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कहानी - केसर कस्तूरी

यह बात ठीक थी कि विशम्भर प्रसाद ने शराब से तौबा कर ली थी, लेकिन उसका एक-एक जानने वाला तो इस बात से परिचित था नहीं। अक्सर देर रात को विशम्भर प्रसाद के किसी न किसी जानने वाले का फोन, तो कभी दरवाजा भड़ाभड़ बजने लगता।
कहानी - केसर कस्तूरी

शराब पीने के लिये यूं तो लंबी-लंबी भी कम है, लेकिन विशम्भर प्रसाद को न जाने एक दिन क्या सूझी, पचासवां बसंत पार करते ही उसने ठान लिया कि, भई बहोत हुई। अब बस। अब और नहीं पियूंगा मैं। पीते-पीते ही जीवन का अर्धशतक पूरा कर लिया मैंने। अब और नहीं, बस्स।”

कोई हारी-बीमारी नहीं, किसी से कोई वादा-तगाफुल नहीं, कोई मनाही-परहेजी भी सामने नहीं आई, और तो और पैसे-कौड़ी की भी कोई दिक्कत पेश नहीं आई थी, बाप-दादा अकूत दौलत, घर-खानदान के एकलौते चिराग विशम्भर प्रसाद के लिए छोड़ कर इस फानी दुनिया से रुखसत हुए थे। लेकिन फिर भी विशम्भर प्रसाद ने एक दिन तय कर लिया तो बस कर लिया।

हालांकि इसी विशम्भर प्रसाद का एक जमाना यह भी गुज़रा था, कि शाम होते ही बोतल खुलनी ही खुलनी है, भले ही बीवी-बच्चों से मेल-मुलाकात हो न हो। खाना मिले न मिले। नौकर-चाकर हों या छुट्टी पर गए हों, कोई फर्क नहीं पड़ता था। वैसे भी उसे खाने की कोई खास सुध नहीं रहती थी। हरेक चीज से कहीं ज्यादा विशम्भर प्रसाद के लिए एक समय सिर्फ पीना हुआ करता था। सुबह से दोपहर, दोपहर से संझा और संझा से देर रात तक भी विशम्भर प्रसाद जम के और शराब में रम के पीता आया था। पीने-पिलाने का हर एक दौर विशम्भर प्रसाद की इन्हीं आंखों ने देखा भी था, और अपने हर यार को दिखाया भी था। दारू के रंगीन दौर खुद उसके और उसकी सोहबत के हर इन्सान के लिए अनोखे नहीं थे। वह तो यारों-दोस्तों के बीच पक्का जाना-माना पियक्कड़ हुआ करता था। विशम्भर प्रसाद पूरी दुनिया घूमे बैठा था, दुनिया भर में दोस्ती जमा रखी थी, ठीक वैसे ही जैसे पूरी दुनिया में शराब के दौर पर दौर चलते देखता रहा था. आज इस शहर की महफ़िल, तो कल उस कूचे का फेरा। आज इस यार के यहां का जश्न तो कल न जाने किस-किस संगी के यहां, कहां की अड्डेबाज़ी। कोई नियत वक्त नहीं था, कोई तयशुदा अड्डा नहीं था, कोई एक पक्का साथी भी नहीं था पीने-पिलाने का। पीना होता तो कभी भी कहीं भी चार दोस्त इकठ्ठे किए और महफिल जमा ली। लेकिन अब जब विशम्भर प्रसाद न पीने पर जिदिया ही गया था, तो कोई माई का लाल उसे शराब पिला भी नहीं सकता था, ये भी एक तयशुदा बात थी।

यह बात ठीक थी कि विशम्भर प्रसाद ने शराब से तौबा कर ली थी, लेकिन उसका एक-एक जानने वाला तो इस बात से परिचित था नहीं। अक्सर देर रात को विशम्भर प्रसाद के किसी न  किसी जानने वाले का फोन, तो कभी दरवाजा भड़ाभड़ बजने लगता।

कभी विशम्भर प्रसाद के दारूबाज दोस्त काशीनाथ सक्सेना, शहर से कहीं दूर बैठे मस्ती में दो जाम चढ़ा कर फोन करते, ‘भाई विशम्भर प्रसाद, बड़ी याद आ रही है तुम्हारी, चले आओ कोई दिन। मौसम बड़ा सुहाना हुआ है यहां।’

विशम्भर प्रसाद शुरू-शुरू में प्रेम से जवाब भी देते रहे, ‘काशी, अब हमें न बुलाओ मेरे दोस्त। अब शराब छोड़ दी है मैंने। अब वह सुहाना मौसम मेरे कुछ ख़ास काम का नहीं रहा।’

