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स्मृति: डिस्को किंग से कहीं बड़े

“1970 के दशक के अंतिम वर्ष में डिस्को संगीत की बढ़ती लोकप्रियता ने बप्पी दा के आगे बढ़ने का रास्ता...
स्मृति: डिस्को किंग से कहीं बड़े

“1970 के दशक के अंतिम वर्ष में डिस्को संगीत की बढ़ती लोकप्रियता ने बप्पी दा के आगे बढ़ने का रास्ता प्रशस्त किया”

बॉलीवुड में 1980 के दशक में सबसे व्यस्त संगीत निर्देशक बप्पी लाहिड़ी (1952-2022) को आम तौर पर ‘डिस्को किंग’ के रूप में जाना जाता रहा है, लेकिन उनकी बहुमुखी प्रतिभा और विशाल रेंज के कारण उन्हें किसी खास छवि में बांधना नाइंसाफी होगी। वे भारतीय और पश्चिमी धुनें बनाने में समान रूप से दक्ष थे, जिसके कारण उन्होंने राहुल देव बर्मन जैसे दिग्गज संगीतकार को भी पीछे छोड़ दिया था।

1970 के दशक के अंतिम वर्ष में डिस्को संगीत की बढ़ती लोकप्रियता ने बप्पी दा के आगे बढ़ने का रास्ता प्रशस्त किया। उन्होंने मिथुन चक्रवर्ती की सुरक्षा (1979) के साथ अपने संगीत से धमाका किया और जल्द ही नमक हलाल (1982) और डिस्को डांसर (1982) के साथ शीर्ष पर पहुंच गए। उन दिनों डिस्को गानों की बढ़ती मांग को पूरा करने की अपनी क्षमता के कारण उन्होंने कुछ ही समय में पंचम दा, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल और कल्याणजी-आनंदजी जैसे दिग्गज संगीतकारों के बीच अपनी खास जगह बनाई। उस दौर में प्यारा दुश्मन (1980) में उषा उत्थुप का गाया डिस्को गीत ‘हरि ओम हरि’ उनकी शुरुआती सफलताओं में से एक था।

लेकिन डिस्को युग से कहीं पहले उन्होंने कई फिल्मों में कर्णप्रिय संगीत देकर अपनी विलक्षण प्रतिभा रेखांकित की थी। जब नन्हा शिकारी (1973) के साथ उन्होंने अपनी हिंदी फिल्म की शुरुआत की, तो वे मुश्किल से 21 साल के थे। लेकिन अगले दो साल में ही उन्होंने जख्मी (1975) और चलते चलते (1976) के साथ दो फिल्मों में हिट संगीत दिया, जिसमें किशोर कुमार का गाया कालजयी गीत ‘कभी अलविदा ना कहना’ भी शामिल है।

हालांकि बप्पी दा ने छोटी फिल्मों से अपने करियर का आगाज किया था लेकिन जल्द ही वे प्रकाश मेहरा जैसे दिग्गज निर्माता के अमिताभ बच्चन-अभिनीत नमक हलाल और शराबी (1984) जैसे ब्लॉकबस्टर में संगीत देकर छा गए। नमक हलाल में किशोर कुमार के गाए उनके 14-मिनट का क्लासिक, ‘पग घुंघरू बांध’ उनकी प्रतिभा का नायाब नमूना था। उन दोनों एल्बम ने उनके आलोचकों का मुंह बंद कर दिया, जो उन पर विदेशी धुनों की नकल का आरोप लगाते थे।

इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि उनकी हर पाश्चात्य धुन मौलिक नहीं थी। डांस डांस (1987) में ‘ज़ूबी ज़ूबी’ सहित उन्होंने कई ऐसी धुनें बनाईं, जो मौलिक न थीं, लेकिन यह कहना अनुचित होगा कि उनमें मौलिकता नहीं थी। डिस्को डांसर (1982) का ‘जिमी जिमी’ तो रूस और चीन सहित कई देशों में अत्यधिक लोकप्रिय हुआ। विडंबना यह है कि ज्योति (1982) में लता मंगेशकर का गाया एक हिट गीत ‘थोड़ा रेशम लगता है’ कई साल बाद अमेरिकी गायक ट्रुथ हट्र्स ने अपने एक एल्बम में प्रयोग किया था। बाद में अमेरिका में कानूनी लड़ाई के बाद बप्पी दा का नाम एल्बम क्रेडिट में शामिल किया गया।

अस्सी के दशक में भले ही बप्पी दा ने हिम्मतवाला (1983) और तोहफा (1984) जैसी हिट फिल्मों में संगीत देना जारी रखा, लेकिन दक्षिण भारतीय सिनेमा में भारी व्यस्तता के कारण उनके संगीत की गुणवत्ता में कमी आई जो ‘झोपड़ी में चारपाई’ और ‘उई अम्मा’ (मवाली/1983) जैसे गीतों में दिखा। और जब उनके गुरु, गायक किशोर कुमार का 1987 में निधन हो गया, तो बप्पी दा उससे उबर नहीं पाए।

उस समय तक डिस्को की लोकप्रियता कम हो गई और बॉलीवुड में धीरे-धीरे कयामत से कयामत तक (1988), आशिकी (1990) और दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995) जैसी हिट फिल्मों के साथ रोमांटिक संगीत के युग की शुरुआत हो गई थी। नदीम-श्रवण, जतिन-ललित और आनंद-मिलिंद जैसे संगीतकारों का बोलबाला हो चुका था। हालांकि बप्पी दा ने नब्बे के दशक में दलाल (1993) और आंखें (1994) जैसी हिट फिल्मों में संगीत दिया लेकिन उनका दौर अब ढल गया था।

नई सहस्राब्दी में जब बॉलीवुड की रेट्रो संगीत में रुचि जागी तो उन्होंने ‘ऊ ला ला’ (द डर्टी पिक्चर/2011) के साथ वापसी की, लेकिन उनका सर्वोत्तम कार्य पीछे छूट चुका था। डिजिटल युग में सोने के आभूषण पहनने के लिए बप्पी दा पर हजारों चुटकुले और मीम्स बने और टेलीविजन रियलिटी शो में उन्हें नई पीढ़ी के संगीत प्रेमियों ने बहुत पसंद किया, लेकिन उनमें से अधिकांश उन्हें डिस्को किंग के रूप में ही जानते रहे। यह ऐसी छवि थी जिसका बोझ उन्हें जीवन भर ढोना पड़ा, इसके बावजूद कि भारतीय फिल्म संगीत में उनके संगीतबद्ध किये कर्णप्रिय गीतों की फेहरिस्त काफी लंबी है। ‘कभी अलविदा ना कहना’ और ‘माना हो तुम बेहद हसीन’ (टूटे खिलोने/1979) से लेकर ‘किसी नजर को तेरा इंतजार’ (ऐतबार/1985) और ‘मंजिलें अपनी जगह हैं’ (शराबी) जैसे गीतों के कारण उन्हें सिर्फ डिस्को किंग के रूप में चिन्हित नहीं किया जा सकता। भारतीय फिल्म संगीत के इतिहास में उनके समग्र योगदान के कारण उन्हें वही स्थान मिलेगा, जिसके वे हकदार रहे।

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