जो स्कूल 'कंट्री विदाउट वीमेन' सरीखा था वहाँ यह जलजला उसी वर्ष आया था कि उस साल एक ही कक्षा में कुल जमा आधा दर्जन लड़कियाँ पढ़ने आ गयी। जेठ में सावन जैसा मौसम हुआ और उन छात्रों में अधिक उत्साह देखा गया, जो स्कूल के हर प्रकार के अकादमिक, एक्स्ट्रा करिकुलर गतिविधियों में भी बैक बेंचर ही थे। इन्हीं में एक वह था - अशोक।
जहाँ तक मेरी याददाश्त पहुँचती है, उसमें अशोक भी तीन थे। उन्हीं में से यह तीसरा था। यदि मुझे रंगभेद का समर्थक, नस्ली टिप्पणीकार आदि न समझा जाए तो सच कहता हूँ, साँवले लड़के भी उसको अन्हरिया ही कहा करते थे और वह कहता 'रे तुम सबको का पता है कृष्ण जी हमसे भी अधिक गाढ़ा रंग के थे।' वह कभी रंग भी बदलता। धूप तपती तो ताम्बई चमक के साथ प्रकट होता, बरसात में उसके तेल लगे बालों से पानी चूता तो लगता धान का लेवाय साक्षात सामने है सर्दियाँ होतीं तो उसका रंग थोड़ा और गाढ़ा हो जाता लेकिन उस मौसम में उसके चेहरे और बफदर भी आ जाता था। कुल मिलाकर उसका बाहरी व्यक्तित्व औसत से बहुत नीचे और साधारण से दो दर्जा नीचे था। तिस पर उसकी मूछें आठवीं में ही आनी शुरू हो गयी थी।
वह अक्सर दोपहर बाद स्कूल की पहली मंजिल पर बैठी लड़कियों को (सच कहें तो एक खास को ही) इम्प्रेस करने के लिए स्कूल ग्राउंड में गुलाटियां मार-मारकर अपने नानाविध करतब दिखाया करता। वह ऊपर से नीचे देख रही (पक्के तौर पर नहीं) लड़की को अपने करतबों द्वारा प्रभावित करना चाहता था और क्लास में सभी शिक्षकों द्वारा बुड़बक सिद्ध किये जाने को भी मिटा देना चाहता था।
मुझे लगता है उन दिनों में ऐसी कई जिमनास्टिक वाली प्रतिभाएं सरकारी संरक्षण न मिलने से या लक्ष्य भटक जाने से ओलंपिक में जाने से चूक गईं थी। एक और बात थी रंग-रूप में किंचित साम्यता देखते हुए वह खुद को स्कूल का अजय देवगन समझता, वैसे ही चलता वैसे ही गर्दन टेढ़ी किये रहता और सामान्य आँखों की जबरिया नशीली बनाने की भरपूर कोशिश भी करता।
मामला 'दिव्य शक्ति', 'एक ही रास्ता' से आगे के था और उसकी नजर में लड़की रवीना टण्डन की झाँकी लिए हुए लग रही थी। वैसे भी इस उम्र में नायकों को सामान्य लड़कियाँ भी विशिष्ट दिखती हैं पर वह खास लड़की विशिष्टता लिए हुए थी, इसमें शक नहीं। अलबत्ता फ़िल्मों में रवीना इस गुलाटी करतब और मदारीपने से भले मुग्धा नायिका बन जाती हो, पर जिले की लड़कियों का वास्तविक जीवन इससे कोसों दूर था। सब तिकड़म फेल सारी कारीगरी असफल।
