फिल्म समीक्षा: खुद को खोजने का ‘तमाशा’
एक लड़का खिलंदड़ सा जो फ्रांस गया और एक लड़की जो खिलंदड़ सी थी उससे मिला। नाम, पता, कहां से आए, क्यों आए जैसा कुछ एक-दूसरे को नहीं बताएंगे यह तय होता है इसलिए एक गाना गाने के बाद दोनों बिछुड़ जाते हैं। लड़का अपनी दुनिया में, लड़की अपनी।
चार साल बाद लड़की को समझ आया कि लड़का तो वही सही था। चाहिए तो वही, पर क्या करें नाम पता तो मालूम नहीं। एक किताब का क्लू है सो आखिरकार एक किताब के जरिये (यह आइडिया हॉलीवुड की फिल्म सेरेन्डिपिटी से उठाया है) लड़की यानी नैना माहेश्वरी (दीपिका पादुकोण) ने लड़के (वेद साहनी) को खोज लिया है। लव-शव के बीच सगाई की अंगूठी और अंगूठी देख कर नैना को इलहाम हुआ कि ये तो वो नहीं है जिसे वह खोज रही है। यह तो एक सामान्य सा आम आदमी है। आम आदमी तो उसे चाहिए नहीं।
अब लड़का खुद को खोजता है और बन जाता है एक बड़ा ‘स्टोरी टेलर’ यानी कथा सुनाने वाला। ढाई घंटे से हॉल में बैठे लोग भी उकता गए हैं तो लड़की उन्हें मिली और दर्शक एक्जिट गेट की ओर भागे।
वेद साहनी साहनी बचपन से कहानी की दुनिया में जीता है। कहानी ही उसका संसार है। लेकिन वह 9 टू 6 के जॉब में इतना उलझा हुआ है कि भूल जाता है कि वह इस नौकरी के लिए नहीं बना। नैना उसे याद दिलाती है और वह नौकरी छोड़ कर खुद को एक तमाशे में तलाशता है।
इम्तियाज इसे और अच्छा बना सकते थे। देव आनंद की नकल और पुरानी फिल्मों के संवाद अब दर्शकों को नहीं लुभाते। उनके लिए कपिल शर्मा का शो ही बहुत है। यह फिल्म एक बड़ा सवाल भी खड़ा करती है। यदि किसी को भी आम आदमी नहीं चाहिए तो वह कहां जाए। क्या कभी कोई नैना उससे प्यार नहीं कर पाएगी। सभी में कोई टेलेंट हो यह भी तो जरूरी नहीं। आम आदमी हैं तो ही प्रतिभाशालियों की गिनती है। सभी वेद साहनी की तरह भाग्यशाली भी नहीं होते कि उन्हें उनकी मंजिल भी मिल जाए और प्यार भी।