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16 April 2015

जाना एक सहज शख्सियत का

महेश दर्पण

अवधनारयक मुद्गल के लेखन की शुरुआत कविता से हुई थी। वह कविताओं को बहुत गंभीरता से लेते थे और बहुत साफ कहते थे कि कविता की अस्वीकृति से अपने साहित्य के प्रति गर्व का आधार ही समाप्त हो जाएगा। कहानियों के प्रति उनकी रुचि अमृतलाल नागर जी से संपर्क के बाद और बढ़ गई थी। उनकी पहली कहानी 1953 में आगरा के युवा लेखक संघ की पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। सन 1961 से उनकी कहानियों ने गति पकड़ी और करीब चौदह बरस तक वह कहानियां लिखते रहे। उनके लेखन में व्यंग्य की अंडरटोन बराबर रहती थी। शायद यही वजह है कि बाद में वे व्यंग्य कथा रिपोर्ताज की तरफ झुकते चले गए। उनकी प्रमुख कहानियों में ‘कबंध’, ‘रिटायर अफसर’, ‘चक्रवात’, ‘गंधों के साए’, ‘दस्तकें’, ‘संपाती’ और ‘टूटी हुई बैसाखियां’ हैं। एक समय खूबसूरत गीत और गजलें लिखने वाले अवधनारायण मुद्गल मिथकीय प्रतीकों की कविताओं में उतारते चले गए। ‘महाभारत का जन्म’, ‘प्रमथ्यु : एक विकेंद्रित आग’, ‘नाग यज्ञ और मैं’ तथा ‘कर्ण : एक नीति परिदृश्य’ आदि उनकी मिथकीय प्रतीकों की महत्वपूर्ण कविताएं हैं। लेकिन ये केवल मिथक नहीं आधुनिक संदर्भों से जुड़कर अपनी बात कहती हैं। कविता के लिए प्रतीकात्मकता को वह एक जरूरी और महत्वपूर्ण गुण मानते थे। अपनी बेटी अपर्णा और दामाद की शादी के बहुत कम समय बाद ही दुर्घटना में मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया था। आत्मपीडन के इस दौर में उन्होंने वैयक्तिक मार्मिक कविताएं लिखीं. ‘एक खत गुमशुदा बेटी के नाम’ पढ़कर कोई भी उनकी इस मानसिकता को समझ सकता है। कविता में इतिहास की भूलभुलैया में उतरना उनके लिए महज खेल नहीं था। वह अपना वजूद खुद तलाशने की बात करते हुए नया इतिहास बनाने की ओर संकेत करते हैं। उनके नव्य गीत एकदम अलग तरह के हैं। ‘सांझ रात’ और ‘सुबह की धूप’ में उनकी इस गहरी संवेदना को समझा जा सकता है. शहर पहुंचकर भी घर-आंगन और गांव की स्मृतियों से बंधे इस रचनाकार को हजारों मुखौटे लगाने वाले लोग कतई पसंद नहीं। उनकी गजलें अपनी खास अदा में मोहित करती हैं।  एक गजल का शेर है, ‘क़र्ज़ बापू ने लिया है आज ही, आज ही बेटी सायानी हो गई।’

अवधनारायण मुद्गल के रचना संस्कारों में यशपाल और अमृतलाल नागर का बड़ा योगदान है। वह अपना पत्रकारिता का जीवन जनयुग और स्वतंत्र भारत से प्रारंभ करते हैं और फिर कुछ समय हिंदी समिति, लखनऊ में काम करने के बाद अपने समय की सर्वाधिक चर्चित कथा पत्रिका ‘सारिका’ में आ जाते हैं। सत्ताईस वर्षों तक सारिका से जुड़े रहे मुद्गल जी दस वर्ष तक उसके संपादक भी रहे। कहना जरूरी है कि बहुतेरे ऐसे लेखक जो इससे पहले सारिका में प्रकाशित ही नहीं होते थे उनके समय में अपनी रचनाएं सहर्ष देने लगे। वह वामा, पराग, छाया मयूर आदि के संपादक भी रहे। उनके लेखन का एक खास अंदाज ‘मुंबई की डायरी’ और ‘एक फर्लांग का सफरनामा’ में नजर आता है। ‘राजनीति की शवयात्रा’, ‘अंधे सूरज का अनुशासन’, ‘सिर्फ छोरों से जुदा हुआ आदमी’ और ‘आतंक के बीच उभरती शकलें’ पढ़कर इसे जाना जा सकता है। उनके सफरनामे सचमुच न तो यात्रा हैं न संस्मरण न यात्रा संस्मरण। वे न आंखों देखा हाल हैं और न रिपोर्ताज। ख़ास बात यह है कि इनके स्थान और पात्र न तो खोजे गए हैं न गढ़े गए हैं और न ही कल्पना और विचार की उपज हैं। दरअसल विचार तो इनमे लेखक की संवेदना के साथ धड़कता है। अपने आस पास और राह चलती दुनिया में घटती-बीतती भलाइयों-बुराइयों और खुशियों-गमों से अचानक साक्षात्कार होने पर एक दृष्टि संपन्न रचनाकार को जो एहसास होते हैं उन्हें वह सामजिक निष्ठा के साथ कागज पर उतार देते हैं.