अशोक का जी तो चाहता था भरी बज़्म में जाकर कह दें कि 'मौका मिलेगा तो हम बता देंगे तुझे कितना प्यार करते हैं सनम' - पर लड़की के तरफ से कोई हिंट मिलता न देख, उसने लड़की की आवाजाही की जगहों की समय-सारणी मेहनत से बनानी और उस पर अमल करना शुरू किया ताकि और कुछ नहीं तो कम से कम उसकी कंसिस्टेंसी से ही प्रभावित होकर लड़की एक दफा दम भर देख के, कम से कम मुस्कुरा भर दे। अंधा क्या चाहे दो आँखें। आखिर मन की इच्छा तो वही थी कि वह देखे, मुस्कुराये और उस दौर के नायकों ने यही ट्रिक सिखाई थी। अगर वह किसी कम्पनी में इतना डेडिकेशन दिखाता तो कंपनी का मालिक उसके नाम कंपनी लिख देता पर अफसोस हर प्रयास मुँह के बल गिर रहा था। पर उसका आत्मविश्वास अद्भुत किस्म से ताड़ के पेड़ वाली ऊंचाई लिए हुए था - 'पागल तुझे मैं कर दूँगा, इक दिन प्यार में, इक दिन प्यार में'- पर मजाल की लड़की ने पलट कर किसी भी मौसम में कभी ये इशारा भी दिया हो कि 'बरसात का बहाना अच्छा है।
बरसात वह भी गोपालगंज की! उफ्फ क्या कहने! शहर में हुई तो कीचड़ से बचें या नालियों से, गाँव की ओर हुई तो ठनका गिरने से बचे कि जलजमाव से - लड़की के तरफ से जैसी उदासीनता और अनदेखापन था, उसमें इश्क तो इस मौसम में क्या किसी भी मौसम में परवान नहीं चढ़ पाता। लेकिन कहते है न, आशिकों में भी गजब का धैर्य होता है चाहे जो हो जाए, प्रयासों में कमी उनके पास भी नहीं फटकती। मन और प्रयास दोनों कहते - 'आखिर तुम्हें आना है जरा देर लगेगी।'- स्कूल के शाही सर से लेकर महतो सर और ट्यूशन वाले शिवजी मिसिर से लेकर मोंछु बीरेंदर सर सबके यहाँ उसे उस बैच में एंट्री न मिली, जहाँ वह लड़की पढ़ती थी। ट्यूशन सेंटर्स अधिकतर उन्हीं टीचर्स के थे जो स्कूल में पढ़ाते थे। वह सब इसकी आदतों से वाकिफ थे। उन्होंने इसको दूसरे बैच में लेने का ऑफर दिया पर ये वो मंजिल तो नहीं थी। इसी बीच उसके कोशिशों की असफल छमाही-नमाही सब बीती।
अब उसकी कोशिशों ने नया प्लान बनाया। उसकी समय सारणी के हिसाब से लड़की शिवजी मिसिर सर के यहाँ सुबह छह बजे गणित की ट्यूशन लेने आती थी। उसने सोचा अब आर-पार न किया तो दूसरे जो लाइन में शरीफ बन लगे हुए हैं, कहीं वह बाजी न मार ले जाएं। असल बात यह तय हुई कि उसको डाइरेक्ट कहा जाए। लड़का कोई शाहरुख नहीं था जो क-क-क-क किरण! कहकर डरा देता। ना!ना! वह इतना बदतमीज नहीं था, वह तो अपनी रवीना को कंसिस्टेंसी से प्रभावित करने में लगा था पर अफसोस तमाम कोशिशों के बावजूद वह अजय देवगन, सलमान के बजाय चंद्रचूड़ सिंह हुआ जा रहा था।
जनवरी उठान पर था। हमारे यहाँ कुंहासा खूब पड़ता है और जनवरी का कुंहासा तो पूछिए मत, दृश्यता इतनी कम कि आदमी से आदमी टकरा जाए। इसी मौसम में अब बेसब्र अशोक ने लड़की को पत्र भेजने की सोची। उसने आनंद भूषण से वह पत्र लिखवाया। आनंद चेहरे से सबसे शरीफ लड़को में से था। उसने के. चौधरी रेस्त्रां का फुल प्लेट चाट, एक स्पंज रसगुल्ला और मेवाड़ आइसक्रीम के एक स्कूप के मेहनताने पर एक गुलाबी पन्ने