पटाखों के प्रदूषण की जिम्मेदारी
दिवाली के आस-पास दो-चार दिन मीडिया में थोड़ी बहस हो जाती है। लेकिन यह बीमारी तो साल भर जारी रहती है। शराब तो धीरे-धीरे जानलेवा साबित होती है। पटाखों से तो कुछ मिनटों में लोग मारे जाते हैं। किसी सरकार या संगठन ने इस बार विजयादशमी पर क्या इस बात का शोधपूर्ण अध्ययन किया कि रावण, मेघनाद, कुंभकर्ण के पुतलों में कितने करोड़ रुपयों के पटाखे लगे और उससे कितना वायु प्रदूषण हुआ। पुराना इतिहास छोड़ दें, पचास-साठ साल पहले क्या हर शहर, कस्बे, गली-मोहल्लों में इस तरह बड़े पैमाने पर पटाखों के साथ विजयादशमी का उत्सव मनता था? सामाजिक एकता के साथ शहर के एक-दो प्रमुख स्थानों पर बुराई के प्रतीक पुतलों का दहन होता था। अब तो रामलीला हाईटेक हो गई और टी.वी. सिनेमा के बावजूद देश भर में उसके लिए आकर्षण होता है। इसलिए मोहल्ले और गांवों में रामलीला के आयोजन समितियों को लाखों रुपया जुटाने एवं बड़ी संख्या में दर्शकों को आकर्षित करने में भी सुविधा होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को लखनऊ के ऐशबाग की रामलीला के अंतिम दृश्य में ‘रावण-वध’ का मंचन देखा लेकिन पटाखों भरे पुतले जलाने की आतिशबाजी के लिए नहीं रुके। यह पहल दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, वाराणसी, इंदौर, पटना जैसे अन्य शहरों में क्यों नहीं हो सकती। बुराई के प्रतीक रावण-दहन के नाम पर करोड़ों के पटाखे जलाए जाने की अनिवार्यता क्यों हो? यही नहीं विजयादशमी से दीपावली और छोटी दिवाली तक आतिशबाजी के धंधे में कितनी कमाई और बर्बादी होगी। श्वास रोग से पीड़ित लाखों बुजुर्गों, बच्चों, महिलाओं को इस प्रदूषण से होने वाले कष्ट एवं मृत्यु तक के खतरों की चिंता क्यों नहीं की जाती? दिल्ली की ‘महान’ सरकार गाड़ियों के प्रदूषण रोकने के लिए साल में दो-तीन बार ऑड-ईवन का प्रयोग कर सकती है, तो रावण दहन से रामराज्य की दीवाली और सामाजिक उत्सवों के दौरान पूरे साल चलने वाले पटाखों पर अंकुश लगाने का कदम क्यों नहीं उठा सकती है? उत्सव की बात भावनात्मक हो सकती है, लेकिन विवाह, राजनीतिक विजय के जश्न के जुलूस के दौरान कितने पटाखे फूंके जाते हैं? दिल्ली सहित कई शहरों में खास अवधि में रात 11 बजे आतिशबाजी न करने के आदेश भी जारी होते हैं लेकिन इन्हें लागू कर पाना कितना संभव है? स्वच्छता अभियान की तरह पटाखा नियंत्रण अभियान क्या राष्ट्रीय स्तर पर नहीं चलाया जा सकता है?