‘अदम गोंडवी’ निराले-अलबेले, निर्भीक-निर्भय, बाहोश-बेखौफ़ शायर थे जिन्होंने सच्चे अर्थों में गरीबों की पीड़ा को महसूस करके, शायरी का विषय बनाकर स्वयंभू सर्वशक्तिमानों, पूंजीपतियों, सत्तालोलुप तानाशाहों और सवर्णों को तिलमिलाने पर विवश किया। अदम गोंडवी ताउम्र शाब्दिक वारों से ताकतवर सिंहासनों के फरमान ख़ारिज करते रहे।
22 अक्टूबर, 1947 को परसपुर, गोंडा के अट्टा ग्राम में माता मांडवी सिंह एवं पिता देवी कलि सिंह के घर ‘रामनाथ सिंह’ का जन्म हुआ, जो साहित्य जगत में ‘अदम गोंडवी’ नाम से विख्यात हुए। जनवादी शायर अदम गोंडवी ने शायरी में इश्क़-मोहब्बत, ख़्वाब-अरमान, चांद-तारे, धरती-आसमान के कुलांचे नहीं मिलाए, ना ग़ज़लों में रूमानियत भरी खुमारी के चोंचले पाले। उन्होंने अपनी रचनाओं में भय-भूख, गरीबी-लाचारी, अत्याचार-भ्रष्टाचार आदि कटु यथार्थ के नग्नतम स्वरुप का चित्रण किया। अमीरों की शान में कसीदे पढ़ने वाले दरबारी भांडों की शहद टपकाती फालतू चाटुकार तुकबंदियों की बजाए, अदम ने निर्भीकता से आमजन का दुःख-दर्द, शोषण-दमन लिखा और उच्चवर्गीय समाज में व्याप्त बुराइयों के ख़िलाफ अदबी जंग छेड़ी।
‘‘देखना-सुनना व सच कहना जिन्हें भाता नहीं, कुर्सियों पर फिर वही बापू के बंदर आ गए
कल तलक जो हाशिए पर भी ना आते थे नज़र, आजकल बाज़ार में उनके कलेंडर आ गए’’
अदम गोंडवी ने दुष्यंत कुमार की परंपरा आगे बढ़ाते हुए, भ्रष्ट राजनीति, लोकतांत्रिक पाखंड और गंदी व्यवस्थाओं पर करारा प्रहार करती ग़ज़लों को जनमानस की आवाज़ बनाया और शायरी को पारदर्शी बनाया। समाज में व्याप्त विसंगतियों से उपजी पीड़ा-वेदना, हताशा-निराशा, कुंठा-संत्रास को आक्रामक तेवरों का अमली जामा पहनाकर, कविता की शक्ल में पेश करने में उनको महारत हासिल थी।
‘‘जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में, गाँव तक वह रोशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी, राम सुधि की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए, हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में’’
अदम गोंडवी घुटनों तक मटमैली धोती, सिकुड़ा मटमैला कुरता और गले में लिपटे सफ़ेद गमछे वाली वेशभूषा धारण करते थे जिससे उनकी छवि ठेठ देहाती की बनी थी। महंगे कपड़े-जूते, बनावटी अंदाज़, झूठ-फरेब के मुलम्मे में लिपटे मुखौटे और दिखावे भरी महानगरीय चकाचौंध के विपरीत, अदम की विलक्षण देशी अदा थी सबसे जुदा।
‘‘खिले हैं फूल कटी छातियों की धरती पर, फिर मेरे गीत में मासूमियत कहां होगी
आप आयें तो कभी गाँव की चौपालों में, मैं रहूं या ना रहूं भूख मेजबां होगी’’
शायरों की शालीनता, नफासत, नर्मोनाज़ुक लहजे और सुसंस्कृत अंदाज़ के बजाए, अदम ठेठ गंवई दोटूक बेतकल्लुफी से मुखातिब होते थे। कथनी-करनी में अंतर ना रखने वाले अदम की शायरी आक्रामक, व्यंगात्मक, तड़प भरी रहती थी। उनकी ग़ज़ल, ‘ठोस धरती की सतह पर लौट आने’ का आग्रह करती थी।
‘‘ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में, मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में
अदीबों, ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ, मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद-तारों में’’
अदम की ग़ज़लों में सफेदपोश सत्ताशाहों के प्रति आक्रोश, गुस्सा और व्यंग का अद्भुत धारदार सम्मिश्रण परिलक्षित है, जिसको पढ़कर संवेदनशील कलेजे दहल जाएं।
‘‘काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत, इतना असर है खादी के उजले लिबास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत, यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में’’
