वाकई! नई नस्ल, युवा पीढ़ी कविताई, शायराना हुई जा रही है!! हैरत है भी और नहीं भी। हैरत इसलिए कि उदारीकरण और बाजारीकरण के दौर से ही सिर्फ और सिर्फ करियरिस्ट बनने और येन-केन-प्रकारेण सुख-सुविधा तथा विलासिता के साधनों को जुटाने की सीख इस कदर दी गई कि युवा हर सामाजिक सरोकार से विरत होकर बस 'आकांक्षी' मिलेनियल या कहें अब 'जेन जेड' पीढ़ी बन गए। उनके लिए इश्क भी 'लव इन मेट्रो' जैसी फटाफट हासिल करने की चीज हो गई। हैरत इसलिए नहीं कि युवा मन भावनाओं में डोलता है और अभिव्यक्ति के लफ्ज तलाशना उसकी फितरत होती है। इसके अक्स हमेशा कई विद्रोही और रूमानी तेवरों में हर पीढ़ी में दिखता है, अलबत्ता कथित 'आकांक्षी' पीढ़ी में कुछ हद तक नदारद दिखा है। लेकिन सोशल मीडिया में पिछले कुछ वर्षों से शायरी और कविताओं के जरिए बात कहने का चलन लगातार जोर पकड़ता जा रहा है। यहां तक कि शायरी या कई बार तुकबंदी में अपनी बात कहने का यह चस्का नेताओं तक में भी कुछ ज्यादा देखने को मिलने लगा है। इसके नजारे हाल में बीते संसद के बजट सत्र में कई-कई बार दिखे। तो, क्या वक्त फिर करवट बदल रहा है? क्या आकांक्षी प्रवृत्तियां अवसरों के टोटा के वक्त में फिर रूमानी और बगावती तेवरों के लिए जगह खाली कर रही हैं? क्या खुलकर बोलने पर तरह-तरह के पहरों का खौफ शायरी और कविता में सांकेतिक अभिव्यक्ति की ओर ले जा रहा है?
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
मजरूह सुल्तानपुरी
वजह जो भी हो, इस दौर में सोशल मीडिया पर शायरी फिजुलखर्ची की हद तक इफरात में दिखने लगी है। युवा पीढ़ी की जैसी दिलचस्पी आज शायरी, कविताओं में है, वैसी बीते दशकों में शायद ही कभी दिखी थी। युवाओं के सोशल मीडिया अकाउंट्स से लेकर ह्वाट्सऐप स्टेटस और ग्रुप्स में शायरी किसी पहाड़ी नदी की अविरल प्रवाह-सी बह रही है। युवाओं के अपने पसंदीदा शायर हैं। दर्शन से लेकर प्रेम और आध्यात्म से लेकर प्रतिरोध और क्रांति तक शायरों का दायरा फैला हुआ है। हर भाव, हर पृष्ठभूमि के शायर युवाओं के दिल में खास स्थान रखते हैं। मशहूर अदबी शायर शीन काफ़ निज़ाम कहते हैं, “बहुत मुमकिन है कि उर्दू शायरी में, आज के युवाओं को अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति मिलती हो।”
पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया पर लोग अपने पसंदीदा शायरों के शेर साझा करते हैं। यूट्यूब पर अपलोड किए प्रिय शायरों के वीडियो भी सोशल मीडिया पर खूब शेयर किए जाते हैं। इसी के साथ 'जश्न ए रेख्ता' और 'जश्न ए अदब' जैसे नियमित आयोजनों से भी बहुत बड़ी संख्या में युवाओं तक शायरी पहुंची है। आज युवाओं में वसीम बरेलवी, बशीर बद्र, मजरुह सुल्तानपुरी, खुमार बाराबंकवी, दुष्यंत कुमार, अहमद फ़राज़, फैज अहमद फैज, जौन एलिया, परवीन शाकिर, बशीर बद्र, अदम गोंडवी खासे लोकप्रिय हैं। हिंदी के कवियों नागार्जुन, रघुवीर सहाय, मंगलेश डबराल वगैरह भी खूब लोकप्रिय हैं। बेशक, इन सब की पंक्तियों, शेर वगैरह को उद्घृत करने वाले युवाओं के मेयार अलग-अलग हो सकती है।