पर हाल-ए-दिल उर्फ दीवाने अशोक का बयान लिखा। कई बार चेहरे की मासूमियत ऐसे मामलों में ईर्ष्या भी ओढ़ती हैं। उन और दर्जन भर कोशिशों में एक एकरतरफ़ा असफल कोशिश आनंद की भी रही थी। पर उसके पास अशोक वाली न हिम्मत थी न ही कंसिस्टेंसी। इसी ईर्ष्या में उसने अपने रकीब का मजमून उस चिट्ठी में दर्ज किया - "आपको जबसे देखा है, दिल को कोई सूरत पसंद नहीं आता। आप एक बार हाँ कह दें जिंदगी सवारथ हो जाए, हम तर जाएं। मैं सच्चे मन से कह रहा हूँ, मैं एक अच्छा लड़का हूँ। थावे माई की कसम कहता हूँ। आप मुझे बहुत अच्छी लगती है कसम से, आपको दिल में देवी की तरह रखता हूँ।" - यह सब निबन्ध लिख सकने के बाद उसके मन का इकतरफा वाला जाग गया जिसमें ईर्ष्या की छौंक थी। आगे उसने लिखा दिया "माना आज नजर में तेरी प्यार मेरा बेगाना है, मुझे कसम है प्यार की तेरे दिल में प्यार जगाना है, क्या मैं सनम तेरा यार नहीं, एक बार कह दे मुझे प्यार नहीं।''- अशोक ने पढ़ा सब तो ठीक था और ये अंतिम की शायरी उसको समझ नहीं आई। आती भी कैसे वह जान तेरे नाम फ़िल्म के एक मशहूर गीत का अंतरा था। उसने पूछा - ''आनंद भाई! किसी से कहना मत बाकि लास्टवा में जो शयरिया लिखे हो थोड़ा अजीब लग रहा है।''- आनंद ने हड़का दिया - "कभी लभ लेटर लिखे हो बे? समझ में आता नहीं है और चल दिए सवाल जवाब करने। लाओ काट देते हैं।"- आशिक इस अटैक से निरुत्तर हो गया। उसने चुपचाप पत्र ले लिया। उसने धीरे से पूछा - " और कुछ नहीं न लिखना है ?"- आनंद ने उपेक्षा के भाव से कहा - उपरवा लिख देना डियर आ लड़की का नाम और नीचे में केवल तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा फिर अपना नाम।" - अशोक आज्ञाकारी भाव से हाँ कहकर चला गया। मन मयूर हो चला था।
अब अगला प्लान था - चिट्ठी की डिलीवरी। मन कह रहा था-बस ये चिट्ठी गयी नहीं कि लड़की कितने दिनों के बाद मिले हो, पूछ रहा है ये मौसम मोड में आ जायेगी। इतना सोचते ही लड़का मन में ही इतरा के झूम गया। उसने विद्या प्रसाद जी के दुकान से रोटोमैक पेन लिया और लहरिया काट राइटिंग में अंग्रेजी में लिखा - DIYAR **** (उसकी अंग्रेजी तेरह बाईस जो थी) फिर लड़की का नाम और अंत में धड़कते हुए दिल से वहीं लिखा तुम्हारा सिर्फ तुम्हारा असोक (हिंदी भी वैसी ही थी)। सब लिखते करते भी मन में धुकधुकी थी 'एक बात मैं अपने दिल में लिए जाने कब से फिरता हूँ'।
