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18 December 2015

एक किन्नर की जिंदगी के काले सफे

मनीषा भल्ला

 

रंजीता नाम की बेंगलूरू वासी किन्नर वैसे तो अपनी जिंदगी के कई काले पन्ने खोलती है लेकिन उन पन्नों में पुलिस स्टेशन की वह रात उसके लिए सबसे डरावनी रात थी। वह पूछती है, क्या यह लोकतंत्र है, यह समानता है, यह देश है? किन्नरों की जिंदगी बहुत गोपनीय है लेकिन 21वीं सदी के भारत में इनमें से कुछ किन्नर अपने अधिकारों के प्रति बहुत जागरूक हैं। वे पढ़े-लिखे भी हैं। रात पुलिस स्टेशन में गुजारने के बाद रंजीता बेईज्जती का घूंट पीकर अंदर नहीं बैठी। उसने स्थानीय संस्था संगमा की मदद से उस इलाके के एसीपी के खिलाफ लड़ाई लड़ी। पुलिस कमिश्नर का घेराव किया। आखिरकार जीत मिली। उस एसीपी का अपराध शाखा से ट्रैफिक शाखा में तबादला हो गया।

 

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रंजीता पैदा एक लड़के के तौर पर हुई थी। वह बताती है, 'होश संभालते-संभालते मुझे लगने लगा कि मैं गलत शरीर में हूं। लड़का होने के बावजूद मैं बचपन से लड़कों वाले बाथरूम में नहीं जाती थी। मैं तब जाती जब बाथरूम में कोई नहीं होता।  मुझे हमेशा लड़कियों के साथ बात करना पसंद होता। लड़कों से घबराहट होती थी।' चौथी क्लास तक आते-आते रंजीता को उसके सहपाठी लड़कों ने तंग करना शुरू कर दिया। वह बताती है ‘ वे मुझ पर कमेंट करते, जबरन मेरा चुंबन लेते। अब तक मेरे हाव-भाव लड़कियों की तरह जाहिर होने लगे। मेरी आवाज बारीक थी। सभी मुझ पर हंसते थे। ऐसे घुटन भरे माहौल में भी मैंने पढ़ाई नहीं छोड़ी। फिर एक दिन वह दिन भी आया जब मेरे ही स्कूल के 12वीं के लड़कों ने मेरे साथ क्लास के टॉयलेट में बलात्कार किया। फिर यह अक्सर होने लगा।‘

 

सहपाठियों के अलावा रंजीता टीचर्स से भी बुरी तरह परेशान थी। उसके कुछ टीचर्स ने भी उसका यौन शोषण किया। कुछ टीचर उसे मारते-पीटते। रंजीता के अनुसार वे कहते,  ’मर्द की तरह रहो (बिहेव लाइक अ बॉय)। मुझे रोने तक नहीं दिया जाता। मैं टॉयलेट में जाकर ऊंचा-ऊंचा रोती। मुझे लगता कि मैं दुनिया में अकेली हूं।‘  सोलह साल की उम्र में रंजीता को लगने लगा कि वह सारी दुनिया में अकेली है और उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए। वह बताती है ‘ मैं धार्मिक परिवार से हूं। घर में यह सब बताती तो बवाल हो जाता। मेरे पिता नौकरी करते थे और मां नर्स थी। स्कूल में होने वाले यौन शोषण के बारे में घर में कोई यकीन न करता बल्कि मुझे मार पड़ती।‘

 

