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18 November 2015

अकादमिक दुनिया पर भी कट्टरपन के वायरस का खतरा

गुगल

विकास के मुद्दों पर लगातार शोध करने वाले वरिष्ठ अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज को पिछले दिनों देश की राजधानी में चल रहे दिल्ली इकोनॉमिक्स कॉनक्लेव में बोलने नहीं दिया गया। पहले ज्यां द्रेज का नाम इस सम्मेलन में शामिल था। बिल्कुल आखिरी क्षण में ज्यां द्रेज का नाम वक्ताओं की सूची से हटाया गया और यह तक कह दिया गया कि ज्यां इस सम्मेलन में शिरकत तक नहीं कर सकते। छह नवंबर को इस एकदिवसीय सम्मेलन का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया। बताया जाता है कि चूंकि ज्यां द्रेज मौजूदा केंद्र सरकार की आर्थिक नीतियों के कटु आलोचक हैं इसलिए उनका नाम हटाया गया। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज को जब वित्त मंत्रालय से उनका नाम वक्ताओं में से हटाने की सूचना दी गई तो वह रांची से दिल्ली के लिए ट्रेन में बैठ चुके थे। ज्यां ने बताया कि उस अधिकारी ने यह भी कहा कि उन्हें इस सम्मेलन में शिरकत करने की भी अनुमति नहीं होगी। ज्यां के विचारों से किस कदर डर लगा होगा, इसका अंदाजा हम लगा ही सकते हैं। शायद आलोचना का कोई भी स्वर मोदी सुनने को तैयार नहीं होंगे। इस घटना से यह भी साफ हुआ कि सरकार तमाम सरकारी कार्यक्रमों में, यहां तक की अर्थव्यवस्था पर कॉनक्लेव में भी असहमति के स्वर नहीं सुनना चाहती है। देश में बढ़ती असहिष्णुता और नीतियों के बारे में आउटलुक की ब्यूरो प्रमुख भाषा सिंह ने ज्यां द्रेज से बात की, पेश हैं अंश:

देश में बढ़ रही असहिष्णुता के खिलाफ आवाजें बुलंद हो रही हैं, क्या अकादमिक क्षेत्र में भी इस तरह का माहौल बन रहा है?

मुझे नहीं लगता कि अकादमिक स्वायत्तता पर गंभीर किस्म के हमलों का वह दौर अभी शुरू हुआ है। हालांकि यहां भी मुठभेड़ होनी शुरू हो गई है, जैसे वेंडी डॉनिगर की किताब हिंदूज को जबरन वापस करवाना। लेखक और कलाकारों पर हमलों का ज्यादा खतरा मंडराता है। वजह यह कि अकादमिक शोध की तुलना में उनका काम ज्यादा क्रांतिकारी होता है। हालांकि जिस तरह चीजें बढ़ रही हैं, कुछ समय की बात है, अतार्किकता और कट्टरपन का वायरस अकादमिक दुनिया को भी प्रदूषित कर देगा।

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अर्थव्यवस्था उस रफ्तार से नहीं चल रही है, जैसा की लगातार वादा और दावा किया जा रहा है। क्या दिशा का संकट है या कोई और वजह है?

अर्थव्यवस्था पिछले 12 सालों से हर साल करीब 7.5 फीसदी की दर से ही बढ़ रही है। साल दर साल इसमें थोड़ा-बहुत उतार-चढ़ाव आता रहता है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की विकास दर बहुत अधिक नहीं रही, लेकिन स्थिर रही है। हमें आर्थिक विकास दर बढ़ाने के बारे में थोड़ा कम चिंतित होना चाहिए क्योंकि इसे बढ़ाना संभव हो भी सकता है और नहीं भी। जोर सामाजिक विकास पर देना चाहिए। तेज सामाजिक विकास के लिए सिर्फ तर्कसंगत आर्थिक विकास दर ही नहीं चाहिए बल्कि कई महत्वपूर्ण क्षेत्रों में जैसे-शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण, बुनियादी सुविधाएं, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक बराबरी आदि में प्रभावकारी सरकारी पहल और नीतिगत दखल की जरूरत है।

 क्या आपको लगता है कि सामाजिक और विकास क्षेत्र पर सरकार ध्यान नहीं दे रही? उसका सारा ध्यान निवेश, उद्योगीकरण पर है।

मुझे लगता है कि सामाजिक क्षेत्र पर प्रतिकूल असर इसलिए पड़ा है कि केंद्र सरकार की इस दिशा में राजनीतिक और वित्तीय प्रतिबद्धता की कमी है। इस बजट में बेहद महत्वपूर्ण योजनाओं पर बुरी मार पड़ी। इंटीग्रेटेड चाइल्ड डेवलपमेंट सर्विस (आईसीडीएस) के फंड में कटौती कर दी गई, बिना इस बात की गारंटी किए हुए कि बजट में होने वाली कमी की भरपाई राज्य सरकारें करेंगी। इस मसले पर 14वें वित्त आयोग का दरवाजा खटखटाया गया लेकिन आयोग ने इस बारे में कोई ठोस सिफारिश नहीं की। अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो यह मानव पूंजी की कीमत पर ठोस पूंजी को बढ़ावा देना शुरू किया है। इसे नेहरू के दौर में की गई बड़ी चूकों की वापसी है।

आपका नाम आखिरी क्षण में अर्थव्यवस्था पर दिल्ली सम्मेलन से हटाया गया। आपको क्या लगता है कि वे आपको सुनने को तैयार नहीं थे?

इस बारे में तुक्का ही लगाया जा सकता है। मेरा अंदाजा उतना ही अच्छा हो सकता है, जितना आपका। मुझे तो ये भी पता नहीं कि इस सारी कहानी में वे कौन हैं। जो हुआ अब सामने है।

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TAGS: ज्यां द्रेज, कट्टरपन, अर्थव्यवस्था, संकट, गरीबी, सामाजिक न्याय, नरेंद्र मोदी, jean dreze, economist, delhi economic conclave, speaker
OUTLOOK 18 November, 2015
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