समय सारणी के हिसाब से लड़की समय से पंद्रह मिनट बिफोर आती थी। शिवजी मिसिर के कोचिंग में जाने से पहले दाहिनी ओर एक बड़ी दीवार थी।।उस दीवार की दूसरी तरफ से आने वाले लोग दिखाई नहीं देते थे। सायकिल वाले घंटी बजाते निकलते ताकि उस अंधे मोड़ में कोई टकराहट न हो जाए। लड़की के आने का समय हुआ। अशोक मन मजबूत करके आगे बढ़ा। तभी उस कॉर्नर से कुंहासे में एक और परछाई लड़की से आगे चलती दिखी। सो, हाथ की चिट्ठी जिसे लड़की के सामने गिर जाना था। हड़बड़ाहट में उस चिट्ठी की डिलीवरी गलत पते पर हो गयी। यानी अशोक का 'फर्स्ट लव लेटर' उसके हाथों से छूट लड़की के पिता के पैरों पर जा गिरा। उस रोज लड़की के साथ उसके पिता भी थे, जो कुछ दिनों से सुबह वाले ट्यूशन में साथ पहुंचाने आते थे। समय सारणी में बीते दिनों में यह नई इंट्री थी और बेचारा अशोक चिट्ठी लिखने लिखाने के फिराक में इस ओर ध्यान नहीं दे पाया था। समय सारणी का अपडेट न होना दुर्घटना को आमंत्रण देता है। भागते अशोक की पीठ पर
लड़की के बाप ने चप्पल चलाई पर किस्मत ठीक थी, चप्पल उस तक नहीं पहुँची।
उस चिट्ठी का असर इतना भयावह होने वाला था उसकी आशंका अशोक को भी नहीं थी। उसके कंसिस्टेंसी से शिवजी मिसिर भी थोड़ा वाकिफ थे तो उन्होंने सारी डिटेल लडक़ी के पिता को दे दी। अगले दिन लड़की के पिता सदल-बल अशोक के घर पर धमक गए थे और बेटे की कारस्तानी सुन-देख, अशोक के बाबूजी ने घर में से मच्छरदानी का बात्ता लेकर सबके सामने उसको तबियत से फीच दिया। बेचारे अशोक का इश्क फट के धतूरा हो गया था।
शायद नब्बे के आशिकों के गंजहा (गोपालगंज वालों के) इतिहास में वह अकेला ऐसा किरदार था, जो तड़ीपार हुआ था। उसे अपनी बुआ के यहाँ भोरे भेजा दिया गया। भोरे जिला मुख्यालय से लगभग चालीस किलोमीटर दूर था। अशोक का दाखिला वहाँ हुआ और वह वही से गाँधी स्मारक हाई स्कूल में पढ़कर मैट्रिक में फेल हुआ।
उदित, शानू के तमाम रोमांटिक गीत अशोक के काम न आए। उफ्फ कितना टूट कर जिया था इनको। अब अताउल्लाह खान और अल्ताफ ही जीवन के असल दोस्त बच गए थे। सोचा कह देंगे तुम आज तो 'पत्थर बरसा लो कल रोओगे मुझ पागल के लिए' पर पत्थर तो बरसे लेकिन कोई पगली न रोइ उसके लिए और इन सालों में जो पढ़ाई का नुकसान हुआ था उसके लिए उसमें अब अपने रकीबों से उलझने का न तो हौसला था न ही उत्साह। मैट्रिक फेल को सऊदी अरब ने बाद के सालों में अपने यहाँ शरण दी थी। फिर वह दिन है और आज का दिन, पिछले दिनों जब आनंद ने पूछा का ''रे, भोरे में कोई मिली कि नहीं यया वहाँ भी ऐसे ही कट गया।"- अशोक बाबू ने हँसकर कहा- "भाई उमर थी, हम तो तभी कसम खाए कि फिर सियार ताड़ के नजदीक न जाएंगे।" उस दौर में कितने अशोक, आनंद जैसे गुलशन ग्रोवरों की ईर्ष्या का शिकार हुए गिनती नहीं और लड़की का क्या? अजी छोड़िए निन्यानवे मामलों में तो लड़कियों को अपने पीछे उठते-बुझते ऐसे बरसाती बुलबुलों का पता कहाँ होता था। हो भी तो इतनी लिबर्टी किसको मिली है अब भी! फिर वह तो नब्बे वाला दौर था।
( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)