घर में भी रंजीता के लिए मुसीबतें कम नहीं थी। जैसे-जैसे वह जवान हो रही थी, वैसे-वैसे उसके पिता जब भी उसे देखते गुस्से से बौखला जाते। वह बताती है,   ‘मुझे कभी नहीं भूलता कि एक दिन मेरे पिता ने मुझे जबरदस्ती पकड़कर मेरा शेव बना दिया, गाली देते हुए बोले हिजड़ा कहीं का, तेरी दाढ़ी-मूंछ क्यों नहीं आती। ब्लेड से मेरे गाल जगह-जगह से कट गए। ’ ऐसे ही चलता रहा और रंजीता दसवीं क्लास में आ गई। कुछ भी हुआ लेकिन रंजीता ने पढ़ाई नहीं छोड़ी। स्कूल के नाटक  कार्यक्रमों में उसे महिलाओं की भूमिका दी जाती। तब स्कूल में उसकी और हंसी उड़ने लगी। वह बताती है कि जिन दिनों उसके दिमाग में यह चल रहा था कि उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए उन दिनों वह मेकैनिकल इंजीनियरिंग के डिप्लोमा में एडमिशन ले चुकी थी। एक दफा वह एक बस स्टॉप पर खड़ी थी। वहां उसने देखा कि उसके जैसा एक और शख्स खड़ा है। उससे बात करने पर उसे लगा कि उसके जैसे और भी लोग हैं। उसने आत्महत्या करने का विचार छोड़ दिया।

 

वह बताती है, ‘ मैं अक्सर उनके अड्डे पर जाने लगी। उनसे घुलने-मिलने लगी। फिर हम चार लड़के घर से बिना बताए भाग गए। हमने नौकरी की ताकि लिंग परिवर्तन के लिए ऑपरेशन करवा सकें। मैंने एक कपड़े की दुकान पर छह महीने तक काम किया। हमने उस पैसे से अपना- अपना लिंग परिवर्तित कराया। अब लैंगिक तौर पर हम लड़के से लड़की हो चुके थे। अब मैंने हिजड़ा समुदाय के साथ रहना शुरू कर दिया। लेकिन वहां रहने के बाद मुझे लगने लगा कि मेरा पति और बच्चे होने चाहिए। अब तक स्त्रीतत्व मेरे अंदर इस तरह घर चुका था कि मुझे लगने लगा कि मुझे मेरा परिवार चाहिए। मैं शादी करूंगी, पत्नी की तरह रहूंगी।‘

 

रंजीता का एक लड़के से अफेयर हो गया। दोनों साथ रहने लगे। वह लड़का कोई काम नहीं करता था। लेकिन रंजीता उसके प्यार में उसे समर्पित थी। वह घर का भी सारा काम करती और घर चलाने के लिए रात में वेश्यावृति करती। दो साल के बाद उस लड़के और रंजीता में झगड़े होने लगे। लड़के के माता-पिता का कहना था कि वह किसी लड़की से शादी करे। आखिरकार वह चला गया। अब वर्ष 2004 में में रंजीता स्तन प्रत्यारोपण भी करवा चुकी थी। वह पूरी तरह से तमाम वर्गों और अपने बच्चों के लिए बतौर मां जीना चाहती थी।

 

वह बताती है कि वर्ष 2007 तक उसने कितनी तकलीफें झेल ली थीं। उसने तय किया कि अब वह सिर्फ हिजड़ों के लिए नहीं बल्कि पूरे समाज के लोगों के लिए काम करेगी। वह महिला आंदोलनों में हिस्सा लेने लगी। अब तक रंजीता का परिवार भी उसे अपना चुका था। इस मामले में रंजीता की किस्मत दूसरे हिजड़ों से अच्छी निकली। वह बताती है ‘ मेरी मां हमेशा मुझसे संपर्क में रही। जब भी मैंने सर्जरी करवाई तो वह मेरे साथ रही। मेरी मरहम-पट्टी की। मां ने मुझे वैसे अपनाया, जैसी मैं थी। अब मैं सेक्सुअल ओरिएंटेशन पर लेक्चर देती हूं। जेंडर मामलों पर यूनिवर्सिटी में क्लास लेती हूं। इस बीच मेरी बहन की मौत हो गई थी, उसके दो बच्चे थे। मेरे परिवार ने मुझे अपना लिया और मैं उन दोनों बच्चों की मां बन गई। अब मैं अपने घर में अपने मम्मी-पापा के साथ रहती हूं।

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TAGS: रंजीता, बेंगलुरू, हिजड़ा, किन्नर, मानवाधिकार, लोकतंत्र
OUTLOOK 18 December, 2015
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