यूं ही एक दिन जानकी लाला की तरफ से फोन घनघनाया, ‘विशम्भर प्यारे, तुम कहां हो, दर्शन नहीं दिए कई दिनों से। मैं आ जाऊं तुम्हारे दुयारे। मिलकर बैठेंगे, कुछ तुम्हारी सुनेंगे, कुछ अपनी कहेंगे।’

विशम्भर प्रसाद जवाब देता, ‘आने को तो आ जाओ जानकी लाला, लेकिन पीने का चलन अब मेरी देहरी से उठ गया है। बाकी तुम्हारी मर्जी।’

जानकी लाला, काशीनाथ से बेहतर खिलाड़ी थे। आगे बोले, ‘अरे तुम्हारे कहने से चलन उठ गया है, अभी जानकी लाला के दिन पूरे नहीं हुए हैं। अभी यार तुम्हारा अच्छा-भला जिंदा है, तुम्हारी दुआ से। अरे देहरी क्या, पूरे घर-आंगन को महका देंगे मेरे दोस्त। तुम कहो तो कौन से दिन मुहूरत निकालूं, आता हूं फिर बात करता हूं। अरे विशम्भर प्रसाद, शराब है ये शराब, कोई लौंडिया थोड़े है, के जब जी चाहा, जब आत्मा तर हो गई तो पिंड छुड़ा लिया। जानकी लाला अगले इतवार तुम्हारी दहलीज पर खड़ा होगा, क़सम मुझे मेरी बोतल की, जो तुम्हें अपने हाथ से न पिला दी, तब कहियो विशम्भर प्रसाद तुम।’

विशम्भर प्रसाद का एक जिगरी दोस्त रमाकांत चंदेल भी था, जो बड़ा प्रयोगवादी था। किस चीज में क्या मिलाकर पी जाए, कहना मुश्किल था। अपने इस अजीबो गरीब प्रयोग को वह ‘कॉकटेल’ की संज्ञा दिया करता था, जो कि ‘एलीट-क्लास-कॉकटेल’ का उतना ही भद्दा प्रयोग निकलकर आता था, जितना ताजमहल की नकल कहे जाने वाले ‘चांदबीबी के मकबरे’ को इतिहासकार ‘महान फूहड़ निर्माण’ कहा करते हैं। रमाकांत चंदेल के इस फिजूल-प्रयोगवाद के चलते उनके हाथ हमेशा तंग और जेबें प्राय: खाली हुआ करतीं थीं। एक रात रोते-बिसूरते उसने भी अपने कुबेर-मित्र विशम्भर प्रसाद को फोन लगाया और सीधे मतलब की बात करने लगा। रमाकांत चंदेल ने रात दो बजे फोन करने की क्षमायाचना की सुध भी नहीं रही और न ही उसके दिल में रत्ती भर भी कोई अफसोस या ऐसा कोई अहसास जाहिर हो रहा था। उसने हिचकी ले लेकर जो बोलना शुरू किया तो उसे बीच में रोकना-टोकना ब्रह्मा के हाथ ही बचा था शायद। उसने अपने स्वरों के भीषण उतार-चढ़ाव के बीच अपनी कहानी शुरू कर दी। प्रारंभ में वह बहुत धीमा और मदिर था, ‘भाई बिसम्भर.. अब भला तुमसे भी छुपा है कुछ। एक बार फिर लाला से कर्जा लेना पड़ा। तुम तो जानते हो, मंहगाई के क्या हाल हैं, बेड़ा गर्क कर रखा है साली सरकार ने।’ फिर रमाकांत चंदेल के स्वर एकदम से तेज हो गए, ‘और वह साला बड़ा वित्त मंत्री बन कर आया था। हिंदोस्तान की वित्त-व्यवस्था सुधारने। सब हिजड़े हैं स्साले। कुछ करने लायक बचे नहीं हैं। ये क्या बजट बनाएंगे। अरे बजट बनाना कोई रमाकांत चंदेल से सीखे।’ फिर रमाकांत अपने स्वरों को मद्धिम करता गया। ‘कैसे बच्चों की फीस, अम्मा का इलाज, मकान का किराया, बीवी की रसोई चलाता हूं, मुझसे पूछो।’ सहसा उसका बात करने का अंदाज फिर तेज हो गया। ‘है किसी माई के लाल में इतना दम कि वह मुस्से पूछ सके। मैं बताता हूं तुमको, भाई बिसम्भर सुन रहे हो न, देख रहे हो न। सब तुम्हारे सामने हो रहा है, सब तुम्हारे सामने।’ आखिरकार वापस उसने धीमे अंदाज में अपने फोन करने का मंतव्य बताया, ‘भाई बिसम्भर कुछ मदद कर देते इस आड़े बख़त पर। कसम से बच्चों की दुआयें मिलतीं तुम्हें भाई। ठीक है तुमने पीना छोड़ दिया लेकिन यार तो अपने यार ही होते हैं, उनके वक्त जरूरत तो साथ दोगे ही न बिसम्भर भाई।’ और रमाकांत चंदेल के स्वर क्रमश: धीमे होते गए। वह आंसू बहाते, हाथ में फोन का रिसीवर पकड़े-पकड़े सदा की तरह सो गया।

