संभव है आने वाले सालों में किताबों का सालाना जलसा कुछ बदल जाए। दिल्ली के प्रगति मैदान में जुटने वाले किताबों के दीवाने बस दोस्तों या लेखकों से मिलने के लिए ही यहां पहुंचे। क्योंकि किताबें तो अब खुद पाठकों के घर, दफ्तर, ट्रेन, बस, एयरोप्लेन तक पहुंच रही हैं। यह सच है कि पाठक जहां चाहें वहां पुस्तक उन तक पहुंच रही हैं। किताबें खरीदने के लिए न गलियों में घूमना है न दुकान-दर-दुकान। वहां पहुंच कर अपनी मनपसंद किताब न मिलने की निराशा भी नहीं झेलना है। पाठक के लिए मात्र एक किताब भी छप जाएगी और उस तक पहुंच जाएगी। आसानी से।
प्रकाशन की दुनिया बदल रही है। धीरे-धीरे नहीं तेजी से। स्मार्ट फोन, टैबलेट ने इस दुनिया को बदलने के सारे साधन मुहैया कराए हैं। परंपरागत प्रकाशकों से इतर प्रकाशकों की नई पीढ़ी ने प्रकाशन जगत की तस्वीर बदल दी है। सबसे बड़ी बात है कि न इनके परिवार में कोई प्रकाशक था न इस युवा ब्रिगेड के पास बड़ी धनराशि थी। इनके जेब में यदि कुछ था तो वह है हौसला। इसी हौसले के बलबूते नए काम को करने की खातिर ये लोग चल पड़े। इन सभी प्रकाशकों की तरक्की और लोगों के बीच पहचान बनाने में इंटरनेट ने महती भूमिका निभाई। इस पीढ़ी ने प्रकाशन की दुनिया में क्रांति कर एक तरह से परंपरागत प्रकाशन उद्योग के आगे बड़ी लकीर खींच दी है।
आईआईटी कानुपर से पढ़े जया झा और अभय अग्रवाल ने प्रिटिंग उद्योग को कितनी बारीकी से समझा यह इसी से समझा जा सकता है कि उन्होंने प्रकाशकों के इस सूत्र वाक्य को तोड़ दिया कि 'कम से कम किताब की फलां संख्या के बिना किताब नहीं छप सकती।’ जया और अभय ने मिल कर पोथी डॉट कॉम शुरू किया जो अपने तरह का अनोखा ऑनलाइन प्रकाशन है। यदि आप पोथी डॉट कॉम से कोई किताब चाहते हैं तो यहां कभी कोई भी किताब 'आउट ऑफ स्टॉक’ नहीं होगी। ग्राहक किसी किताब की एक कॉपी चाहता है तो बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के सिर्फ एक किताब आपके लिए प्रकाशित की जाएगी और ग्राहक तक भेज दी जाएगी। पोथी पर हर विषय की किताबें हैं। कहानी-कविता से लेकर ज्ञान बढ़ाने वाली तक। जया कहती हैं, 'पिछले डेढ़ दशक में प्रिंटिग की तकनीक बहुत बदली है। प्लेट की जगह डेस्कटॉप प्रिंटिंग तकनीक आ गई है। डिजिटल प्रिंटिंग ने बहुत कुछ बदला। तब हमने सोचा क्यों न यह प्रयोग कर देखा जाए और हम इसमें सफल भी रहे।’
नए जमाने में अब हर बात 'ई’ से जुड़ गई है। इस इंटरनेट ने जब सभी क्षेत्रों को खुद में समेट लिया है तब साहित्य जगत इससे कैसे अछूता रहता। यह अलग बात है कि हिंदी साहित्य जगत को इंटरनेट का सहारा मिलने से इसके फलक का भी विस्तार हो गया है। पिछले कुछ सालों में बहुत से नए प्रकाशक आए जिन्होंने इंटनेट को अपनी ताकत बनाया और देश के उन लोगों तक भी हिंदी किताबों को पहुंचाने का जिम्मा लिया जो हिंदी की किताबें पढऩा तो चाहते थे पर क्या पढ़ें और किताबें उन्हें कैसे मिले के प्रश्न से जूझते रहते थे। इन सब के बीच हिंद युग्म प्रकाशन बड़ा नाम बन कर उभरा। हिंद युग्म ने नए तरह के लेखक जोड़े। जाहिर सी बात है इसके