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रविवारीय विशेषः योगिता यादव की कहानी, ताऊ जी कितने अच्छे हैं

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए योगिता यादव की कहानी।...
रविवारीय विशेषः योगिता यादव की कहानी, ताऊ जी कितने अच्छे हैं

आउटलुक अपने पाठको के लिए अब हर रविवार एक कहानी लेकर आ रहा है। इस कड़ी में आज पढ़िए योगिता यादव की कहानी। योगिता अपनी कहानियों में युवा लड़कियों के मुद्दों को बहुत अच्छे ढंग से उभारती हैं। इस कहानी में की पात्र एक छोटी बच्ची अपने ही ढंग से उत्पीड़न करने वाले से ‘बदला’ लेती है। उसका यह कदम भले ही छोटा हो लेकिन उसे बचकाना बिलकुल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि साहस की मंजिल और प्रतिरोध की भावना की कोंपले बचपन के ऐसे ही छोटे-छोटे निर्णयों से फूटती हैं। यह कहानी एक बच्ची के साहस की भी कहानी है। यदि यह साहस हर बच्ची में पैदा हो जाए, तो जाहिर है, दुनिया बच्चियों के लिए भी उनके सपनों की तरह खूबसूरत हो जाएगी।

 

बच्चों की सलामती में माएं कलावे बांधती हैं और कलावा खोलने पर डांट पड़ती है

 

 

हमारे घर में कोई सिगरेट नहीं पीता था। पर एक एश ट्रे रखी थी। एक खास व्यक्ति के लिए। वह जब भी हमारे घर आते, वह एश ट्रे निकाली जाती। उन्हें सिगरेट पीने की आदत थी। अगर एश ट्रे नहीं रखी जाती तो वे चाय के कप में सिगरेट की राख झाड़ देते। यह एक घिनौनी हरकत होती। उन्हें कौन टोकता, वो तो बहुत अच्छे आदमी थे।

ताऊ जी जब भी आते, हम दोनों बहनें लाइन में लग जातीं। उन्हें प्रणाम करते। वे आशीर्वाद में हमारे सिरों पर हाथ फेरते। वे समोसे का पैकेट हमें पकड़ाते। हम खुश हो जाते। काजू, किशमिश और मटर वाले अग्रवाल के बड़े-बड़े समोसे, सिर्फ ताऊ जी ही लेकर आते थे।

वे बहुत अच्छे थे। सबसे बड़े। इतने बड़े कि वे पापा को भी डांट सकते थे। वे हमारी वार्षिक रिपोर्ट देखते। अच्छे नंबरों पर शाबाशी देते, कम नंबर आने पर डांटते। हम उनसे डरते भी थे और उनका आना हमें अच्छा भी लगता था।

मां चाय बनाती, कुछ समोसे, बिस्कुट उनकी प्लेट में रखती और रखकर पर्दे की ओट में खड़ी हो जातीं। मां उनसे घूंघट करती थीं। हर जरूरी- गैर जरूरी बात वे इसी तरह पर्दे की ओट में खड़ी होकर उनसे करतीं। मां के लिए भी ताऊ जी बहुत खास थे। घर की जिन जरूरतों को पिताजी नजरंदाज करते, मां उनसे कहती।

स्टोव छोड़कर गैस चूल्हा लाने के लिए भी मां ने उन्हीं से कहा। ताऊ जी ने इस बात पर न सिर्फ मां का समर्थन किया, बल्कि पापा को डांटा भी। एक दिन ताऊ जी खुद ही गैस चूल्हा लेकर घर आ गए। वह कितना जादू भरा दिन था। उन्होंने  बड़ा सा डिब्बा खोला। उसमें स्टील का चमचमाता गैस वाला चूल्हा निकला। और कुछ पुर्जे भी। वे एक-एक कर सब पुर्जों को जोड़ रहे थे, मां को बता रहे थे सब कैसे, कहां लगेगा, चूल्हा कैसे जलेगा, दीदी को समझा रहे थे, “अब तू भी चाय बना लिया करेगी।”