विशम्भर प्रसाद समझा-समझा के रह जाता कि वाकई नहीं पीता वह। अब उसकी लाल-द्रव्य को हलक में ढनगाने की सारी लालसा जाती रही। लेकिन कोई भी एक जैसे, सुनने को तैयार नहीं था उसके दिल-जिगर के हाल, उसकी अंरात्मा की आवाज, उसके मन की बात।

एक दिन रफीक मियां बिना कोई खैर-खबर दिए, सीधा विशम्भर प्रसाद के दरवाज़े पर आ धमके। ‘अमां क्या सुन रहा हूं मैं। तुमने तौबा कर ली है। अरे सब खैरियत तो है? हमसे कहो कोई गिला हो, तकलीफ हो, कोई अनचाही आफत आ गई हो, जो कोई भी मसला हो तो कहो मियां। हम यारों के यार हैं, यूं मूं न फेरने देंगे तुम्हें। मियां विशम्भर प्रसाद, ऐतबार न हो तो आजमा के देख लो हमें जान निकल जाएगी, लेकिन मजाल है कि बात एक से दूसरे तक चली जाए। कहो विशम्भर भाई, मेरे यार हुआ क्या? हमें बताओ भाभी ने कसम दिलवा दी क्या या कोई बेवफाई हुई किसी ऐरी-गैरी से हमसे कहो मियां?’

विशम्भर प्रसाद का सफाई देने का भी सिलसिला रवां हो चला, ‘नहीं रफीक भाई, ऐसी कोई बात नहीं। विश्वास करो मेरा, कुछ नहीं हुआ, कोई आफत गले नहीं पड़ी। कोई परेशानी नहीं आई और फिर तुम्हारी भाभी को क्या कमी है जो वह मुझे रोकेगी। भगवान की दया से रुपये-पैसे की कोई किल्लत नहीं उसे, खुद भी बहोत रईस घर से है। क्या कपड़ा, क्या जेवर, क्या शौक-सिंगार, कुछ भी ऐसा नहीं जिसके नाते वह मुझे रोक-टोक सके। ऐसा कुछ भी नहीं हमारे घर और ऐरी-गैरी से भला मेरा क्या वास्ता, जो वफा-बेवफाई याद रखता फिरूं। भाई कोई भी वजह नहीं। बस अब दिल भर गया दारू से, बहोत पी ली भई। पचास बरस से पी रहा हूं, बिना एक दिन का भी नागा किए पिए जा रहा हूं। कितना और पियूं। अब अच्छी नहीं लगती, बस्स।’

बड़ी लानत-मलामत के बाद जाकर कहीं रफीक मियां का डोला खिसका। बद्री नारायण को भी एक दिन रात बारह बजे विशम्भर प्रसाद को कुरेदना याद आ गया, जाम पर जाम खाली करता गया और एक निश्चित गति और स्वर में विशम्भर प्रसाद को फोन लगाकर बोलता गया, ‘विशम्भर प्रसाद कैसे हो, बड़ी सुरीली कन्या से टकराया हूं, इसलिये तेरी याद हो आई मितवा रंगीन फिजा है, चले आओ इसी दम। बहुत दिन से तुम्हें देखा नहीं, किसी की बरही-छट्टी में मिले थे शायद आख़िरी बार, कहां गुम हो जी तुम।’