लिए नए पाठक भी अपने आप जुड़ते चले गए। हिंद युग्म चलाने वाले शैलेश भारतवासी के पास परंपरागत लेखक नहीं थे। लेकिन उन्होंने लेखकों की नई जमात पर भरोसा किया और इसका फल भी उन्हें मिला। अमेजॉन, क्रिलपकार्ट पर हिंदी की 100 लोकप्रिय किताबों में 7 किताबें हिंद युग्म की भी हैं। शैलेश कहते हैं, 'हिंद युग्म की मंशा बस यही है कि पाठकों की रुचि को ध्यान में रख कर साहित्यिक किताबें प्रकाशित करें और नए-नए पाठक जोड़े। हम उन लोगों को भी पाठक बनाना चाहते हैं जो हिंदी पढ़-समझ सकते हैं पर हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते।’
खरीदारी में ऑनलाइन बाजार ने कपड़े, जूते, बैग, घर के सामान के बाजार को बिलकुल बदल दिया है। ऑनलाइन बाजार दिन ब दिन समृद्ध हो रहा है। हाल ही में मिंत्रा स्टोर ने घोषणा की है कि वह अपने सभी स्टोर बंद कर अब सिर्फ ऑनलाइन ही अपना सामान बेचेगा। इसी तरह फिल्मकार्ट भी आनेवाले कुछ सालों में सिर्फ मोबाइल एप्लीकेशन के जरिये ही कारोबार करेगा। स्मार्ट फोन पर खरीदारी के कई एप्लीकेशन हैं, जो ग्राहकों की सुविधा के लिए हैं। इन ऐप के जरिये सिर्फ अपनी मनपसंद टीशर्ट या चप्पल ही नहीं खरीदी जा सकती बल्कि ऐप की मदद से मनपसंद किताबें भी खरीदी जा सकती हैं और खबरें भी पढ़ी जा सकती हैं। किसी भी मोबाइल एप्लीकेशन से खरीदारी के लिए जरूरी होता है कि खरीदार के पास क्रेडिट या डेबिट कार्ड हो। किताबों से यूं भी लोगों को प्रेम नहीं होता ऐसा माना जाता है। ऐसे में कार्ड की कमी के चलते कई लोग कम से कम किताबों के लिए तो जद्दोजहद नहीं करते। वीरेंद्र गुप्ता ने इस पर खूब सोच विचार किया और किताबों और खबरों के लिए न्यूजहंट नाम से एक मोबाइल एप्लीकेशन बनाने के साथ-साथ पेमेंट गेटवे (जिसके जरिये ग्राहक या उपभोक्ता पैसा चुकाता है) भी बना दिया। इस मोबाइल ऐप की खासियत यह है कि इस पर हिंदी के अलावा कई क्षेत्रीय भाषा की किताबें और अखबार हैं जो न्यूनतम मूल्य पर उपलब्ध है। और पैसे? उसके लिए चिंता की जरूरत नहीं। एयरटेल, एयरसेल, वोडाफोन और आइडिया का मोबाइल कनेक्शन है तो पैसा मोबाइल बेलेंस से कट जाएगा। यदि प्रीपेड है तो जितनी राशि है उससे पैसे कट जाएंगे और यदि पोस्टपेड है तो यह रकम बिल में जुड़ कर आ जाएगी। वीरेंद्र कहते हैं, 'स्मार्टफोन की खपत में बढ़ोतरी के साथ, स्थानीय भाषाओं में हल्की-फुल्की सामग्री की मांग भी बढ़ी है। हम एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाने पर काम कर रहे हैं जहां पाठकों को उनकी मातृभाषा में सामग्री दी जा सके। वह भी उनकी हथेली में कैद उस फोन पर जो उनकी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन गया है।’ न्यूजहंट को मोबाइल ऐप डाउनलोड करना मुफ्त है। इस पर देश भर के अखबार और किताबें हैं। हर महीने करीब साढ़े आठ करोड़ लोग इसे डाउनलोड करते हैं और 2 अरब से ज्यादा पृष्ठ पढ़े जाते हैं। इस पर चालीस हजार से ज्यादा ई-बुक्स हैं जो 12 भारतीय भाषाओं में उपलब्ध हैं।
