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25 January 2019

नई-पुरानी पीढ़ी के साहित्यकारों ने ऐसे याद किया कृष्णा सोबती को

94 साल की उम्र में आज कृष्णा सोबती का दिल्ली में निधन हो गया। यूं देखा जाए तो वह बस तन से अस्वस्थ थीं। मन तो उनका अभी भी लेखन में रमा रहता था। उनके निधन से विभाजन का दर्द झेल रही पीढ़ी का एक और साहित्यकार कम हो गया। जिसने इस त्रासदी को सह कर नई पीढ़ी के लिए अपने लेखन से एक दस्तावेज भी तैयार किया। उनके निधन पर साहित्यकारों, रचनाकारों, आलोचकों से आउटलुक ने बात की। सभी के पास कृष्णा सोबती को लेकर अपनी यादों की पोटली है, जिसे उन्होंने बड़ी एहतियात से खोला और किस्से चल निकले।

अर्चना वर्मा, वरिष्ठ साहित्यकार, आलोचक, संपादक

मेरी यादों का सिलसिला चल पड़े तो रोकना मुश्किल हो जाएगा। उनसे बहुत लंबा साथ रहा। मैं विश्वविद्यालय कैंपस में रहती थीं और वो पास ही रिविएरा अपार्टमेंट में। लगभग रोज का ही मिलना और खूब बातचीत होती थी। साहित्यिक भी और दूसरी भी। मेरी पीढ़ी के लिए स्वतंत्र स्त्री की वह रोल मॉडल थीं। बिना डरे निर्भय होकर रहना और अपनी बात कहने वाली। यह मैंने उन्हीं से सीखा। उनसे ही मैंने सीखा कि किसी रचनाकार के साथ किताब का रिश्ता होता है, और इतना गहरा होता है। उनकी पुस्तक आई थी, जिंदगीनामा। उसके बाद अमृता प्रीतम की किताब आई हरदत्त का जिंदगीनामा। उन्होंने अमृता प्रीतम से बात की कि जिंदगीनामा चूंकि उनकी चर्चित पुस्तक का नाम है, इसलिए यह गलत है कि उन्होंने अपनी किताब में इस शब्द को इस्तेमाल किया। या तो वह शब्द वापस लें या कम से कम यह बताएं कि मेरे उपन्यास से प्रेरित हो कर नाम लिया। वे मानती थीं कि जिंदगीनामा पर एक तरह से उनका कॉपीराइट है। और उसकी व्यावसायिक सफलता से प्रेरित होकर अमृता ने यह शब्द लिया है। अमृता ने भी शायद उनकी बातों पर तवज्जो नहीं दी और मामला अदालत तक पहुंच गया। उस मुकदमें को लड़ने के लिए उन्होंने अपना फ्लैट तक बेच दिया। मेरी मित्र और इतिहासकार प्रभा दीक्षित जब उन्हें समझाने पहुंची तो उन्होंने कहा, ‘यह मेरे ऊपर मेरी किताब का कर्ज है।’ वह अपनी तरह की अद्भुत और अकेली महिला थीं। कोई अपनी रचना से या किताब से इतना प्रेम करे और इस हद तक लड़ जाए यह सच्चा रचनाकार ही कर सकता है।

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असगर वजाहत, वरिष्ठ साहित्यकार

उनके लेखन पर सब बोलते हैं, वे अप्रतिम रचनाकार थीं इसमें कोई दो मत नहीं। लेकिन वह निष्पक्ष, निर्भीक और संवेदनशील इंसान भी थीं। अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के लिए दृढ़। हिंदी में ऐसे कम लेखक हुए जो वैचारिक रूप से संवेदनशील हों। उन्होंने जो भी लिखा वह लैंडमार्क लिखा। उनकी सोच व्यापक थी। उन्हें बोल्ड स्त्री पात्रों की जनक के रूप में जाना जाता है लेकिन वह स्त्री विमर्श तक ही सीमित नहीं थीं। उनकी साहित्य, समाज और राजनीति के बीच समान पैठ थी। गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान तक इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। एक अच्छे लेखक की यही पहचान है कि वह प्रोपेगंडा साहित्य न करे। उनहोंने भारत-बपाक संबंधों पर सोच के साथ ऐसी राजनैतिक टिप्पणी की कि उसे पकड़ पाना मुश्किल है। उन्होंने दोनों देशों के संबंधों को न रोमांटिक नजर से देखा न दुश्मनी की नजर से। यही संतुलन उन्हें अलहदा बनाता है।