मां की, दादी की, हम सब की आंखें चमक गईं थीं। हमारे घर एक सुंदर और जरूरी चीज आ गई है। इसे भी ताऊ जी लेकर आए। सच ताऊ जी कितने अच्छे हैं। मां यही सोचते हुए शायद आखिरी बार उनके लिए स्टोव पर चाय बना रही हैं। गैस का सिलेंडर आने में अभी वक्त है। जब वह आएगा, तो ताऊ जी उसे भी ही लगाना सिखा देंगे।

मां खुश हो रही है, हम सब खुश हो रहे हैं।

“सिया तेरी ताई जी, तो रास्ता ही भूल गई घर का, तेरी पूजा दीदी भी तुझे याद नहीं करतीं।”  मां चाय रखते हुए मेरी ओट में ताऊ जी से मीठी सी शिकायत कर रही हैं।

“तेरी पूजा दीदी सारा दिन पढ़ती रहती है। उसके कॉलेज के पेपर आने वाले हैं। और ताई जी तो अपनी मर्जी की आप मालिक है। तुम ही दोनों बहनें घूम आओ किसी दिन। अपनी मम्मी को साथ लेकर।”

मेरी ही ओट से ताऊ जी ने मम्मी की शिकायत का जवाब दिया और एक आग्रह भी किया, “सिया, तेरी मम्मी स्वेटर बुन लेती है क्या? इन बाजार वाले स्वेटरों में ठंड नहीं रुकती अब।”

मां कैसे नहीं बुनेगी स्वेटर। इतने बड़े ताऊ जी ने इतनी छोटी सी जरूरत बताई है अपनी। मां सर्दियां आने से पहले ही यह काम जरूर कर देगी।

“कैसे रंग का बुनना है सिया?”

“गुलाबी”,  मैंने चहक कर बताया अपना पसंदीदा रंग। पर मेरी पसंद की जरूरत नहीं है, मैं सिर्फ माध्यम हूं।

“हे, पागल। बिस्कुटी रंग का बना दियो, काले-नीले तो बहुत हैं।” ताऊ जी ने अपनी पसंद बताई।  

मां बिस्कुटी रंग की ऊन ले आई हैं। जल्दी-जल्दी सलाइयों पर दिन बीत रहे हैं। अंदाज से ही ताऊ जी के नाप का स्वेटर बुना है।

सब खुश हैं। पापा भी, मां भी। कितनी मुश्किल से मौका मिला कि हम ताऊ जी के लिए कुछ कर पाएं। स्वेटर ताऊ जी के पूरे नाप का बना है। इस बार की सर्दियों में एक अलग ही रंगत है।

हर बार की तरह ताऊ जी ने चलते हुए हम दोनों बहनों को पांच-पांच रुपये के हरे नोट दिए हैं। हर बार की तरह हमने भी नोट मां को पकड़ा दिए हैं। हमें तो पच्चीस पैसे से ज्यादा खर्चने ही नहीं आते। पच्चीस पैसे की दस संतरी रंग की गोलियां, काले रंग की चटपटी मछली वाली गोलियां या मावा वाले सफेद बादाम।

हमारी दुनिया कितनी छोटी, ताऊ जी कितने बड़े।

 

सर्दियों की रातें हर बार अच्छी नहीं होतीं, कभी-कभी उनमें लिजलिजी स्मृतियां भी होती हैं

 

हम डर गए हैं। इतने बड़े ताऊ जी रोते हुए घर आए हैं। उनके पास जाने पर दुर्गंध आ रही है। मां फुसफुसा रही हैं, “इन्होंने शराब पी है।” पापा मुंह पर उंगली रख चुप रहने का इशारा कर रहे हैं। उन्हें समझा रहे हैं, “दुखी हैं भाई साहब।”      