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
जिगर मुरादाबादी
वजह यह भी है कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के कारण युवा अब किसी मंच या किताब, पत्रिका पर निर्भर नहीं रह गया है। अच्छी शायरी सुनने और पढ़ने के लिए बस एक क्लिक का फासला है। इसी के साथ शायरों का इंतजार भी खत्म हो गया है। पहले लोग प्रकाशित होने और लोगों की राय के लिए महीनों इंतजार किया करते थे। अब यहां लिखा, वहां पोस्ट किया और तुरंत लोगों की प्रतिक्रियाएं आने लगीं। सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि सब कुछ मुफ्त में उपलब्ध है। आपको शायरी पढ़ने और सुनने के लिए कोई पैसे नहीं खर्च करने पड़ते।
युवा कवि मानस भारद्वाज का कहना है कि सोशल मीडिया के आगमन के साथ ही जौन एलिया, परवीन शाकिर, पाश, शिव कुमार बटालवी रॉक स्टार की तरह फिर से उभरे हैं। हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि वे सोशल मीडिया से पहले प्रसिद्ध नहीं थे। इतना जरूर है कि वे घर-घर में इस तरह दाखिल नहीं हुए थे। युवाओं के बीच जौन एलिया, शिव कुमार बटालवी, पाश, दुष्यंत कुमार जैसे क्रांतिकारी शायरों की लोकप्रियता का मूल कारण यह हो सकता है कि उनमें व्यवस्था से असंतोष और मौजूदा संकटों की अभिव्यक्ति नजर आती हो। हाल के दौर में अभिव्यक्ति पर जैसे-जैसे पहरे बढ़ते जा रहे हैं, वैसे-वैसे शेर-ओ-शायरी, कविताएं उद्घृत करने की फितरत बढ़ती गई है।
ब्रांड एडवांटेज रूबरू के माध्यम से मुशायरा आयोजित करने वाले,पटना लिटरेचर फेस्टिवल के फाउंडर और सेक्रेटरी खुर्शीद अहमद युवाओं में उर्दू शायरी के प्रति बढ़ते लगाव को देखकर उत्साहित हैं। उनका कहना है कि बीते वर्षों में युवाओं का रुझान साहित्यिक आयोजनों में बढ़ा है। अब युवा साहित्यिक सम्मेलनों में आना चाहते हैं, सुनना और सीखना चाहते हैं। युवाओं में ललक पैदा हुई है हिंदी और उर्दू भाषा के बड़े साहित्यकारों से मिलने की और उनसे बात करने की। यकीनन यह बहुत सकारात्मक स्थिति है।
खुर्शीद अहमद कहते हैं कि कोरोना महामारी के दौरान जितने भी शायर थे, सभी बहुत खराब स्थिति से गुजर रहे थे। शायरों की कमाई का जरिया मुशायरे और कवि सम्मेलन होते थे, जो कोरोना महामारी और लॉकडाउन के कारण बंद हो गए थे। ऐसी स्थिति में उन्हें सहयोग देने का काम सोशल मीडिया ने ही किया। देश और दुनिया में फेसबुक और इंस्टाग्राम के जरिए ऑनलाइन अदबी गोष्ठियां आयोजित की गईं। इन गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों से जो मुआवजा मिला, उसी से शायरों ने कोविड का समय गुजारा है। यह दर्शाता है कि सोशल मीडिया का मंच उर्दू शायरी और शायरों के लिए कितना अहम साबित हुआ है।
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
मिर्ज़ा ग़ालिब
