वाणी प्रकाशन से नयी किताब आयी है- नये शेखर की जीवनी। लेखक हैं अविनाश मिश्र। अज्ञेय की लिखी 'शेखर-एक जीवनी' से अविनाश का बहुत लगाव रहा है। किताब की शुरुआत में ही वो अज्ञेय की पंक्तियों का जिक्र करते हैं और कहते हैं कि ईमानदारी सीखी उन्होंने इसी से। ये एक उपन्यास है या फिर एक आत्मकथा है या फिर आत्मकथ्यात्मक उपन्यास है। कभी-कभी लगता है कि ये कुछ दक्षिण अमेरिकी लेखकों की तरह किसी त्रासदी या किसी नशे में लगातार लिखा गया है, जो किसी युद्ध के बाद छापने वालों को प्राप्त हुआ है।
ये ऐसी किताब है जिसे पढ़ते हुए लगता है कि हमें इसकी एडिटिंग करनी चाहिए थी। बहुत सारे अंश, वाक्य हटाने चाहिए थे या फिर शब्द बदलने चाहिए थे। ऐसा करते-करते लगता है कि इसी किताब में हम अपनी कहानी लिखने वाले हैं। किताब के नायक शेखर के अनुभव 90 के दशक में पैदा होने वाले लोगों के जीवन के अनुभव हैं। खुद पर बीते हुए या फिर दूसरों से सुने हुए। हालांकि शेखर का एक अनुभव बिल्कुल जुदा है। समसामयिक ‘महान कवियों-लेखकों’ और ‘आलोचकों’ पर जो वो तंज करता है, वो बहुत कुछ बता जाता है लोगों के बारे में। यहां पता चलता है कि शेखर बेहद शरारती भी है।
किताब के आखिर में शेखर बाणभट्ट का कहा दोहराता है, 'अगर कौतूहल है तुम लोगों को सुनने का, तो सुनो।' ये कौतूहल किताब की पहली लाइन से ही पैदा हो जाता है। शुरुआत है, 'आजकल क्या कर रहे हो, शेखर?' ये इक्कीसवीं सदी का सबसे विकट प्रश्न है। इसका जवाब किसी के पास नहीं है। शेखर कालिदास की तरह ‘मेघदूत’ लिखना चाहता था पर जमाना उस लायक नहीं रहा। अभिव्यक्ति में व्यक्तिगत होना शेखर बुरा नहीं मानता पर डिस्क्लेमर जरूर देता है कि मृत या जीवित व्यक्ति से लिखे हुए का कोई संबंध नहीं है। शेखर कहानी की शुरुआत व्यक्तिगत जीवन से करता है और अंत में ये मानता है कि अकेलेपन के बारे में जो वो जानता है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण है जो वो सामूहिकता के बारे में जानता है। शेखर ने जिंदगी बहुत ज्यादा देख ली है। शेखर ‘बहुत ज्यादा’ के इस्तेमाल पर आपत्ति भी जताता है। निराला को उद्धृत करता है कि जीवन और साहित्य दोनों में इंसान को एक जैसा होना चाहिए। जब से साहित्य का उद्भव हुआ है, तब से ही ये प्रश्न चला आ रहा है कि होना चाहिए कि नहीं होना चाहिए। इस प्रश्न को यक्ष ने भी इग्नोर किया था। हातिम ताई से भी किसी ने नहीं पूछा था। गांधी ने जरूर हामी भरी थी। शेखर गांधी से प्रभावित है। वो पोरबंदर में गोली खाकर मरना चाहता है।
उपन्यास वक्त को मात देता रहता है। शेखर अपनी कहानी बताते हुए कभी 1983 में पहुंच जाता है, कभी 2010 में तो फिर कभी 1992 में। ये कुछ-कुछ भारतीय मिथकों की तरह है, जिनमें ये माना जाता है कि चारों युग एक समय पर एक साथ ही विद्यमान हैं। सब कुछ एक साथ घटित हो रहा है। मां-बाप, दादा-परदादा, पोता-पोती सब एक साथ अपनी-अपनी जिंदगी जी रहे हैं। कुछ खत्म नहीं हुआ है।
शेखर का मानना है कि ईश्वर को ना मानना एक अवगुण है। उसे उन सारे विचारों से घृणा है जो उससे उसका ईश्वर छीनते हैं। फिर एक जगह मांओं का जिक्र करते हुए शेखर कहता है- उसे एक बंदूक की जरूरत होगी ईश्वर को खत्म करने के लिए। शेखर के पिता की हत्या तब हुई थी, जब वो बहुत छोटा था। मां तब गुजरीं जब वो नौ साल का था।