ताऊ जी को दिलासा देते हैं, “क्या किया जा सकता है। तरह-तरह के लोग हैं दुनिया में। भगवान ने चाहा तो सब अच्छा ही होगा।” ताऊ जी पूजा दीदी के लिए लड़का देखने गए थे। सुंदर हैं पूजा दीदी। पर लड़के वालों ने कहा है, बाल कटवाने होंगे। यही फैशन में है। लड़की को हम अमेरिका ले जाएंगे।

ताऊ जी दुखी हो गए हैं, समझ नहीं आ रहा, बाल कटवाने की मांग पर या लड़की को अमेरिका ले जाने की जिद पर। मैं भी रोती हूं बाल कटवाने पर लेकिन तब कोई मेरे लिए नहीं रोता।

वे रो रहे हैं, “बेटी का बाप होना बहुत दुख का काम है। सुसरा लड़के वाला जूता मारने का कोई मौका नहीं छोड़ता।”

वे बच्चों की तरह सुबक रहे हैं। सिगरेट पी रहे हैं। राख एश ट्रे में छिड़कते जा रहे हैं। घर में सिगरेट का धुआं भर गया है। यह धुएं वाली, आसुओं वाली दुख भरी रात है।

ताऊ जी कुछ नहीं खा रहे, बस रो रहे हैं।

उनके साथ मां भी रो रहीं हैं।

पापा भी कुछ रोए से हो गए हैं।

मां ने रोते हुए उनके लिए बिना प्याज की सब्जी बनाई है। वे प्याज नहीं खाते। पापा उन्हें मनुहार करके खाना खिलाते हैं। रात आधी हो चली है। मां हमें डांटकर सुला देना चाहती है। पर हम सोना नहीं चाहते, सब कुछ जान लेना चाहते हैं।

हमसे ज्यादा ताऊ जी जरूरी हैं। मां-पापा उनका दुख दूर करने में लगे हैं।

हम डांट खाकर चुपचाप रजाई में घुस गए हैं।

पापा अब भी उन्हें समझा रहे हैं। पर आवाजें अब धीमी हो चली हैं,  हमारी नींद उनका स्वर धीमा करने लगी है।

और हम सो गए हैं।

 

राजकुमारियों के दुख पर राजा रोए, प्रजा रोए, गरीब की बेटी की कथा मौन रहे

 

 

एक स्पर्श से नींद टूटने लगी है। मैं कसमसाई हूं। टांगों के बीच में एक अनचाहा स्पर्श है। मैंने करवट बदली है और जगह से थोड़ा खिसकी हूं। ये कैसी अजीब आहट लिजलिजी दस्तक है! इस अंधेरी रात में!

मैं सजग हो गई हूं।

स्पर्श अब नहीं है। मैं फिर सोने की कोशिश करती हूं। 

नींद अब डर गई है, दूर जा बैठी कहीं। और स्पर्श फिर आ गया। शायद पैर का अंगूठा है। यह देह पर डर की पहली दस्तक है। उनके पैर का अंगूठा मुझे खुरच रहा है।

पर क्यों...  हटो... मैं चीखना चाहती हूं।

मैं रोने लगी हूं, भीतर ही भीतर। आवाज बाहर नहीं निकल रही।

स्पर्श अब गड़ने लगा है। मैं बहुत तेज रोना चाहती हूं। अपनी छोटी सी लात से स्पर्श को पीछे ढकेला है। पर स्पर्श बहुत बड़ा है, लात बहुत छोटी। अब हाथ की अंगुलियां हैं शायद। मैं खूब-खूब रोना चाहती हूं। कौन है हमारी रजाई में।

मैं और भी ज्यादा डर गई हूं। दीदी से चिपक गई हूं। पर कुछ बोल नहीं पा रही।

“दीदी दीदी...” आवाज गले से बाहर नहीं आ रही, कमरे में घुप्प अंधेरा है, उठ न बहन, मेरे बिना बोले ही उठ।

देख न कौन है, कितना गंदा है!