अदम ने अवाम के सुख-दुःख, शोषण करनेवालों और शोषितों पर शायरी लिखी जिसको पढ़कर ‘वाह’ की बजाए ‘आह’ निकलती है और उनके अशआर लोगों के दिलों तक पहुंचकर समाज को आइना दिखाते हैं।
‘‘बेचता यूँ ही नहीं है आदमी ईमान को, भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को
सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए, गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को
शबनमी होंठों की गर्मी दे ना पाएगी सुकून, पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को’’
अदम गोंडवी की सबसे चर्चित, मशहूर कविता है, “आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको’’, ये कविता, दलित घर में अभिशाप स्वरुप पैदा हुयी ख़ूबसूरत लड़की के सवर्णों द्वारा बलात्कार करने, तदुपरांत होने वाली जांच-पड़ताल की खानापूर्ति की सत्य घटना पर आधारित है। अदम को बखूबी जानने के लिए, हृदय को बेतरह विचलित करती ये कविता ज़रूर पढ़नी चाहिए जिसमें उन्होंने दलितों के प्रति अधिकांश दिलों में पैठी घिनौनी मानसिकता का नग्न सत्य उजागर किया है।
“मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको” द्वारा अदम मानो ऐलान करते हैं कि तथाकथित उत्कृष्ट समाज द्वारा, निकृष्ट माने गए तबके के प्रति, उनके अमानवीय रवैये और घृणित मानसिकता से परिचय के लिए, पाठक दिल थाम के तैयार हो जाएं।
“जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर, मर गई फुलिया बिचारी एक कुएं में डूब कर”... गरीबी नामक बीमारी के जरासीम अमीरों की अट्टालिकाओं तक ना पहुंचें, बेशक गरीब कीड़ों की मानिंद मरते रहें।
“चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा, मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा”... अदम ने बलात्कार-पीड़िता को यही उपमा दी है।
“कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई, लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई, कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है”... भयावह हालातों में घर से निकलने वाली हर लड़की की भयाक्रांत मनोदशा का सटीक चित्रण है।
“क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में”... काश, कोई तरीका होता जिससे घात लगाए बैठे भेड़ियों और घटने वाली अनहोनी का, बलात्कार की शिकार पीड़िताओं को पूर्वाभास हो जाता।
“वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया”... किसी के कुत्सित, वासनात्मक उन्माद की ख़ातिर, मासूम पे कहर बरपा हुआ।
“और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज में”... क्या हुआ जो टूटा एक देह पर कहर, क्या हुआ जो कतर दिए निर्दोष के पर? गरीब की मुसीबत पर हंसना लाज़िमी है।
“दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर”... यही अय्याशी, सीनाज़ोरी कहलाती है, जो बाहुबलियों की थाती है।
“क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया, कल तलक जो पाँव के नीचे था, रुतबा पा गया”... अमीरों को यही अफसोस है कि गरीब उसकी बराबरी करने लगा है।
“सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो”... कोई इनसे पूछे कि ये किसके बच्चे हैं? दलित इनसे कई गुना अच्छे हैं।
“देखिए ना यह जो कृष्णा है चमारो के यहाँ, पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ’’... अफ़सोस कि झोंपड़ी में इतना हसीन लालो-गुहर? सिर्फ अमीरों का हक़ होता है ख़ूबसूरत औरत पर।
“हाथ ना पुट्ठे पे रखने देती है, मगरूर है”.. दलित होकर ऐसी हिमाक़त, इतनी हिम्मत, इतना गुरूर?
“फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ?”... ‘माले-मुफ़्त, दिले-बेरहम’, सर्वत्र पिताजी के राज के लहरा रहे हैं परचम।
“वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई, वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही”... भयभीत होकर चुप रहने की इसी आदत ने, विश्व की आधी आबादी की अनगिनत ज़िंदगियां उजाड़ी हैं।
“गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहेगी आपकी?” किसी की बेशक आबरू लुट जाए, पर स्वयंभू भगवानों की इज़्ज़त का फालूदा ना हो।
“हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया”... मर्दानगी की पहचान, असली मुसीबत की जड़ नाक के नीचे, ‘मूँछ’ रूपी एक और नाक का होना है - ‘हरिशंकर परसाई जी’ ने नाक की बाबत सही लिखा है।
“क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था”... यानि अपने घर के आगे, हर एक कुत्ता शेर था।
“सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में, एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में”... यानि दुम हिलाते आ गए, ठुल्ले अपनी औक़ात में।
“सुन पड़ा फिर ‘माल वो चोरी का तूने क्या किया’... होम करते हाथ जले, उलटी आंतें पड़ीं गले।
“ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा”... श्रेष्ठता के इसी दंभ ने देश को बर्बाद किया।
“इक सिपाही ने कहा, ‘साइकिल किधर को मोड़ दें, होश में आया नहीं मंगल, कहो तो छोड़ दें’... अंततः सिपाही की मानवता ने ज़ोर मारा, अपराधबोध जागा।
“ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है, ऐसे पाजी का ठिकाना, घर नहीं है, जेल है”... मतलब उस गुनाह की मिले सज़ा, जो नहीं किया।
‘‘उनकी उत्सुकता को, शहरी नग्नता के ज्वार को, सड़ रहे जनतंत्र के, मक्कार पैरोकार को.. धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को, प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को.. मैं निमंत्रण दे रहा हूँ - आएं मेरे गाँव में, तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में.. गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही, या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही.. हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए, बेचती है जिस्म कितनी कृष्णा रोटी के लिये’’...
कितना नग्न सत्य.. जनता ने विश्वास से बागडोर सौंपी, पर देश के कर्णधारों, समाज के ठेकेदारों और उनकी औलादों ने, पिताओं द्वारा लागू घर का कानून समझकर, सरेआम धज्जियाँ उड़ाकर जो दुर्दशा की है, तो मनमानी के फलस्वरूप अगली पीढ़ियों तक व्यवस्था जस-की-तस रहने वाली है। हालात बदतर होते जा रहे हैं और ग़रीबों की मरण में इजाफा हो रहा है। गोंडवी ने अथ-से-इति तक, भयावह सत्य का सटीक खाका खींचा है जो यत्र-तत्र-सर्वत्र, देखा-झेला-भोगा जा रहा है। सदियों से कामांध भेड़ियों की लोलुपता-लम्पटता-कामुकता की भेंट चढ़ती रही, विश्व की आधी आबादी के ऊपर अत्याचारों का सिलसिला थमने के आसार नज़र नहीं आ रहे।
सलाम है अदम गोंडवी की तन्क़ीदी नज़र को, जो इतने खरेपन से नग्न सत्यों को लेखन में अनावृत करके, संजोने हेतु धरोहर सौंप गये हैं। उनकी बेहतरीन ग़ज़लों के चुनिंदा अशआर, काफी हैं बताने को उनकी लेखनी की तीक्ष्ण धार….
बज़ाहिर प्यार की दुनिया में जो नाकाम होता है,
कोई रूसो, कोई हिटलर, कोई खय्याम होता है
चार दिन फुटपाथ के साये में रहकर देखिए
डूबना आसान है आँखों के सागर में जनाब
जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज़्मों में
क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे?