शेखर एक जगह पूछता है, 'क्या अमिताभ बच्चन बनने से भी ज्यादा असम्भव था कुछ?' फिर एक दूसरी जगह कहता है, 'महानायक कितने हास्यास्पद, जिनके बनने की शुरुआत जंजीर से होती है।' एक और जगह शेखर पूछता है, 'क्या क्रिकेट सम्राट से अच्छी पत्रिका भी थी?' पर बाद में लिखता है कि क्रिकेट इसलिए नहीं पसंद क्योंकि उसमें बाउंड्री होती है। ये भी कहता है कि बलात्कार के बारे में इतनी खबरें पढ़ी और देखी हैं कि लगता है कि होने वाले हर बलात्कार में उसका भी कुछ हाथ है।
किताब की भाषा बेहद खूबसूरत है। वाक्य बहुत अच्छे हैं। वक्त के साथ किताब के कई वाक्य हमेशा उद्धृत किये जायेंगे। उपभोक्तावाद के दौर में ये वाक्य ‘वन-लाइनर्स’ की तरह इस्तेमाल किये जायेंगे। चाणक्य और बच्चन के नाम जैसे सब कुछ लगा दिया जाता है, शेखर को भी इस स्थिति से दो-चार होना पड़ सकता है। शेखर के समय के पैदा हुए लोग बहुत आसानी से किताब से खुद को जोड़ सकते हैं। मुझे किताब में इस्तेमाल हुआ एक शब्द बहुत रोचक लगा। शेखर ‘वे’ का इस्तेमाल भी करता है। वह और वो में भाषाविद् जूझते हैं। कई लोग ऐसा मानते हैं कि वे कुछ होता ही नहीं है। मेरे कॉलेज में एक दोस्त वे का खूब इस्तेमाल करता था। लोगों ने उसका नाम ‘वे सर’ रख दिया था।
कानपुर का बहुत ही रोचक जिक्र है किताब में। शेखर वहां 14 साल रहा था, राम के 14 सालों की तरह। राम ने डायरी नहीं लिखी पर शेखर ने जरूर लिखी। बदनाम डायरी। शेखर कानपुर के बारे में बताते हुए कहता है, ‘ये बम किस पर फटेंगे’ कहकर दोपहर में पीपीएन कॉलेज की छात्राओं को उनके घर तक छोड़ने वाले भी कानपुर के ही थे। बॉबी देओल को स्टार बनाने वाले भी कानपुर के ही थे। नकली दाढ़ी मूंछ लगाकर कारसेवा में जाने वाले भी कानपुर के ही थे। कानपुर में बहुत कुछ सीखा है शेखर ने। हालांकि शेखर अगर नहीं बताता तब भी पता चल जाता कि वो कानपुर में रहा है। एक अलग जगह जहां वो किसी और चीज की बात कर रहा है, अपने आप उसके कहे में आ जाता है, 'गन्धाती तड़प।' गन्धाती कहते ही पता चल जाता है कि लेखक कानपुर रहकर आया है। शेखर को ‘सिर्फ तुम’ की प्रिया गिल भी याद है। भूल नहीं पाया है क्योंकि वो बस शेखर को ही चाहती है। शेखर ने हॉलीवुड की फिल्में देखी होंगी। टर्मिनेटर जैसी। वो हॉलीवुड फिल्मों की तरह पृथ्वी को बचाने के बारे में सोचता है।
शेखर विष्णु खरे और असद जैदी की बातें करता है पर किसी अनजान लेखक के बारे में बात करते हुए नामवर सरगना की बातें करता है। छोड़ता नहीं किसी को पर नाम भी नहीं बताता। अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो टाइप की बातें करता है। यहां वो युधिष्ठिर बन जाता है पर पाठक को कृष्ण बना देता है। सबको अपने-अपने पात्र खोज लेंगे क्योंकि सब ऐसे लोगों से रूबरू होते रहते हैं।
अपना वक्तव्य शेखर 2021 से पहले ही समाप्त कर देता है। फिर 2021 से 2027 के बीच वो अपनी इच्छाओं के बारे में बात करता है।
किताब में कुछ रोचक और गहरी लाइनें इस प्रकार हैं-
दु:ख तो इतना नजदीक से देखा गया है कि वो दूर चला गया है।
वक्त पुष्पा को पुष्पा की मां जैसा बना देता है।
एक रोज सब कुछ के बारे में सिर्फ इतना सच होगा- था।
भय शेखर को नहीं सताता है। भय उसमें आबाद है।
बेहद अच्छी लिखी हुई किताब है। कहीं से भी पढ़ना शुरू किया जा सकता है। बस शुरुआत के कुछ पन्ने, शेखर के बचपन की चीजें, पढ़नी जरूरी हैं ताकि शेखर के मनोभाव समझ आ जायें। शेखर सॉफ्टवेयर क्रांति से अनजान रहा है। पैसे के पीछे नहीं भागा है या यूं कहें कि भागा भी है तो बहुत बुरा धावक है। दौड़ते-दौड़ते रेस ही बदल देता है, दूसरी दौड़ में शामिल हो जाता है।
अगर हिंदी साहित्य में कुछ अच्छा पढ़ना है तो ये किताब जरूर पढ़ें। मात्र 199 रुपये की है। पढ़ने और गुनने लायक है।
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