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समीक्षा - उपन्यास डार्क हॉर्स

‘डार्क हार्स’ लेखक नीलोत्पल मृणाल का पहला उपन्यास तो है ही, साथ ही इसके प्रकाशक ‘शब्दारंभ प्रकाशन’ की भी पहली किताब है। जिस तरह से इस उपन्यास के लोकार्पण के महज सप्ताह भर के भीतर ही पहले संस्करण की सारी प्रतियां पाठकों के पास पहुंच गईं और दूसरे संस्करण के लिए प्रीबुकिंग जारी है, इस ऐतबार से उम्मीद है कि यह उपन्यास हिंदी साहित्य में बेस्ट सेलर’ हो सकता है। हालांकि, प्रूफ की गलतियों को लेकर प्रकाशक को सोचना होगा, जो खाने में कंकर की तरह कहीं-कहीं चुभती हैं, लेकिन वहीं यह भी सत्य है कि किसी प्रकाशक के लिए प्रूफ की गलतियों को सुधारना एक अनवरत यज्ञ की तरह होता है, जो हमेशा जारी ही रहता है।
समीक्षा - उपन्यास डार्क हॉर्स

 

 

जेतना दिन में लोग एमए - पीएचडी करेगा, हौंक के पढ़ दिया तो ओतना दिन में तो आईएसे बन जाएगा।’ नीलोत्पल मृणाल के पहले उपन्यास ‘डार्क हार्स’ के मुख्य किरदार का यह कथन उन सभी छात्रों की संवेदना को व्यक्त करता है, जो स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद गांवों से निकलकर सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए सुदूर शहरों की ओर जाते हैं। और इस ठसक के साथ वे एक जद्दोजहद भरी जिंदगी में कदम रखते हैं कि अब अगर बोरिया-बिस्तर उठा तो उनके नन्हे हाथों में एक कुशल प्रशासक बनने का प्रमाणपत्र होगा तथा उनके छोटे कंधों पर शिद्दत से आस लगाए मां-बाप की आंखों में पल रहे कुछ खूबसूरत ख्वाबों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी होगी। यह ठसक यहीं नहीं रुकती, बल्कि और भी आगे बढ़ती है और घर-परिवार, रिश्ते-नाते, गांव-जवार, जनपद-क्षेत्र आदि को शानो-शौकत से नवाजती हुई अगली कई पीढ़ियों को तारने तक पहुंचती है। इस ऐतबार से ‘‘डार्क हॉर्स’ महज एक उपन्यास भर नहीं है, बल्कि छात्र जीवन की अनगिनत अनकही कहानियों का ऐसा दस्तावेज है, जो यथार्थ के धरातल पर एक तरफ सफलता के आस्वाद को चिन्हित करता हुआ एक अदद नौकरी के लिए सिविल सर्विस को ही पैमाना मानता है, तो वहीं दूसरी तरफ बीए-एमए-पीएचडी की डिग्रियां हासिल करने के बाद भी उसी एक अदद नौकरी के न मिलने पर हमारी शिक्षा व्यवस्था पर कई सवाल भी खड़े करता है।

‘डार्क हॉर्स’ का मुख्य किरदार संतोष बिहार के भागलपुर से सिविल सर्विस की तैयारी के लिए दिल्ली आता है। उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों से सिविल सर्विस की तैयारी करने के लिए लड़के या तो इलाहाबाद का रुख करते हैं या तो दिल्ली का। खास तौर से हिंदी माध्यम से तैयारी करने वाले लड़कों के लिए ये दो जगहें ही मख्सूस मानी जाती हैं। जो थोड़े कमजोर घर से होते हैं, वे इलाहाबाद रह कर तैयारी करते हैं, और जो थोड़े साधन-संपन्न होते हैं, वे दिल्ली के मुखर्जी नगर में अपना आशियाना बनाते हैं। साथ ही यह भी कि मुखर्जी नगर में एक इलाहाबाद हमेशा मौजूद रहता है। बहरहाल !