अखिलेश, वरिष्ठ साहित्यकार, तद्भव के संपादक

एक संपादक के रूप में, साहित्यकार के रूप में मैंने उन्हें हमेशा शानदार पाया। जब से मैंने पत्रिका का प्रकाशन किया तब से उनका स्नेह हमेशा मिला। कई बार तद्भव के पाठकों को उनकी रचनाएं या पुस्तक अंश पढ़ने का मौका मिला। यह उनका स्नेह ही था कि वे तद्भव के लिए रचनाएं देती थीं। कथा साहित्य की वह विरल प्रतिभा थीं। उन्होंने कभी मेरी रचनाओं पर राय जाहिर करने में भी कंजूसी नहीं बरती। जो बात उन्हें अलग बनाती थी वह उनकी वैचारिक प्रखरता थी। उनमें स्टैंड लेने का साहस था। इस उम्र में भी वह अपनी राजनैतिक राय जाहिर करती थीं। देश की साझी संस्कृति को नुकसान पहुंचाने वाली ताकतों के खिलाफ बोलती थीं। उनका यह भाषण तद्भव में प्रकाशित भी हुआ है। उनसे श्रेष्ठ इंसान के रूप में साहसी व्यक्ति के रूप में सीखने की जरूरत है।

बलवंत कौर, आलोचक

कृष्णा जी की सक्रियता ही उनकी ताकत थी। मैं उन्हें उसी रूप में याद करना चाहूंगी। विभाजन की पीढ़ी के रचनाकारों में वह भी थीं। उन्हीं की लेखनी से हमने बहुत कुछ जाना भी। मैंने उनका लंबा इंटरव्यू किया था। तब मैंने महसूस किया कि वह दोहरा व्यक्तित्व नहीं जीतीं। वह जैसा लिखती हैं वैसी ही हैं भी। कोई दुराव-छिपाव नहीं। उनके लेखन और व्यक्तित्व को अलग-अलग नहीं रखा जा सकता। उनकी भाषा इतनी आकर्षित करती है कि किसी भी कृति को अधूरा नहीं छोड़ा जा सकता। उन्होंने लेखन खास कर स्त्री लेखन के लिए रास्ता बनाया जिससे आने वाली पीढ़ी को आसानी हो। उनके पात्र चुप नहीं रहते। यह तभी हो सकता है जब आप उन पात्रों को जिए और यही वह करतीं भी थीं। दिलो दानिश मेरी पसंदीदा कृति है। मित्रो मरजानी तो खैर है ही माइलस्टोन।   

मनीषा कुलश्रेष्ठ, चर्चित कथाकार

मैं कृष्णा जी को उनकी शब्दों की मितव्ययिता के कारण याद करती हूं। वह कम शब्दों की जादूगर थीं। लंबे वाक्यों और सीमित शब्दों में वह मारक बात कहती थीं। उनके मुहावरे इतने यूनिक होते थे जिनका कोई जवाब नहीं। उन्होंने जैसे चाहा वैसा जीवन जीया। उन्होंने ही बताया कि जो जैसा रहना चाहता है उसके लिए उसे ही कोशिश करनी होगी। ए लड़की और दिलो दानिश उनकी ऐसी रचनाएं हैं जो अगर नहीं पढ़ीं तो लगता है, कुछ अधूरा रह गया। डार से बिछुड़ी, सूरजमुखी अंधेरे के में वह अलग परिदृश्य रचती हैं और शब्दों का खूबसूरत संसार उन पात्रों से सीधे जोड़ देती है।

राकेश बिहारी, आलोचक

उनके लेखन और व्यक्तित्व के बारे में जितना कहा जाए हमेशा कम ही रहेगा। हमेशा कहा जाता है कि वो बोल्ड लिखती थीं। पर मैं कहता हूं कि वह लीक से हटकर लिखती थीं। और जिसके लेखन में ताकत है उसे स्वीकार कर ही लिया जाता है। बल्कि करना ही पड़ता है। जब वह लिख रही थीं तो ऐसा माहौल नहीं था कहने वाले भूल जाते हैं कि वह लिखने की आड़ में कुछ भी नहीं लिख रही थीं, बल्कि ऐसा रच रही थीं जो कालजयी साबित हुआ। उनकी पात्र स्तरीय लेखन की मिसाल हैं, उन्हें सिर्फ बोल्ड नहीं कहा जा सकता। उनके लेखन से सीखा जा सकता है कि बदलाव के लिए लिखो हंगामें या सनसनी के लिए नहीं।

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TAGS: krishna sobti, archna varma, asghar wajahat, akhilesh, balwant kour, manisha kulshreshtha, rakesh bihari
OUTLOOK 25 January, 2019
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