सुन न मुझे, मेरे बिना कहे ही सुन।

मां, पापा आओ न। मेरे बिना बुलाए ही आओ। मुझे ले जाओ अंधेरे की रजाई से निकाल कर।

मां-पापा शायद बाहर वाले कमरे में सोए हैं। हम दोनों बहनें अंदर, घर के सबसे बड़े बेड पर। ताऊ जी को यही बेड दिया जाता है सोने के लिए।

अब नहीं सोऊंगी इस बेड पर, पक्का। मुझे ले जाओ यहां से।

कोई नहीं आता। मैं पुकार ही नहीं पाई हूं!

बस हिम्मत आती है।

मैंने तेज-तेज लातें मारना शुरू कर दिया है। मैं नहीं डरती स्पर्श से। मैं नहीं डरती ताऊ जी से। दीदी का स्वेटर खींच रहीं हूं, “उठ, उठ, जल्दी उठ यहां से।”

दीदी उठ गई है कसमसाकर। “क्या हुआ सिया?

अब मैं चुप। मुझसे कुछ कहा नहीं जा रहा। मैं क्या कहूं, क्या कहूं। दुख की जुबान कट गई।

“मुझे नींद नहीं आ रही।” बस इतना ही कह पाई।

“मां के पास जाएगी?

“हां, तू भी चल। अकेले नहीं जाऊंगी।”

“नहीं मुझे सोना है। वहां कहां जगह होगी, मां का बेड छोटा है।”

दीदी फिर सो गई। मैं नहीं सो पा रही। अब मैं मुस्तैद हूं। दोनों लातें तैयार हैं। जैसे ही स्पर्श आएगा, मैं फिर से मारूंगी। रजाई में घुस जाऊंगी, दांत कांट लूंगी। ताऊ जी कहते हैं, छोटी वाली सबसे खोटी है। अब बताऊंगी। हां मैं सच में खोटी हूं।

मैं तैयार हूं, मेरी टांगें तैयार हैं, मेरे दांत तैयार हैं, मेरा मन तैयार है। इंतजार, इंतजार और लंबा इंतजार। अब कोई हरकत नहीं। कोई स्पर्श नहीं।

पर अब नींद भी नहीं।

 

रात बीत गई, पर बात नहीं बीतती

 

सुबह हो गई। ताऊ जी अब भी सोए हैं। मैं न जागी हूं, न सोई हूं। बस तैयार होकर दीदी के साथ स्कूल जा रही हूं। मन कर रहा है, सोते हुए ताऊ जी के मुंह पर लात मारूं। पर नहीं मार पाई। तैयार होकर स्कूल चली आई।

रास्ते भर दीदी का हाथ पकड़े-पकड़े सोचती रही कि मुझे कुछ कहना है। नहीं कह पाई।

स्कूल खत्म हो गया।

मैं घर नहीं आना चाहती।

घर में ताऊ जी हुए तो!

घर नहीं जाऊंगी तो खो जाऊंगी। मां डांटेगी।

बाहर रही, तो कोई उठा ले जाएगा। काटकर बेच देगा। झोले वाला बाबा अपने झोले में डाल ले जाएगा। घर ही अच्छा है। अब से घर भी पूरा अच्छा नहीं है।

दीदी का हाथ पकड़े-पकड़े मैं घर लौट आई हूं। मुझे कुछ कहना था?

कमरे में झांक कर देखती हूं। ताऊ जी चले गए।

पर नहीं गए, यहीं दिख रहे हैं मुझे। यही महसूस हो रहे हैं, इसी बेड पर, मेरी टांगों के बीच में। एश ट्रे में रात की राख पड़ी है। मुझे पूरे कमरे में उनके धुएं की दुर्गंध आ रही है। शराब की बू आ रही है। उनका रोना सुनाई दे रहा है।

छी, झूठे, गंदे।

मैं खाना नहीं खाना चाहती। बस सोना चाहती हूं। क्या मुझे कुछ कहना है?