‘बद्री, मैं तुमसे बरही-छट्टी में नहीं, तुम्हारे ही बाप की तेरही में मिला था। ज्यादा समय गुजरा नहीं अभी। और तुम सुरीली कन्या के जाल में जा फंसे हो। शर्म आनी चाहिए दोस्त तुम्हें।’ बेशर्म बद्री सुनने के लिए फोन थोड़े ही किए था, वह तो बस बके जा रहा था, ‘शर्म काहे की मेरे प्यारे, कमाल है, कन्या से मिलने के लिए तुम्हीं मरे जाते थे, अब मैं मिला रहा हूं, तो शरम-लज्जा का सबक सिखा रहे हो। बाप-महतारी तो एक दिन सभी के बिछुड़ ही जाते हैं। तो क्या जीना छोड़ दूं। साथ आओ, बैठो तुम भी कुछ जी हल्का कर कुछ घड़ी तुम भी जी लो मेरे यार।’  एक बार रोते-कलपते अयोध्या तिवारी ने रात दो बजे अपने फोन से विशम्भर प्रसाद को जगा दिया, ‘विशम्भर प्रसाद, अब नहीं बचेगी यह डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। तुम मिल जाते तो कितना सुकून मिल जाता मुझे। तुम्हारे कंधे पर सिर रखकर दो आंसू बहा लेता तो जी हल्का हो जाता मेरा। अपनी भाभी के हाथों की जलेबियां अब नसीब नहीं होंगी तुम्हें।’  

और अयोध्या तिवारी की दहाड़ मार के रोने की आवाजों ने रात के सन्नाटे को ध्वस्त कर दिया.

अपनी उचटी हुई नींद के साथ विशम्भर प्रसाद, अयोध्या को ढाढस देता रहा और सुबकते-सुबकते नशे में धुत्त अयोध्या अपना फोन लिए-लिए रमाकांत चंदेल की तरह ही लुढ़क गया। विशम्भर प्रसाद को समझ नहीं आ रहा था कि वह करे तो क्या करे। उसने पीना क्या छोड़ दिया, लोगों ने उसका जीना हराम कर दिया है। बहुत सोच-विचार के उसने फोन का कनेक्शन कटवा दिया, लेकिन स्थितियां पहले से भी बदतर हो गई थीं। अब लोग-बाग जब-तब, वक्त-बेवक्त उसके घर आने लगे। अब तो किसी भी चाहे-अनचाहे के घर पर आ टपकने की ख़बरें भी फोन पर मिलना मुमकिन नही रह गया था। खाना खाते हुए अगली रोटी थाली में गिरने से पहले किसी दोस्त के आने की खबर मिलती, तो कभी गुसलखाने के भीतर प्रवेश करते ही उसका छोटा बेटा चीखकर फलां मित्र के आने की सूचना देता। देर रात बीवी की ओर करवट करते ही किसी नौकर की पुकार सुनता, ‘मालिक आपका कोई दोस्त दरवाजे पर दस्तक दे रहा है।’ तो कभी कारोबार के कागज जैसे ही मेज पर फैलाकर बारीकी से उन्हें देखने के लिए बैठता, कोई यार मय अपने साज-ओ-सामान बैठक में उसका इंतजार कर रहा है, इसका समाचार उसे दिया जाता। इन रात-दिन आनेवालों ने विशम्भर प्रसाद का खाना-पीना, सोना-जागना, हगना-मूतना, जीना-मरना सब दूभर कर दिया था। हर एक को पूरी तन्मयता से समझाना पड़ता कि उसने अपनी इच्छा से शराब छोड़ी है न कि किसी भी दबाव या परेशानी से।

विशम्भर प्रसाद परेशान होकर सोचता, ‘क्या मैं अखबार में इश्तिहार दे दूं कि मैंने पीना छोड़ दिया है। कैसे मैं अपने चारों ओर के लोगों से निजात पाऊं। हे भगवान तुम्हीं कोई रास्ता सुझाओ।’

कुछ दिनों तक विशम्भर प्रसाद ने खुद को घर में इस तरह छुपा के रखा कि हर आने-जाने वाला ने समझा वह घर पर नहीं है। उसने अपने बीवी-बच्चों से भी झूठ कहलवाने में झिझक महसूस नहीं की, कि ‘घर पर नहीं हैं, बताकर नहीं गए हैं, कहां गए हैं कब लौट कर आएंगे।’

कुछ दिनों तक यह परदा ढका रहा लेकिन फिर ये राज भी खुलना ही था। यार-दोस्त कभी न कभी उसे छेक ही लेते और वही पुराना राग सुनाने लगते।

