आगाज तो अच्छा , अंजाम क्या होगा
बीते कुछ महीने पहले जब सर्वोच्च न्यायालय का किन्नर समुदाय को लैंगिक पहचान देने संबंधी फैसला आया तो लगा सब बदलने वाला है। अक्सर तिरस्कार झेलने को मजबूर यह समुदाय अब हक और इज्जत से रह सकेगा। हालांकि इस समुदाय के बीच हाशिए पर रह रहे एक वर्ग को फैसले से कोई उम्मीद नहीं थी। आज इतने महीने बाद लग रहा है कि उन्हें आभास था कि जमीनी हकीकत कुछ और है।
वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में लगभग पांच लाख ट्रांसजेंडर हैं। हालांकि इनकी गिनती इससे कहीं ज्यादा है। इनके अधिकारों की बात करें तो तमिलनाडु राज्य में इन्हें सबसे अधिक अधिकार प्राप्त हैं। वहां इस समुदाय के लिए बाकायदा एक कल्याण बोर्ड है। हालांकि इसके पीछे वहां के किन्नरों का तीस वर्ष का संघर्ष है। बीते सालों में दूसरे राज्यों में भी संघर्ष की शुरूआत हुई। कई किन्नरों ने पारंपरिक बधाई गाने के काम को छोड़ सामाजिक संघर्ष कर राजनीति से लेकर कई दूसरे कारोबार में आने की हिम्मत दिखाई। पहले मध्य प्रदेश में शबनम मौसी, वहीं से कमला जान, गोरखपुर से आशा दीदी, दीनानगर (गुरदासपुर) से प्रवीण और अब रायगढ़ से मधु जैसे किन्नरों ने सामाजिक संघर्ष की लड़ाई लड़ समाज में अपनी जगह बनाई। जनता ने भी इनमें विश्वास जाहिर कर इन्हें निगम या विधानसभा चुनावों में फतह दिलाई लेकिन यह जीत नहीं है बल्कि लड़ाई यहां से शुरू होती है। क्योंकि इससे पहले तो कोई बधाई गाने के अलावा किसी दूसरे पेशे के बारे में सोच भी नहीं सकता था। ट्रांसजेंडर्स को लैंगिक और संवैधानिक अधिकारों संबंधी तीन लोगों ने जनहितयाचिका दायर की थी। इनमें राष्ट्रीय न्याय सेवा प्राधिकरण भी एक है। प्राधिकरण की निदेशक लाया मेधिनी कहती हैं ‘यह सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का ही परिणाम है कि रायगढ़ से किन्नर मधु के मेयर बनने को किसी ने न्यायालय में चुनौती नहीं दी। आज से दस साल पहले मध्य प्रदेश से ही कमला जान जीती थी, जिन्होंने अपनी लैंगिक पहचान महिला बताकर चुनाव जीता लेकिन जीत को अदालत में चुनौती दी गई और कमला हार गईं। इसी प्रकार मदुरै से भी एक किन्नर को जीत के बावजूद अदालत में चुनौती दी गई। कम से कम अब इनकी लैंगिक पहचान को कोई चुनौती नहीं दे सकता।’ लाया के अनुसार लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि सब ठीक हो गया है बल्कि चुनौतियां तो अब शुरू हुई हैं। गौरतलब है कि अदालत ने अपने फैसले में कहा था कि किन्नर समाज को सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ा समुदाय माना जाएगा। जिसके तहत उन्हें नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण मिलेगा। इस फैसले से किन्नरों को तीसरे जेंडर के तौर पर नया नाम ‘ट्रांसजेंडर’ मिला। ट्रांसजेडर समुदाय के कुछ नेताओं की पहल पर वर्ष 2013 में इस लैंगिक पहचान के लिए आर्टिकल-39-राष्ट्रीय न्याय सेवा प्राधिकरण नामक संस्था ने ‘क्रिएट जेंडर स्पेस’ नाम से जनहित याचिका दायर की थी। इसमें समलैंगिक शामिल नहीं है। ट्रांसजेंडर लैंगिक पहचान से जुड़ा मुद्दा है जबकि समलैंगिक यौन इच्छा से जुड़ा मसला है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार ट्रांसजेंडर के तहत अधिकार पाने के लिए ऑपरेशन करवाना जरूरी नहीं। किसी पुरुष को लगता है कि उसे महिला होना चाहिए तो वह महिलाओं की तरह रह सकता है। किसी महिला को लगता है कि उसे पुरुष होना चाहिए वह पुरुषों की तरह रह सकती है। किसी को लगता है वह इनमें से कोई भी नहीं, वह उस तरीके से रह सकता है। तमिलनाडु में तो ट्रांसजेंडर होने के लिए लिंग परिवर्तन का सरकारी अस्पतालों में प्रावधान है।
