बहुत से कारण है। फिल्म आलोचक वैभव दास कहते हैं, 'यह क्षेत्र फिल्मी परदे पर अनएक्सप्लोर है। यहां की संस्कृति, खान-पान, परिवेश सब कुछ दर्शकों को दिखाने के लिए नया है। जैसे यदि आप गौर करें तो पाएंगे कि बीच में मध्यमवर्ग को लेकर काफी फिल्में बनी हैं। आंखों देखी, दम लगा के हइशा ऐसी फिल्में थीं जिनमें मध्यमवर्ग बिलकुल वास्तविक था। अब दिखाने के लिए गांव बचे नहीं हैं। गांव कस्बों में तब्दील हो गए हैं। ग्रामीण परिवेश दिखाने पर नकलीपन झलकता है। तो अब निगाहें उस वास्तविक परिवेश पर हैं जो दिखने में बिलकुल आसपास के माहौल जैसा लगता है। शूटिंग भी सेट लगा कर नहीं होती, वहीं जाकर उन्हीं लोगों के बीच होती है।’ खापें प्रेम के विरुद्ध खड़ी हैं जो रोमांच भी पैदा करती है और टिकट खिड़की पर भीड़ भी जुटाती है। भाषा का देसीपन भी फिल्म को विश्वसनीय बनाता है। यही वजह है कि जब कंगना रणौत कुसुम सांगवान बन कर वहीं के अंदाज में संवाद बोलती हैं तो कम से कम हरियाणा के दर्शक तो निहाल हो ही जाते हैं।
जैसे कोई भी एक तरह का भोजन पसंद नहीं करता वैसे ही दर्शक भी एक ही तरह की फिल्में और परिवेश पसंद नहीं करते। आखिर बाकी दुनिया को हल्के-फुल्के ढंग से जानने का उनके पास यही एक तरीका होता है। अद्वैता कहती हैं, 'कई बार पटकथा लेखक को कहा जाता है कि वह फलां सीन को फलां देश या प्रदेश के किसी खांचे में फिट करे। इससे पहले किसी खास कलाकार को लेकर सीन लिखने की बातें तो अब पुरानी हो गई हैं। पर अब जगह को भी सोच कर यदि कुछ लिखना पड़े तो यह तो हद है। पर कई लेखक हैं जो यह काम कर रहे हैं। कभी-कभी किसी उत्पाद या किसी जगह को लेकर यदि निर्माता को अच्छा मुनाफा मिल रहा हो तो बात बन जाती है।’
कारण जितने हों लेकिन एक बात तो साफ है कि हरियाणा ने दर्शकों का मन मोह लिया है। उस देसीपन को दूसरे प्रदेश के लोग भी पसंद करने लगें हैं जो पहले उनकी उज्जडता का पर्याय था। उनके वन लाइनर और तपाक से जवाब दे देने की अदा को बॉलीवुड खूब भुना रहा है। और दर्शक थिएटरों में बैठ कर हंसते हुए हरियाणा से प्रेम कर रहे हैं।