कम लोग यह बात जानते होंगे कि जो लघुकथा आज एक सशक्त विधा के रूप में स्थापित हो चुकी है उसके लिए प्रारंभिक आलोचनात्मक लेखन अवध जी ने ही किया था। वह इस विधा को लाशों के दलालों और फंगस प्रवृत्तियों के खिलाफ एक जुझारू रूख के रूप में रेखांकित कर रहे थे। यही नहीं उन्होंने स्वयं भी कुछ अच्छी लघुकथाएं लिखीं। इनमे ‘कुतुब की छत से’, ‘सिसीपस’, ‘जंगल’ और ‘सावित्री नंबर तीन’ प्रमुख हैं। यशपाल पर उनका संस्मरणात्मक लेखन और जब तब लिखे गए उनके संपादकीय महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं। वह राजेन्द्र सिंह बेदी को बेहतरीन कहानीकारों में मानते थे। उनकी मान्यता है कि बेदी अपने आप में एक संस्था थे।  उन पर सोचना एक व्यक्ति पर सोचना नहीं है। नवलेखन को लेकर उनका उत्साह देखने लायक था। आज के कई स्थापित और बड़े लेखक उनके संपादन काल की देन हैं।

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जिन लोगों ने अवधनारायण मुद्गल को कम से कम पच्चीस वर्ष पहले देखा होगा वे अच्छी तरह जानते हैं कि टू पीस सूट पर टाई लगाये, मोटे फ्रेम वाले चश्मे में उनकी धज कितनी आकर्षक होती थी। वह जिस सहजता के साथ इराक यात्रा के दौरान बेबीलोनिया में टहल सकते थे, ठीक उसी तरह मयूर विहार फेस-2 की सड़कों पर मधु लिमये, शानी, चंचल, सुरेन्द्र अरोरा, सुरेश उनियाल आदि के साथ भी घूम सकते थे। लुंगी और बनियान पहने मुद्गल जी के साथ लॉरेंस रोड की सड़कों पर मैं, योगराज थानी, राकेश वत्स, रमेश बत्रा, जगदीश चंद्रिकेश और महावीर प्रसाद जैन जैसी उत्साह बातें करते हुए टहला करते थे वह सब अब एक कल्पना लोक की तरह ही लगता है। वह जिस सहज भाव से नागार्जुन, विष्णु प्रभाकर और इस्मत चुगताई से मिलते, वैसे ही शिवानी, अमृता प्रीतम और शब्द कुमार से। उनकी तबीयत में कई रंगीनियां शामिल थीं। यह बात उनके लखनऊ और मुंबई के दोस्तों के साथ-साथ दिरयागंज के उनके अनेक गैर साहित्यिक मित्र बखूबी जानते हैं। 15 अप्रैल, 2015 को उनका अचानक चले जाना एक कहानी का औपचारिक अंत भले ही कर गया हो लेकिन ऐसी कई कहानियों को जन्म भी दे गया है जिनके पीछे उनकी धर्मपत्नी चित्रा मुद्गल और पुत्रवधू शैली द्वारा की गई समर्पण भाव से उनकी सेवा छिपी है। मेरे लिए वह बेहद सहज मित्र, दादा और विभागाध्यक्ष रहे। उनके साथ सारिका में बिताए दिनों के आलावा लॉरेंस रोड प्रवास अविस्मरणीय है।

(लेखक कथाकार और पत्रकार हैं। उन्होंने लंबा वक्त अवधनारायण मुद्गल के साथ बिताया और उनके संपादक काल में में सहयोगी भी रहे।)

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TAGS: अवधनारायण मुद्गल, सारिका, मुंबई, वामा, पराग, चित्रा मुद्गल
OUTLOOK 16 April, 2015
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