इस उपन्यास को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि नीलोत्पल ने हमें मुखर्जी नगर की एक इमारत की सबसे ऊपरी मंजिल की खिड़की पर बिठा दिया है, जहां से हम इसके सारे किरदारों को आते-जाते, उठते-बैठते, पढ़ते-लिखते, खाते-पीते देख रहे होते हैं। सबकी जुबान पर पुरबिया बोली ऐसा माहौल पैदा करती है कि मानो बत्रा के पास पूरा का पूरा पुरबिस्तान इकट्ठा हो गया हो। यह भी नजर आता है कि बरसों से वैष्णव परंपरा का निबाह करते चले आ रहे छात्र दिल्ली में कदम रखते ही कैसे समझौतावादी हो जाते हैं और ‘गुरूत्व’ और ‘चेलत्व’ के भावों में उतरकर फौरन ही सोचने लगते हैं कि अब तो आईएएस की पोस्ट जरा दूर नहीं। चाय पर चकल्लस के दौरान हुई किसी से एक छोटी सी गलती भी कैसे इतिहास की बड़ी से बड़ी गलती साबित हो जाती है। इसी गलती को जो पकड़ के अच्छी तरह से समझ लेता है, उसके लिए परिणाम के दिन जश्नऔर जो नहीं समझ पाता हैउसके लिए मातम। इसी जश्न और मातम के पहले की संघर्षपूर्ण मगर सच्ची तस्वीर को ‘डार्क हार्स’ में पेश किया है नीलोत्पल ने। जिसमें संघर्ष सिर्फ एक परीक्षा की तैयारी को लेकर नहीं है, बल्कि गांव-शहर की संस्कृतियों का भी संघर्ष है, खान-पान और रहन-सहन से लेकर भाषाई सुचिता और भदेसपन का भी संघर्ष है, बौद्धिकता और सहजता का संघर्ष है, गंवई बाप और शहर से समझौतावादी हो चला उसके पुत्र के बीच का संवाद संघर्ष है, सफलता और असफलता का संघर्ष है, कोचिंग क्लास में अपनी पहली प्रेमिका या प्रेमी खोजने का संघर्ष है, भारी-भरकम सिलेबस के बीच कहीं कोई मस्ती का कोना ढूंढने का संघर्ष है, मर्यादाएं-परंपराएं बनाए रखने या झट से तोड़ देने का संघर्ष है। खुद के मिजाज और व्यवस्था के लिजलिजेपन का संघर्ष है। ये सारे संघर्ष मिलकर एक आत्मकथा तैयार करते हैं, मुखर्जी नगर या हिंदुस्तान के किसी भी कोने में सिविल या दूसरी किसी भी परीक्षा की तैयारी करने वाले लड़के-लड़कियों की आत्मकथा, मगर एक विशेष देश-काल के दौरान ही घटित हुई आत्मकथा, जिसमें जीवन का एक खास हिस्सा हमारे सामने हो। नीलोत्पल खुद भी सिविल की तैयारी करते हैं, इस ऐतबार से यह उनकी भी आत्मकथा है।

इस उपन्यास की सबसे खास बात यह है कि लेखक ने अपने किरदारों की जुबान नहीं काटी है। किरदारों ने जब चाहा, जो चाहा बोल दिया, जैसी गाली देनी चाही, दी। लेखक ने ठीक वैसे ही उसे लिख दिया। इसलिए वे शब्द, शिल्प, बिंब आदि के साहित्यक पैमानों से बरी हो जाते हैं। किरदारों के साथ ऐसा इंसाफ यथार्थ लेखन में ही संभव है। वैसे भी नीलोत्पल खुद भी यह दावा करते हैं कि उन्होंने इस उपन्यास के रूप में कोई साहित्य नहीं रचा है, बल्कि उन्होंने जो देखा है, उसे ही अक्षरों, शब्दों और वाक्यों में पिरोकर एक कहानी कह डाली है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए, किरदारों के मुंह से ‘गंवई गालियों’ को सुनते हुए ऐसा नजर भी आया है, जिससे यह कहा जा सकता है कि वह अपने दावे पर खरे उतरे हैं। लेकिन, यहीं से उम्मीदें भी पनपती हैं, जो नीलोत्पल से मांग करती हैं कि आने वाले दिनों में वह भाषाई शुचिता के पहरेदारों को नाक-भौंह सिकोड़ने नहीं देंगे। अब वह एक लेखक हैं और एक लेखक के रूप में उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। हो सकता है कि उन्हें कोई अच्छा किरदार खोज रहा हो, जो गाली न देता हो, मगर उतना ही सशक्त हो, जितना कि इस ‘डार्क हार्स’ के किरदार हैं। खैर, यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन नीलोत्पल ने इस उपन्यास से यह साबित कर दिया है कि उनमें लेखन की यह एक नई हुमक है। इस हुमक को बरकरार रख पाने की नीलोत्पल ने थोड़ी सी भी गुंजाइश दिखाई तो समझ लें कि कल उनके लिए यह दावा जरूर होने लगेगा कि वह सिर्फ देखी-सुनी बातों को ज्यों का त्यों  नहीं लिखते, बल्कि उनमें अच्छे साहित्य सृजन के लिए गहरी संवेदनाएं भी हैं, जो उनकी कल्पनाशीलता को एक नया आयाम दे सकती हैं।

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