Advertisement

कविता - पद्माशा झा

डॉ. पद्माशा झा की कविताओं में विविधता के रंग मिलते हैं। उनकी कई रचनाएं प्रकाशित हैं। प्रमुख रचनाओं में, ‘भाषा से नंगे हाथों तक’, ‘पोखर’, ‘पलाश वन’, ‘मत बांधो आकाश’। सभी काव्य संग्रह हैं। साथ ही ‘छोटे शहर की शकुंतला’ और ‘तुम बहुत याद आओगे’ नाम से कथा संग्रह। कविता-कहानी के इतर ‘इंडियन नेशनल कांग्रेस एंड मुस्लिम’, ‘मौलाना अबुल कलाम आजाद एंड नेशन’ नाम से इतिहास की किताबें भी हैं। शीघ्र ही ‘बिहार का प्राचीन एवं मध्यकालीन इतिहास’ नाम से पुस्तक प्रकाशित होने वाली है। डॉ. झा को नागालैंड ओपन विश्वविद्यालय द्वारा लाइफ टाइम अचीवमेंट अवॉर्ड से नवाजा गया है। वह बिहार विधान परिषद की सदस्य एवं मिथिला विश्वविद्याल की कुलपति रह चुकी हैं।
कविता - पद्माशा झा

ढूंढो तो

कहां है वह आजादी का बुत

जिसे तराश कर हमने

खुदा बनाया था।

वह मूरत जो मुस्कराती थी,

गेंदे के फूलों का हार पहनकर

सरस्वती संवर जाती थी

कहां है धूप, दीप, नैवद्य

वाली वह पूजा, गीत

वह चंदन

आंखें मूंदकर होती हुई अराधना

वह गूंजते हुए श्लोक के छंद

चंदन गंध, तुलसी पत्र

कहां हैं वे छलकते हुए जीवन के क्षण

जरा ढूंढो तो

वे प्यार की मीठी बातें

नीली पोशाक में गाए गए

भारत मां के गीत

वे खाई हुई कसमें

बूटों की धुन पर

रोमांचित होती परेड

वह आधी रात का घूमना

निश्शंक

हाथों में हाथ डाले पार्कों में

खिलखिलाना बेवजह

पान की दुकानों पे

यों ही बतियाना बेखौफ

वह चांदनी, वह हवा

उन्मुक्त नीला आकाश

अंधेरे को चीरकर उगता हुआ

सूरज

मां के आंचल सी फैली

धरती

कहां गए वे पीली सरसों के खेत

जरा ढूंढो तो।

अब आप हिंदी आउटलुक अपने मोबाइल पर भी पढ़ सकते हैं। डाउनलोड करें आउटलुक हिंदी एप गूगल प्ले स्टोर या एपल स्टोर से
Advertisement
Advertisement
Advertisement
  Close Ad