संपादक की कलम से: खुदमुख्तार दलित
हालांकि उनके जन्म के करीब 130 वर्ष और मृत्यु के 65 वर्ष बाद भी यह नहीं कहा जा सकता है कि हम आंबेडकर के लक्ष्यों पर खरे उतरने वाले स्वतंत्र और गौरवान्वित देश हैं। इस साल भी उनकी वर्षगांठ पर, पहले के तमाम वर्षों की तरह, सांकेतिक श्रद्धासुमन की कोई कमी नहीं। लेकिन हम बिलाशक उन मूलभूत उद्देश्यों के प्रति दृष्टि और प्रायश्चित का भाव गंवा चुके हैं, जिसे आंबेडकर हासिल करने को संघर्षरत रहे। भारत जातिवाद के अभिशाप से मुक्त नहीं हो पाया। एक बड़ी आबादी के खिलाफ पूर्वाग्रह को खुराक देने वाली गहरी दरारें आज भी फल-फूल रही हैं। अलबत्ता, खाइयां चौड़ी ही हुई हैं। हमारी 1.3 अरब आबादी में लगभग एक-तिहाई दलित हमारी राष्ट्रीय चेतना में गाहे-बगाहे ही दर्ज हो पाते हैं।
चुनाव ही अपवाद हैं, जब दलित समुदाय की खैर पूछी जाती है और उसके वोट मांगे जाते हैं। उसके अलावा ज्यादातर सुर्खियां हताशा और निराशा की होती हैं। कभी हाथरस, तो कभी खैरलांजी जैसी दलित उत्पीड़न की पाशविक वारदात हमारी सामूहिक चेतना को झकझोर जाती हैं। लेकिन, फिर सब सामान्य हो जाता है और दलित हमारे पूर्वाग्रहों को झेलते रहते हैं, बुनियादी गरिमा से भी वंचित रहते हैं।
अलबत्ता छूआछूत और भेदभाव के खिलाफ कड़े कानून हैं, मगर समाज उन पर पूर्वाग्रह के कोड़े बरसाता रहता है। अपराध के आंकड़े इस बदतरीन हालात की गवाही देते हैं। हर रोज कम से कम 10 दलित औरतों के साथ बलात्कार होता है, और अपमान से लेकर शारीरिक उत्पीड़न तो दलितों के साथ हर 15 मिनट में होते हैं। इस समुदाय के दुख-संताप पर लाखों पन्ने लिखे जा चुके हैं और उतने ही लिखे जाते रहेंगे। लेकिन उनकी नियति बदलती नहीं दिखती है। उनका उत्पीड़न छोटी-से-छोटी बात पर भी जारी है, जैसे अपनी शादी में कोई दलित दुल्हा घोड़ी पर कैसे चढ़ गया या मूंछें कैसे उगा लीं।
यह बेवजह नहीं है कि दलित से जुड़े अफसाने बेहिसाब हताशा पैदा करने वाले हैं। लेकिन आउटलुक के इस विशेष अंक में हम दलित दशा को जाहिर करने वाले सामान्य अफसाने से आगे निकलकर समुदाय की ऐसी शख्सियतों पर नजर डाल रहे हैं, जिन्होंने तमाम अवरोधों को पार कर अपने-अपने क्षेत्र में कामयाबी का परचम लहराया है। आउटलुक का मकसद हमेशा कुछ नया तलाशने की है। दलित और हार्वर्ड के विद्वान सूरज येंग्ड़े ने जब सुझाया कि हमें वही पुराने दुख-संताप की बात करने के बदले प्रेरणादायक दलित शख्सियतों पर फोकस करना चाहिए, तो उस ताकतवर विचार ने हमें काट खाया।
प्रबंध संपादक सुनील मेनन की अगुआई में हमारी संपादकीय टीम ने इस अंक को ऐसी खुदमुख्तार शख्सियतों का उत्सव बना डाला, जिनके काम का झंडा फहराता है। येंग्ड़े के शब्दों में ‘‘वे आकर्षक और आगे बढ़ने को तत्पर दिखते हैं। वे बेहद सामान्य हैं मगर ऐसे विरले कि हर कोई उनसे जुड़ना चाहे।’’ इसलिए इस फेहरिस्त में मायावती या चंद्रशेखर आजाद जैसे दलित आवाज उठाने वाले नेता नहीं हैं। हमारी नजर उन पचास दलित कामयाब शख्सियतों पर है, जो मशहूर तो हैं, मगर कुछ अभी सुर्खियों से दूर बने हुए हैं।
बॉलीवुड के कॉमेडियन जॉनी लीवर को ही लें। वे परदे पर अपनी किरदारी से हम सबके चेहरे पर हंसी बिखेर देते हैं। इस फेहरिस्त में और भी हैं जिनकी कामयाबी से आपके चेहरे खिल जाएंगे। राष्ट्रीय रिकॉर्डधारी एथलीट हीम दास को ही लें, जिन्हें प्यार से असम में उनके गृह नगर के नाम पर धींग एक्सप्रेस कहकर पुकारा जाता है। दलित के घर जन्म और तंग माली हालत उन्हें दौड़ने और वाहवाहियां बटोरने से नहीं रोक पाई। दूसरे भी कम दमखम और हुनर वाले नहीं। चेन्नै के फिल्मकार पा रंजित हों या किंवदंति बन चुके रैपर, पार्श्व गायक, गीतकार अरिवु, जिनकी रचना को ए.आर. रहमान ने पेश किया है। वाकई ये नामचीन दलित हैं, जिन्होंने अपनी जगह खुद बनाई है।