एफएम रेडियो से जुड़े आलोक पांडेय का कहना है कि सोशल मीडिया ने न केवल शायरों को लोकप्रियता दी है, बल्कि उनकी किताबों का भी अच्छा प्रचार-प्रसार हुआ है। सोशल मीडिया क्रांति के बाद चीजें बदली हैं। उर्दू शायरी का विस्तार हुआ है। आज उर्दू का मुशायरा इंजीनियरिंग कॉलेज से लेकर मेडिकल और मैनेजमेंट कॉलेज में हो रहा है। एम्स में आयोजित होने वाले मुशायरे में देश के संभावनाशील युवा उर्दू शायरी सुन रहे हैं। आज इतनी खूबसूरत स्थिति है कि जिन संजीदा शायरों ने कवि सम्मेलन और मुशायरों में जाना छोड़ दिया था, वे आज आइआइटी, आइआइएम, एम्स और अन्य बड़े संस्थानों के मुशायरों में शौक से शरीक होते हैं और खूब पसंद किए जाते हैं।
शीन काफ़ निज़ाम कहते हैं, “उर्दू शायरी तो हर दौर के युवा वर्ग में आकर्षण का केंद्र रही है। अस्वीकृति और स्वीकृति, परिवर्तन और प्रेम युवा वर्ग की पहचान भी है और परंपरा भी।” हालांकि शिकायतें ये भी हैं, और शायद वाजिब हैं कि शायरी की इस लोकप्रियता में उसका स्तर भी बहुत हद तक लोकलुभावन जैसा होता गया है। कई बार तुकबंदी जैसा एहसास होने लगता है। अदबी शायरी ज्यादा जुबान पर नहीं चढ़ती है। दाग देहलवी, मीर तकी मीर, मिर्जा गालिब जैसे शायरों से युवाओं का ज्यादा ताल्लुक नहीं दिखता है।
यह भी सही है कि तकरीबन सत्तर–अस्सी वर्ष पहले शायरी का दायरा कुछ सीमित था। अवसर बेहद कम थे। मंच के नाम पर अखबार, पत्रिका, किताबें और गिने-चुने कवि सम्मेलन, मुशायरे थे। देशभर से कुछ चुनिंदा शायर होते थे, जो अखबारों, पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करते थे। हिंदुस्तानी फिल्में भी एक मंच हुआ करती थी।
उर्दू शायरी की लोकप्रियता देश की आजादी और विभाजन दौर में भी खूब रही। आजादी के आंदोलन के समय भगत सिंह से लेकर रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्ला खां शायरी से ही क्रांति की लौ जला रहे थे। बंटवारे के बाद जब पाकिस्तान बना तो वहां शायर अल्लामा इक़बाल और फैज अहमद फैज खूब लोकप्रिय रहे। रेडियो का विस्तार हो रहा था। आजादी के समय तक भारत के रेडियो कार्यक्रमों में शायरी जोर पकड़ चुकी थी। मजाज, जिगर मुरादाबादी,साहिर लुधियानवी, जोश मलीहाबादी जैसे शायर देशभर में मशहूर हो रहे थे। मगर देश के विभाजन से पैदा हुई सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण का शायरी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। कट्टरपंथी सोच के लोग उर्दू शायरी को मुस्लिम समाज से जोड़ने लगे। उन्होंने शायरी का इस्लामीकरण कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि हिंदी कविता हिंदुओं की और उर्दू शायरी मुस्लिमों की घोषित की जानी लगी। मगर जो जुबान मुहब्बत को बयान करती हो, वह लाख नफरती कोशिशों के बावजूद हर धर्म, मत, पंथ के लोग शायरी से इश्क करते रहे।
आउटलुक से बातचीत में मशहूर फिल्म गीतकार और शायर जावेद अख्तर कहते हैं, “उर्दू भाषा आम इंसान की जुबान है। यह कभी खास वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। बहादुर शाह जफर के समय में ये दरबार तक पहुंची। तब तक ये बाजार की जुबान थी। इस देश का मध्यमवर्गीय परिवार उर्दू भाषा में अपने सुख और दुख साझा करता रहा है। उर्दू भाषा और हिंदी भाषा एक दूसरे में रची बसी हैं। इन दोनों की जैसी जुबानें तो दुनिया में हैं नहीं।”
