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एलपी रेकॉर्ड्स को सीडी की सौगात

रवीन्द्र संगीत के शौकीन और किसी वक्त में इसे सीखने वाले मलय घोष को अंदाजा भी नहीं रहा होगा कि संगीत की यह शिक्षा एक दिन उनके लिए रोजी-रोटी का जरिया बनेगी।
एलपी रेकॉर्ड्स को सीडी की सौगात

निजी कंपनी की अपनी नौकरी में खुश रहने वाले मलय बस यूं ही कभी कभार संगीत सुन लिया करते थे और उन्हें लगता था कि पुराने गायकों की आवाज को सहेजने के लिए कुछ नहीं हो रहा। उनके पसंदीदा गायकों को सुनने की इच्छा जब होती तो 'अब कहां मिलेगा’ की आवाज मन से निकलती और फिर जिंदगी रोजमर्रा के ढर्रे पर चल पड़ती। इकहरे बदन के मलय को पीलिया हुआ और यह इतना बिगड़ गया कि डॉक्टर ने उन्हें नौकरी और जिंदगी के बीच किसी एक को चुनने तक की सलाह दे दी। वह मेहनत का कोई काम नहीं कर सकते थे और मार्केटिंग की नौकरी तो बिलकुल नहीं। मलय कहते हैं, 'मैं उस उम्र में था जब न मैं किसी नए क्षेत्र में हाथ-पैर मार सकता था न शहर बदलने का खतरा मोल ले सकता था। बहुत सोचने के बाद मैंने एक बीपीओ में नौकरी के लिए आवेदन किया। यहां भी वही परेशानी थी। बहुत कम उम्र के बच्चों को नौकरी पर रखा जाता था। मैं उनके खांचे में फिट नहीं था। फिर भी मुझे किसी तरह बीपीओ में नौकरी मिल गई। बीपीओ में रात या दिन किसी भी शिफ्ट में काम करना पड़ता था। कुछ दिनों बाद फिर तबीयत बिगड़ी और जब मैं डॉक्टर के पास गया तो उनका कहना था मैं खुद अपने स्वास्थ्य से खेल रहा हूं। रात की शिफ्ट में काम करना मेरे लिए खतरनाक हो सकता है। मैं अपनी कंपनी गया और उन्हें डॉक्टर के परचे भी दिखाए। रात की शिफ्ट में काम न देने का अनुरोध भी किया पर कोई नतीजा नहीं निकला। अंतत: मुझे नौकरी छोड़ देनी पड़ी।

यह मलय के जीवन का ऐसा मोड़ था जिसने उन्हें नई दिशा दी। घर चलाने के लिए पैसा जरूरी था और पैसे के लिए जरूरी थी नौकरी। बहुत सोचने के बाद पत्नी चंद्राणी ने सुझाया कि क्यों न रवीन्द्र संगीत की सिखाना शुरू किया जाए। कुछ तो होंगे जो संगीत सीखना चाहते होंगे। चंद्राणी खुद भी संगीत में स्नातक हैं। उस वक्त यही विचार सबसे अच्छा लगा सो इसी पर मलय ने इसी पर काम शुरू किया। लंबे समय से छूटा अभ्यास करना था और अभ्यास के लिए जरूरी था कुछ पुराने शास्त्रीय गायकों को सुना जाए। मलय ने जब इन गायकों की सूची बनाई तो आधे से ज्यादा गायकों का संगीत उपलब्ध ही नहीं था, जिनका था उनमें भी एलपी रेकॉर्ड थे सीडी नहीं। एलपी भी ऐसे कि सुन कर संगीत का पूरा आनंद लेना थोड़ा कठिन था और गायकों की हरकतों और मुरकियों को पकड़ना तो लगभग नामुमकिन था। एलपी में संगीत के साथ चलने वाली खरखराती आवाज शास्त्रीय संगीत के सुकून को कम कर देती थी। मलय को इसका एक ही इलाज समझ आया कि इन एलपी के संगीत का डिजीटलीकरण कर दिया जाए। यानी सभी एलपी को सीडी में तब्दील कर दिया जाए।