बेशक फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को किन्नर समुदाय को पिछड़ा वर्ग के तहत सुविधाएं देने के निर्देश दिए थे लेकिन इसे लागू कैसे करेंगे इस बारे किसी को कुछ नहीं पता है। यानी यदि कोई किन्नर जाति के अधार पर पिछड़े वर्ग से नहीं है तो राज्य क्या करेगा। अब सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों से जवाब मांगा है कि ऐसी स्थिति में वे कैसे काम करेंगे। लाया के अनुसार किसी भी सरकारी फॉर्म में तीसरा खाना ट्रांसजेंडर का होना चाहिए और उसे कानूनन कोई चुनौती न दे। कोई भी लैंगिक पहचान उनका हक है। इस संबंध में ही जनहितयाचिका दायर करने वाली ट्रासजेंडर समुदाय की लक्ष्मी त्रिपाठी बताती हैं ‘मुझे तो नहीं लगता कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद कोई बहुत बड़ा बदलाव आया है। हमने तो इतना कुछ सोचा था लेकिन जमीनी हकीकत उससे अलग है। कोई बोर्ड गठित नहीं हुआ, कोई योजना नहीं बनी। न्यायालय के फैसले को लागू करने के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही।’ लक्ष्मी का कहना है कि वह रायगढ़ की मधु की जीत से बहुत खुश हैं। कम से कम ऐसा होने से समाज और सरकार में इस समुदाय की आवाज और बुलंद होगी। हालांकि लक्ष्मी के अनुसार मधु से पहले गोरखपुर में आशा दीदी भी मेयर रह चुकी हैं और उन्होंने अपनी कार्यकाल भी पूरा किया था।
इनमें चंडीगढ़ की रहने वाली मधु महंत की अनदेखी नहीं की जा सकती है। वह बेहद पढ़े-लिखे परिवार से हैं और खुद भी शिक्षित हैं। मधु महंत का कहना है ‘मैं ऐसा नहीं मानती हूं कि इस फैसले के बाद किन्नरों का काया कल्प हो जाएगा। किन्नर समुदाय के साथ कोई चमत्कार हो जाएगा। उसकी वजह है कि मान लो किन्नरों को नौकरियों में आरक्षण मिल भी गया तो आज के समय में तो अच्छे-खासे पढ़े-लिखे लडक़े-लड़कियां बेरोजगार घूम रहे हैं, ऐसे तो हमें कोई नौकरी क्यों देगा। नौकरियां मिल भी गईं तो कितने किन्नरों को मिलेंगी। ऐसे में बाकियों का क्या होगा? तीसरा जो किन्नर डेरे पर रहते हैं,मुझे नहीं लगता कि वे बहुत क्रांतिकारी हो पाएंगे क्योंकि डेरे के नियम-कानून बहुत कठोर होते हैं। जैसे मैं आजतक कभी सिनेमा देखने नहीं गई। बाजार नहीं जाती हूं। हमें इजाजत नहीं कि हम फालतू इधर-उधर घूमें। बधाई से आने के बाद घर में ही रहना होता है और गुरु की सेवा करनी होती है। हां,कोई मेहमान आ जाए तो उसे घुमाने ले जाते हैं।’ मधु के अनुसार अधिकारों से जुड़ा मामला इतना पेचीदा है कि कुछ भी कहना मुश्किल है। हालांकि किन्नर समुदाय के ज्यादा से ज्यादा राजनीति में आने को मधु अच्छा मानती हैं। उनका कहना है कि इससे कम से कम समाज किन्नर समुदाय के प्रति संवोदनशील होगा। मधु का कहना है कि कानूनी हक के अलावा समाज का रवैया बदलना बहुत जरूरी है।
हाशिए पर जी रहे किन्नरों की कहानी बाबू राम की बात से जानी जा सकती है। रोहतक के रहने वाले बाबू राम कहते हैं ‘मुझे न तो इन अधिकारों के बारे में कुछ पता है और न ही आपसे बात करनी है। मैं किसी अदालत और अधिकार के बारे में नहीं जानता।’ बाबू राम ने इतना कहकर फोन काट दिया।
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इतिहास में किन्नर
किन्नरों की भारत समेत दुनिया के इतिहास में महत्पवूर्ण भूमिका रही है। कई किन्नरों ने अपना लोहा मनवाया है। इतिहास में दिल्ली पर राज करने वाले अलाउद्दीन खिलजी के हैड जनरल मलिक काफूर बेहद ताकतवर जनरल थे। 1296 से 1316 तक लड़ी लड़ायों में काफूर ने अमरोहा के मयुद्ध में मंगोलों पर जीत हासिल की। दक्षिण भारत में वारांगल, द्वार समुद्र और मदुरै में भी काफूर ने जीत हासिल की। वर्ष 1294 में महाराष्ट्र में देवगिरी के यादवों को हराया। वर्ष 1316 में काफूर की मौत हो गई। इसके अलावा दुनिया में भी कुछ किन्नर हैं जिन्होंने खासा नाम कमाया है। एडमिरल झेंग ही , एैबेलॉडऱ्, ऑरिजेन, एैलेसाड्रो मॉरेसची, नारसेस, स्पोरस, पॉथिनस, जुदारपाशा, थॉम्स कॉर्बेट हैं।