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होली के मारक महीने में राष्ट्रवाद

कपार पर गुलाल की बिंदी लगाने को ही होली मान लेने वालों को राजद्रोही मानना चाहिए। होली तो ऐसी होनी चाहिए कि अगल-बगल के चार घरों से लोग निकल कर देखें और कहें वाह क्या होली है
होली के मारक महीने में राष्ट्रवाद

 

भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए की कसम इस बार यह धारा उन सालियों पर भी लगाई जानी चाहिए जो अपने जीजा के साल भर के लंबे इंतजार के बाद ऐन होली के दिन मुंह बिचका कर कहती हैं, 'सॉरी जीजा जी, स्किन ट्रीटमेंट ले रही हूं। ये कलर्स बहुत हार्म करते हैं।’ अरे हार्म करेंगी जीजा की आहें जिनसे गालों पर छितराई 'ग्रुप ऑफ फुंसीज’ कभी ठीक नहीं होंगी। यह भी कोई बात हुई भला। यह तो अच्छा है कि अब हर अबाल-वृद्ध भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए से वैसे ही परिचित हो गया है जैसे राहुल राजनीति से। उनने भी ऐन संसद में खड़े हो कर बता दिया कि वह केवल पोगो चैनल नहीं देखते, कलर्स भी देखते हैं जिसमें फेयर एंड लवली की एड आती है। खैर मुद्दे की बात तो यह है कि अभिव्यक्ति की आजादी के तहत एक खास सभा में यह प्रस्ताव पारित कराया जा रहा है कि होली के दिन नखरे दिखाने वालों को सेडिशन चार्ज लगा कर जेल में ठूंस दो। और उन लोगों को तब तक मत छोड़ो जब तक कि रंगपंचमी की रंगारंग गेर में सराबोर होने के लिए वे लोग निजी मुचलका न दे दें।

 

एक तो मार्च का महीना वैसे भी मारक होता है। यहां फरवरी के वेलेंटाइन का हैंग ओवर उतरता नहीं कि वित्त मंत्री साहब चमकते ब्रीफकेस में राजकोषीय घाटे, सकल घरेलू उत्पाद, मौद्रिक नीति, वित्तीय घाटे जैसे डरावने शब्द लेकर पता नहीं क्या आंय-बांय-शांय बोल देते हैं। दफ्तर का अकाउंटेंट टेंटुआ दबा कर टैक्स काटने को ऐसे तुला रहता है जैसे बकरीद आ गई हो। बाबा की एक बूटी ही है जो ऐसे वक्त में बचा सकती है। लेकिन फगुनिया की बयार न बहे, फागुन की बहार न हो तो बूटी को 'जस्टिफाई’ कैसे किया जाए। जब तक रंग की दो-चार बाल्टी ऊपर न पड़ जाएं तब तक बूटी का मजा ही क्या।

 

यूं कपार पर टुचुक-टुचुक गुलाल की बिंदी लगाने को ही होली मान लेने वालों पर राजद्रोह इसलिए भी होना चाहिए कि मुफ्त पानी में कार, बरामदे और सड़क धोने वालों को बस उसी दिन 'ड्राय होली’ की याद आती है। वैसे ही उस दिन दूसरे तरह की 'ड्रायनेस’ से शहर जूझ रहा होता है और ये चले हैं बड़े ड्राय होली का तमाशा खड़ा करने वाले। होली तो बहाने का त्योहार है। यानी किसी बहाने से रूपवती के गाल पर गुलाल मल देना, बूढ़े भिक्षु की बोतल से रसधारा बहा देना। भावनाओं के ज्वार में बह कर इश्क कर बैठना। इसमें पानी जैसी तुच्छ वस्तु की बचत की तो बात ही नहीं आनी चाहिए। इस बहाने से जो भी होली खेलने से मना करे मेरे हिसाब से माननीय उच्च न्यायालय को इस मसले पर स्वत: ही संज्ञान लेना चाहिए और उन लोगों, समूहों, शहरों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए लगा देनी चाहिए।

 

अब यह भी कोई बात हुई भला, साल भर इंतजार करो कि पड़ोसन को दबोचना है, कॉलेज में जिसे साल भर से ताड़ रहे थे फागुन के बहाने उसे लपेटना है, सलहज का आंचल खींचना है, बीवी को घसीटना है वगैरह...वगैरह। ऐसे मूड में कोई कह दे, 'जी, होली खेलना तो ओल्ड फैशन है’ तो मन नहीं करेगा कि भारतीय संस्कृति की आन-बान-शान के खिलाफ बोलने वाले इस अधर्मी, राष्ट्रद्रोही को फांसी पर चढ़ा दिया जाए।

 

प्राचीन काल से होली का त्योहार मनाया जाता है। होली भारतीय संस्कृति का सबसे सहिष्णु त्योहार है। इसी त्योहार से नारी जाति सहनशीलता सीखती है। कैसे जीजा, पड़ोसी, कॉलेज के गुंडे-शोहदों से रंग लगवाकर चुपचाप निगाहें नीची रखनी हैं, कैसे छेड़छाड़ का विरोध नहीं करना है। दूसरी बात यह खर्चीला भी नहीं है, पुराने-धुराने कपड़े पहनो, दस रुपल्ली की गुलाल की पुडिय़ा जेब में और पच्चीस का पव्वा पेट में डालो और निकल पड़ो। हींग लगे न फिटकरी (वैसे इसमें हींग-फिटकरी कभी नहीं लगता) और रंग तो बाबू रंग है, वह तो चोखा ही आएगा। अब यह भारतीय संस्कृति को कुछ नहीं समझने वाली जनता को लगता है कि यह तो फालतू और गरीबों का त्योहार है। मस्ती करना है तो पब में करो, डिस्को में करो, होली पर क्या मस्ती। अब अगर हमें होली पर ही गदर मचाने का मन है तो भला कौन रोक लेगा। भारतीय संस्कृति के रक्षकों पर यह हमला राष्ट्र बर्दाश्त नहीं करेगा। सो यह जरूरी ही है कि जो भी इस दिन को भूलने की कोशिश करे उसकी ईंट से ईंट बजा दी जाए। आखिर इस त्योहार का रंग लाल है तो लाल रंग चाहे गुलाल से या मां भारती के भक्त किसी का माथा फोड़ कर लाएं। जय राष्ट्र, जय होली!

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