सुनने में यह जितना आसान लग रहा है यह उतना था नहीं। उन्होंने इंटरनेट खंगाला और ऐसे लोगों को खोजा जो एलपी को सीडी में तब्दील करते थे। लेकिन वह सिर्फ रेकॉर्ड कर आवाज को एक (फॉर्मेट) जगह से निकाल कर दूसरी जगह केवल स्थानांतरित कर सकते थे। उसमें सुधार की कोई गुंजाइश उनके पास नहीं थी। इसके बाद मलय ने खुद कंप्यूटर पर बैठ कर प्रयोग करने शुरू किए। उन्होंने इसके लिए एक ऑनलाइन सॉफ्टवेयर भी खोजा। पर समस्या वही पैसों की थी। सॉफ्टवेयर महंगा था और उस वक्त मलय जानते भी नहीं थे कि वह जैसा सोच रहे हैं यह सॉफ्टवेयर वैसा काम भी करेगा या नहीं। फिर भी उन्होंने एक जुआ खेला और वह सॉफ्टवेयर खरीद लिया। सबसे पहले उन्होंने अपनी पसंदीदा गायिका कृष्णा चटर्जी की एलपी को सीडी में बदला। जब उन्होंने सीडी को सुना तो लगा कि वह भी यूरेका-यूरेका चिल्लाते हुए बाहर की ओर दौड़ लगा दें। उनका यह 'यूरेका क्षण’ वाकई बड़ी उपलब्धि था।

मलय के पिताजी के पास बहुत सारे एलपी रेकॉर्ड थे जो वह सुनने के लिए लाए थे। इनमें कुछ उससे भी पुराने 78 आरपीएम थे। अब सवाल यह कि 78 आरपीएम सुने कहां जाएं। उनकी पत्नी ने बताया कि उनके पिताजी के पास आरपीएम ग्रामोफोन है। मलय उसे ले तो आए पर वह चालू हालत में नहीं था। मलय जिससे उसे सुधारने के बारे में पूछते वह हंसी उड़ा देता। उस रेकॉर्डर के पुरजे बनने भी बंद हो गए थे। उन्हें पता चला कोलकाता में कोई इसका कारीगर है। वह वहां जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि एक दोस्त ने बताया दिल्ली के लाजपत नगर बाजार में एक दुकान है जहां आरपीएम रेकॉर्डर सुधर सकता है। बहुत मुश्किल से वह दुकान खोजी और आखिर में वह रेकॉर्डर सुधर गया। इसके बाद मलय ने 78 आरपीएम का भी डिजीटलीकरण कर दिया।

पर ऐसे कितने लोग थे जिन्हें इस काम की कद्र थी और जो यह काम कराना चाहते थे। क्योंकि एक-दो रेकॉर्ड्स से बात नहीं बनने वाली थी। उनहोंने दुर्गा पूजा पांडाल में अपने काम के बारे में एक सूचना लिख कर चस्पा कर दी। कुछ दिनों बाद कोलकाता से एक सज्जन दो सूटकेस भर कर अपने एलपी रेकॉर्ड्स दे गए। अब मलय नाथ सागर आर्काइव्ज के लिए नियमित काम कर रहे हैं। यह गैरसरकारी संगठन दक्षिण एशिया के संगीत पर शोध कर उन्हें संग्रहित करने का काम करता है। बात बनी तो उनके पास कुछ संगीत विश्वविद्यालयों का काम भी आ जाएगा जो अपने छात्रों को उम्दा पुराने गायकों से रूबरू करना चाहते हैं।

मलय कहते हैं, 'लोग काम तो शानदार चाहते हैं लेकिन कीमत चांदनी चौक वाली मांगते हैं। यह भी विडंबना है कि जरूतमंदों को पता ही नहीं है कि ऐसा कोई काम भी हो सकता है। और जिनकी रुचि थी वे अपनी पुरानी एलपी कबाड़ी को बेच चुके हैं। मैं बस उसी बचे हुए संगीत को कबाड़ में जाने से रोकने की कोशिश कर रहा हूं।’

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