कुछ कर गुजरने वाली युवा पीढ़ी की इस जमात ने तकनीक का सहारा लेकर साहित्य के लिए काम करने की कोशिश की जो धीरे-धीरे ही सही रंग ला रही है। इंजीनियरों की ही जमात में से एक नीलाभ श्रीवास्तव साहित्य को 'स्मार्ट’ बनाने के लिए नॉटनल की स्थापना की जहां कई बड़ी पत्रिकाएं ऑनलाइन उपलब्ध है। नया ज्ञानोदय, पाखी, बनास, परिकथा, समयांतर, हंस, वर्तमान साहित्य जैसी पत्रिकाएं और कई कहानी संग्रह भारी छूट के साथ यहां उपलब्ध हैं। नीलाभ कहते हैं, 'कुछ नया करने की चाह में मैंने अपनी पत्नी गरिमा सिन्हा के साथ मिल कर यह मंच तैयार किया। मैंने कनाडा, अमेरिका, यूरोप सहित कई देशों में काम किया। मगर मैं कुछ अलग करना चाहता था और मुझे लगता है मैं यह कर लिया है।’ इस मंच पर लेखक अपनी पांडुलिपि डाल सकता है। इसका कोई खर्च नहीं है। यहां पर लेखक अपनी किताब या किसी रचना का मूल्य खुद तय करता है। जो भी मूल्य तय होता है नॉटनल उस पर 60 प्रतिशत की रॉयल्टी देता है। नई पीढ़ी ने साहित्य को केवल पवित्र या रचनात्मकता से बढ़ कर माना और इसी वजह से अशोक कुमार पांडेय, अमन दलाल और संजय शेफर्ड जैसे नाम उभरे। इन लोगों ने साहित्य तो गति देने के लिए नई तकनीक के साथ नई सामग्री पर भी ध्यान दिया। आखिर क्या छप रहा है और क्या पढ़ा जा रहा है यह प्रश्न हमेशा से ही साहित्यिक वातावरण में तैरता रहता है। दखल प्रकाशन के अशोक कुमार पांडेय कहते हैं, 'नब्बे के आखिरी दशक में प्रकाशकों ने कविता संग्रह छापना बंद दिए थे और पैसे देकर कुछ भी छपवाना बुरा माना जाता था। फिर धीरे-धीरे बिक्री के आंकड़ों और लागत के अंतर ने एक तरह से आतंक ही पैदा कर दिया। पुस्तकें छपने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता था और तब देवदूत की तरह इंटरनेट का अवतरण हुआ। ब्लॉग की वजह से अलग ढंग के लेखक उभर कर आए तो उन्हीं के बूते नए प्रकाशक भी उभरे।’ अशोक सबसे ज्यादा शुक्रिया सोशल नेटवर्किंग साइट्स का करते हैं जब फेसबुक पर वह किताबों का ऑर्डर लेते थे और एक झोले में किताबें रख कर विश्व पुस्तक मेले पहुंच जाते थे। उनका कोई स्टॉल नहीं था। प्रगति मैदान के बगीचे में बैठ कर ही उन्होंने लगभग 250 किताबें उस दौरान बेच दी थीं। वह भी अपनी किताबें ऑनलाइन बेचते हैं और इसका बड़ा फायदा उन्हें यह नजर आता है कि सूदूर क्षेत्रों में इन वेबसाइटों के माध्यम से किताबें पहुंच जाती हैं।
इन प्रयोगधर्मी प्रकाशकों की वजह से ही प्रकाशन की दुनिया बदल गई है। छापने-बेचने के साथ-साथ कंटेट पर भी प्रयोग ने उन्हें उस मुकाम तक पहुंचाया जहां होना किसी की भी इच्छा हो सकता है। अमन दलाल यूं तो पेशे से इंजीनियर थे, मगर पढऩे-लिखने के शौक ने उन्हें बुकस्टेयर पब्लिकेशन का संस्थापक बना दिया। उन्होंने उर्दू पर खास ध्यान दिया। देवनागरी लिपि में अमन ने अमीर इमाम का गजल संग्रह प्रकाशित किया और अगली किताब वह पाकिस्तान के प्रसिद्ध उर्दू लेखक अली अकबर की नौलखी कोठी छाप रहे हैं। अमन कहते हैं, 'हम छह युवा रचनाकारों के छोटे-छोटे कहानी संग्रह छाप रहे हैं। मैं बस इतना चाहता हूं कि साहित्य सिर्फ गंभीर माध्यम बन कर न रह जाए। यह आसानी से सब तक पहुंचे।’