“मैं अंदर के कमरे में नहीं सोऊंगी,” मां से बस इतना ही कहा।

मैं बाहर वाले कमरे में सो गई हूं।

नींद में सपना है, सपने में गड़ता हुआ स्पर्श। मैं फिर उठ गई हूं। हड़बड़ा कर, रोने लगी हूं। “ये क्या सई सांझ रोने बैठ गई, क्या हुआ?”

मां को मुझे चुप कराना चाहिए। गले लगाकर मेरी पीठ सहलानी चाहिए पर उसने डांट दिया है।

“पार्क में चलेगी?” दीदी पूछ रही है।

“हां।” मैं और रोना नहीं चाहती। स्पर्श से छुटकारा पाना चाहती हूं।

दीदी के साथ खेलने के लिए मचल उठी हूं।  

हम दोनों दौड़कर अपना वाला झूला ले लेना चाहते हैं।

दीदी झूल रही हैं मस्ती में। मेरे झूले में अब वो मस्ती नहीं रही। वह किर्र-किर्र की आवाज कर रहा है। मुझे फिर वही स्पर्श महसूस हो रहा है। मैं कस के दोनों टांगें भींच लेती हूं। रात, रजाई और गंध ने मुझे फिर से घेर लिया है।

झूले की किर्र किर्र,

मन की घिर्र घिर्र

और भिंची हुई टांगों के बीच

ये किसने शब्दों को रास्ता दिया।

“बहन तुझे पता है...?”

“क्या?”  

“ताऊ जी अच्छे नहीं हैं।”  

“पागल है क्या? ताऊ जी कितने अच्छे हैं। पैसे देते हैं, समोसे लाते हैं, प्यार भी करते हैं।”

“लाते होंगे, पर गंदे भी हैं!”

“कैसे?”

“उन्होंने...” झिझकते हुए धीरे-धीरे, टुकड़ों-टुकड़ों में सब बताने की कोशिश करती हूं। “क्या तुझे भी किया?” डरते हुए जानना चाहती हूं कि वह क्यों रात भर सोती रही, जबकि मेरी नींद छीन ली गई। 

“नहीं तो!” दीदी हैरान है, पूछ रही है, “तूने मां को बताया?”

“नहीं!, मां मारेगी तो?”

“क्यों?”

“मैंने कल रात को पजामा नहीं पहना था। मां ने मना किया है, सर्दियों में बिना पजामा पहने सोने पर।”

“हां शायद! चल छोड़ मत बताना।”

 

चींटी अपनी जिद से पहाड़ छोटा करेगी

 

दिन बीत गए। बीत रहे हैं। ताऊ जी फिर आए हैं। समोसे का बड़ा सा लिफाफा लेकर। हम पढ़ रहे हैं। उठना नहीं चाहते। आंखों ही आंखों में दीदी ने मुझे और मैंने दीदी को देखा है।

मां डांट रही हैं, “उठो दोनों, दिखाई नहीं दे रहा, ताऊ जी आए हैं! जाओ प्रणाम करके आओ।”  

हम लापरवाही करते हैं, अनसुना करना चाहते हैं कि आज हमें बहुत होमवर्क मिला है।

मां फिर डांटती हैं। अब हम चुपचाप, थके कदमों से चल पड़े हैं ताऊ जी को प्रणाम करने।

ताऊ जी वैसे ही तन कर बैठे हैं, बिल्कुल नहीं बदले। पर हम बदल गए हैं। दीदी उन्हें झुककर दोनों हाथों से प्रणाम करती हैं, वह आशीर्वाद में सिर पर हाथ फेरते हैं। अब मेरी बारी है। मैं उन्हें प्रणाम नहीं करना चाहती, घूरना चाहती हूं।