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आयी है
तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये
आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये
जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़
उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये
चाँद है ज़ेरे क़दम सूरज खिलौना हो गया
हाँ, मगर इस दौर में किरदार बौना हो गया
ढो रहा है आदमी काँधे पे ख़ुद अपनी सलीब
ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा जब बोझ ढोना हो गया
‘‘मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की, यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की
आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत, वो कहानी है महज प्रतिरोध की, संत्रास की
यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी, ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया, सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की
याद रखिए यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार, होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की’’ ---- भारत का स्वर्णिम अतीत है भूली-बिसरी बात, सदी सच में बुढ़ा गयी और यक्ष प्रश्न हैं अनगिनत। आमूलचूल परिवर्तित सड़ान्ध भरी व्यवस्था ने नई पीढ़ी को हताशा-निराशा से उपजा अवसाद खत्म करने के आसान उपाय, सेक्स की मायावी रंगीन दुनिया और सल्फास की गोलियों के रूप में परोसकर, पलायनवादी दृष्टिकोण वाली पीढ़ी तैयार की है।
‘‘हिन्दू या मुस्लिम के एहसासात को मत छेड़िये, अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है, दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले, ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये
हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ, मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये
छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़, दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये’’
---- हुक्मरानों ने, कुर्सी-सत्ता के मोह की अंधी स्वार्थपरता के चलते, गरीबी की जंग को हिन्दू-मुस्लिम जंग में बदल दिया। नफ़रत और अलगाव की गहरे दफ़्न की जाने वाली भावना उभाड़कर, दोनों कौमों के कमअक़्लों को आपस में भिड़ाया जाता है। ‘हिटलर से लेकर बाबर’ तक, सुपुर्दे-ख़ाक होकर मनों मिट्टी के नीचे दफ़न हैं, पर उनकी ग़लतियों के नाम पर, सियासतदानों ने हमेशा रोटियाँ सेंकीं।
‘‘वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं, वे अभागे आस्था-विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहां शम्बूक-वध की आड़ में, उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें
कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास, त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्या करें
बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है, ठूंठ में भी सेक्स का एहसास लेकर क्या करें
गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे, पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें’’ ---- सच्चाई है कि वेदों में जिनकी उपस्थिति हाशिये पर भी दर्ज नहीं, वही सर्वाधिक आस्थावान, सहज विश्वासी होते हैं। जहां पेट की आग बुझाने की ख़ातिर, दो कौर अन्न के लाले हों, वहां भला रोमांस सूझेगा? मधुमास लौकिक हो या पारलौकिक, भूखे की बला से। ‘‘भूखे भजन ना होय गोपाला’’, तो ‘‘भूखे पेट, इश्क़ में, कैसे हो कोई मतवाला?’’
अदम गोंडवी कबीर की परंपरा के कवि थे, जिन्होंने किसान ठाकुर होने के नाते, आवश्यकतानुसार ही कागज़-कलम छुआ। अदम मंच पर बगावती तेवरों के साथ आक्रोश और गहरे व्यंग से सराबोर अशआर पढ़ते थे तो लगता था कि उनका वश चले तो समूची व्यवस्था बदल डालें। उनकी शायरी रेशमी नहीं वरन टाट सी खुरदुरी थी जो गरीबों के लिए राहत का सबब थी। अदम के काव्य संग्रह हैं - ‘धरती की सतह पर’ और ‘समय से मुठभेड़’ और कई प्रतिनिधि रचनाएं हैं। 1998 में मध्यप्रदेश सरकार ने उन्हें ‘दुष्यंत कुमार पुरस्कार’ से सम्मानित किया। 2001 में शहीद शोभा संस्थान ने ‘माटी रत्न’ सम्मान से नवाज़ा। सामाजिक आलोचना के प्रखर-मुखर, उग्र स्वर, अदम गोंडवी का 18 दिसंबर, 2011 को लखनऊ में निधन हुआ।
(लेखिका कला, साहित्य और सिनेमा की समीक्षिका हैं। यहां व्यक्त विचार निजी हैं।)