अस्सी और नब्बे के दशक तक एशियाई महाद्वीप में शायरी का माहौल चरम पर था। लोग गजलों के दीवाने थे। छोटे शहरों और कस्बों में त्योहारों के मौके पर कवि सम्मेलन और मुशायरे का आयोजन किया जाता था। इन आयोजनों में आम आदमी भीड़ लगाकर पहुंचता था। वसीम बरेलवी, बशीर बद्र, मजरूह सुल्तानपुरी, खुमार बाराबंकवी मुशायरों की जान बन चुके थे। जगजीत सिंह, मेहंदी हसन, गुलाम अली जैसे गायक उर्दू शायरी को दुनियाभर में मशहूर कर चुके थे। अहमद फ़राज़, फैज अहमद फैज, जॉन एलिया, परवीन शाकिर, बशीर बद्र, अदम गोंडवी अलग तरह की शायरी से मकबूल हो रहे थे।
लेकिन नब्बे के दशक में जब भारत में वैश्वीकरण और उदारीकरण ने कदम रखा तो अंग्रेजी का बोलबाला बढ़ गया। इसका हिंदी, उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं को बड़ा नुक्सान हुआ। हिंदी, उर्दू की साहित्यिक किताबें, पत्रिकाएं सिमटने लगीं। शायरी, गोष्ठियां सीमित होती जा रही थीं। किताबें और पत्रिकाएं लाइब्रेरी तक सीमित रह गई थीं।
उर्दू के मशहूर शायर शारिक कैफ़ी कहते हैं, “आज से 30–35 साल पहले जब मैंने शायरी शुरू की, तब उर्दू शायरी के क्षेत्र में जगह बनाना कठिन था। उस समय में शायरों की एक टीम होती थी, जो हर मुशायरे में बुलाई जाती थी। वही लोग आपको कस्बे के मुशायरे से लेकर लाल किले के मुशायरे में नजर आते थे। नए शायर को उनमें जगह बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत और जुगाड़ लगाना पड़ता था। दर्जनों युवा शायरों में से कोई एक ही बड़ी मुश्किल से उर्दू शायरी की मुख्यधारा में पहुंच पाता था। चुनिंदा शायरों और आयोजकों का एकछत्र राज था। गिने-चुने मुशायरे ही हुआ करते थे।”
और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
उस समय दो ही तरह की शायरी ज्यादातर लोकप्रिय होती थी। मुशायरे में शामिल होने वाले अधिकतर लोगों के लिए मुशायरा मनोरंजन का जरिया होता था। इसलिए उनके सामने बहुत गंभीर बात नहीं कही जाती थी। यही कारण है कि इन मुशायरों में मजहबी बातें करने वाले, चुटकुले सुनाने वाले, द्विअर्थी टिप्पणी करने वाले शायर तालियां बंटोर ले जाते थे। सांप्रदायिक शायरी पर सीटियां बजती थीं। संवेदनशील और गंभीर किस्म के शायरों को खास तवज्जो नहीं मिलती थी। न उनके शेर जनता को समझ में आते थे और न ही जनता को उनमें खास दिलचस्पी होती थी। जनता तो मुख्य रूप से धार्मिक उन्माद से भरी शायरी या चुटकुलेबाजी सुनने आया करती थी। दूसरी तरफ कवि सम्मेलन और मुशायरों में वही शायर ज्यादा पसंद किए जाते थे, जो किसी खास धुन में अपनी शायरी, कविताएं गाकर सुनाते थे।