“झूठा, झूठा, गंदा, गंदा कितना गंदा और झूठा है ये आदमी।” भीतर ही भीतर खुद से लड़ती हूं।

मैं दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम कर रही हूं। वह हाथ उठाते हैं सिर पर फेरने के लिए, मैं पीछे हट जाती हूं।

“मेरे बाल खराब हो जाएंगे।”

मां आंखें तरेर रही हैं। ताऊ जी भी।

“जैसे-जैसे बड़ी हो रही है, बदतमीज होती जा रही है ये लड़की।” मां डांट रही हैं। मां को क्या पता, पर आपको तो पता है। मैं मौन, नीची आंखों से घूर रही हूं और कमरे से भाग जाना चाहती हूं।

“ठहर, कहां जा रही है?” ताऊ जी ने कड़क आवाज में डांट लगाई है।

“पानी लेकर आ मेरे लिए!”

मुझे गुस्सा आ रहा है अब, मन में संकल्प करती हूं नहीं लाऊंगी पानी।

मां गुस्से से आंख का इशारा करती हैं।

“मैं ले आऊं?” दीदी बीच में आना चाहती है।

“नहीं ये ही लाएगी, तू बैठ यहीं।”

मैं जलील हो रही हूं, घुटे हुए मन से रसोई की तरफ बढ़ रही हूं। अगर पिटाई हुई, तो मां भी नहीं बचा पाएगी ताऊ जी से, बस घूंघट करके खड़ी रहेगी।

गिलास लेती हूं, एड़ी उचका कर मटके से पानी निकालती हूं। गुस्सा है, जलालत है, मेरी कोई गलती नहीं है और मैं कुछ नहीं कर पा रही। मैं चीख कर रोना चाहती हूं। रसोई में कोई नहीं है, किससे कहूं।

मैं गिलास के पानी से दो घूंट पानी पी लेती हूं। आंसू अंदर ढलक गए। अब मुझमें आत्मविश्वास है। मैं पानी पीकर गिलास आधा कर देती हूं। एड़ी उचका कर मटके से फिर पानी निकालती हूं, उसी जूठे पानी में और पानी डालकर गिलास को पूरा भरती हूं। गिलास ट्रे में रखकर ताऊ जी के लिए पानी लेकर जाती हूं। उनमें पराक्रम भाव है। वे जीत गए। वे ट्रे में से गिलास उठाकर पानी गटकते हैं।

अब मैं खुश हूं, मैंने अपना बदला पूरा किया। मैंने एक झूठे आदमी को जूठा पानी पिला दिया। अब मैं हर रोज ऐसे ही करूंगी।

“एक गिलास और लेकर आ”, वे कड़क कर कहते हैं।

इस बार मैं देर नहीं करती। झट से रसोई में जाती हूं। एड़ी उचका कर मटके से पानी निकालती हूं, गिलास भरती हूं, उसे जूठा करती हूं और ट्रे में रख कर ले आती हूं।

ताऊ जी गट-गट पानी पी रहे हैं।

मैं खुश हो रही हूं, मैंने फिर से एक झूठे आदमी को जूठा पानी पिलाया।

मां खुश हो रही है, “ताऊ जी ने उनकी छोटी जिद्दी लड़की को सुधार दिया। ताऊ जी कितने अच्छे हैं।”

 

 

योगिता यादव

हिंदी साहित्य में अपनी विशेष पहचान बनाने वाली युवा कथाकार योगिता यादव का जन्म, 1981 में दिल्ली में हुआ। हिन्दी साहित्य और राजनीति शास्त्र में एमए योगिता, पिछले 15 वर्षों से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। 2013 में ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार। कहानी, राजधानी के भीतर के लिए राजेंद्र यादव हंस कथा सम्मान। ख्वाहिशों के खांडववन, चर्चित उपन्यास।

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