मतलब यह कि शायरी की लोकप्रियता उसके कॉन्टेंट से अधिक इस बात पर निर्भर करती थी कि शायर की आवाज कैसी है। शायर अच्छा गाता है तो उसकी शायरी मुशायरे में हिट रहती। इन वजहों से बौद्धिक रूप से मजबूत और संजीदा शायर कवि सम्मेलन और मुशायरों से दूर होते चले गए और धीमे-धीमे शायरी युवाओं के बीच से गायब हो गई। लोग अपने पाठ्यक्रम में जो कविताएं, शायरी पढ़ते, वही उनके लिए शायरी की दुनिया होती। आने वाले वर्षों में उर्दू शायरी ढलान पर थी। देशभर में गिने-चुने कवि सम्मेलन और मुशायरे होते, जिनसे युवा पीढ़ी कट गई थी।
मगर युवाओं में शायरी की पैठ बनाना आसान काम नहीं था। रेख्ता के संस्थापक संजीव सराफ का कहना है कि युवाओं में उर्दू शायरी के प्रति आकर्षण पैदा करना ठीक वैसा है, जैसे पत्थर पर फूल खिलाना। उनका कहना है कि हिंदुस्तान में उर्दू ज़बान से जुड़ी दक़यानूसी विचारधाराओं से तो सभी वाक़िफ हैं। सबसे पहली चुनौती तो इस भेदभाव को दूर करना था।
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
अल्लामा इक़बाल
मगर जिस तरह हर सिक्के के दो पहलू होते हैं, ठीक उसी तरह सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित हो रही उर्दू शायरी का भी दूसरा पहलू है। मशहूर उर्दू शायरा शबीना अदीब कहती हैं, “आज उर्दू शायरी के नाम पर जो सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है, उसमें से ज्यादातर कॉन्टेंट ऐसा है, जिसका उर्दू शायरी से कोई लेना-देना नहीं है। अव्वल तो यह है कि वह शायरी ही नहीं है। सोशल मीडिया पर फैले अधिकतर कॉन्टेंट में न व्याकरण का ध्यान रखा जाता है और न अन्य बिंदुओं का। सब खुद के लिखे को महान समझते हैं। कोई किसी से सलाह नहीं लेना चाहता। जिसकी पोस्ट पर ज्यादा लाइक और कमेंट आ गए, वह सोचता है कि मुझसे बड़ा शायर जमाने में कोई है ही नहीं।”
इसी तरह सोशल मीडिया के कारण कॉन्टेंट कॉपी होना भी बढ़ गया है। आज कोई भी आपकी शायरी को, आपको क्रेडिट दिए बिना, आपसे इजाजत लिए बिना, गाकर सोशल मीडिया पर पोस्ट कर देता है और वायरल हो जाता है। उसे कार्यक्रम मिलने लगते हैं, मीडिया कवरेज मिलता है और वह पैसा कमाने लगता है। इस पूरी यात्रा में, जिस शायर या शायरा ने रात भर जागकर शायरी लिखी होती है, उसके हिस्से में कुछ नहीं आता। किसी भी माध्यम की समीक्षा करते हुए, सभी पहलू ध्यान में रखने होते हैं। यह अच्छा है कि सोशल मीडिया ने उर्दू शायरी को कोने-कोने तक पहुंचाया है, लेकिन ध्यान रखने योग्य बात है कि सोशल मीडिया पर प्रसारित उर्दू शायरी स्तरीय हो, यह जरूरी नहीं है। इसलिए जब हम युवाओं पर उर्दू शायरी के प्रभाव की बात करते हैं तो हमको कई पक्ष देखने और समझने की जरूरत है।
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन कहीं आसमाँ नहीं मिलता
निदा फ़ाज़ली
बहरहाल, इसमें शक नहीं कि सोशल मीडिया ने वह जिम्मेदारी निभाई है जो कायदे से साहित्यिक संगठनों, सरकारों और वरिष्ठ कवियों और शायरों की थी। युवा पीढ़ी को शायरी से रूबरू कराने और उन्हें शिक्षित करने में सोशल मीडिया का बड़ा योगदान रहा है जिसके कारण आज एक से बढ़कर एक युवा और प्रतिभाशाली शायर सामने आ रहे हैं। लेकिन दुआ कीजिए कि अदबो-सुखन भी कायम रहे।