‘यार अब ऐसे नहीं चलेगा। कोई दो दिन के मीत तो तुम हो नहीं कि तुम्हारे जैसे यारबाज को हम भूल जाए। न सही पहले की तरह रोजाना फ़िर भी हफ्ता-पंद्रह दिन में तो एक बार तुम्हें साथ में जमना ही पड़ेगा। गुरू हम तुम्हें ऐसे नहीं छोड़ेंगे। हमसे अलग होने की फिराक में न रहो।’

विशम्भर प्रसाद कहे तो क्या कहे। चुपचाप बिना कोई जवाब दिए निकलने लगा। ‘दगाबाज’ होने की भी सारी तोहमतें उसके सर मढ़ दी गईं। लेकिन विशम्भर प्रसाद अपने निर्णय से नहीं डिगा। धीरे-धीरे उसने पाया बिना फोन के खुद उसे उसके काम-काज को लेकर बड़ी दिक्कतें हो रहीं हैं। लिहाजा उसने फोन का कनेक्शन भी बहाल कर लिया और घर के भीतर छुप के रहने से भी उसने परहेज किया। शराब के लिए उसके यारों की नसीहतें-मश्विरे और प्रेम-अनुनय-विनय विशम्भर प्रसाद की जिंदगी का हिस्सा बन गए। विशम्भर प्रसाद ने खुद को उन रोज-रोज के हल्कान करने वाले माहौल का आदी बना लिया।

एक रोज विशम्भर प्रसाद अपने घर की देहरी तक आया तो उसने घर का किवाड़ खुला पाया। अंदर कुछ हा-हा-हू-हू भी सुनाई पड़ने लगा। विशम्भर प्रसाद ने घर के भीतर कदम रखा तो देखा घर की बैठक में उसके चार-पांच पुराने दोस्त बैठे मजे से ठहाके लगा रहे हैं और मेज पर खूब दारू-नमकीन भी सजा हुआ है। मयनोशी की यह मंडली देखकर विशम्भर बड़ा हैरान हुआ। विशम्भर प्रसाद के मुंह से कुछ निकलता, उससे पहले ही उन दोस्तों में एक ने उसे दावत दी, ‘आओ-आओ विशम्भर भाई, तुम्हारा ही इंतजार कर रही है हमारी मंडली। आओ बैठो।’

विशम्भर प्रसाद बड़ी सादगी से बोला, ‘मैंने बताया तो था अब नहीं पीता मैं। मैंने शराब छोड़ दी है।’

‘अरे पीना छोड़ा है न प्यारे, केवल चखने में क्या बुराई है। हम कौन सा तुम्हें भर घड़ा पिलाने आए हैं या के नहलाने आए हैं। कुछ अपनी कहेंगे, कुछ तुम्हारी सुनेंगे और कुछ तुम्हें सुनाएंगे भी और चुपचाप उठकर सिर झुकाये तुम्हारे दर से चले जाएंगे। विशम्भर पल दो पल का साथ निभाओ यार कम से कम। आओ बैठ जाओ हमारे नजदीक। ‘आओ-आओ’ दूसरे दोस्त ने पेंग बढ़ाई.

विशम्भर प्रसाद फिर सीधा-सपाट एक वाक्य बोलकर खामोशी से उनके साथ बैठ गया, ‘ठीक है बैठ जाता हूं। लेकिन पीना छोड़ दिया है तो बस छोड़ दिया। पीने को मत कहना।’

विशम्भर प्रसाद ने नौकर को आवाज दी और पानी, गिलास वगैरह का बंदोबस्त करवा दिया। कुछ और मेवों और घर के बने नमकीन ने भी दोस्तों के जोश में इजाफा कर दिया। विशम्भर प्रसाद ने अपने लिए एक सादा-सा कोक मंगवाया और साथ देने के लिहाज से बगल में रख लिया। आख़िर वह अपने दोस्तों का मेज़बान तो था ही। विशम्भर का कोक देखकर एक और दोस्त ने उसी वक्त घोषणा कर डाली, ‘भाई विशम्भर प्रसाद पिएं न पिएं हम तो पिएंगे। दबा के पिएंगे, सुना के पिएंगे, गुनगुना के पिएंगे, क्यों भाइयों क्या कहते हो।’

सारे दोस्तों ने एक स्वर में हामी भरी और बोतलें खुलनी प्रारंभ हो गईं। बोतलें खुलीं थीं तो सुरूर चढ़ना भी आरंभ हो गया. विशम्भर प्रसाद को खामोशी से बैठा देखकर दोस्त उसे उकसाने लगे। लेकिन विशम्भर पर कोई असर न हुआ। दोस्तों ने उसे ललचाना शुरू कर दिया।

‘भाई ये केसर-कस्तूरी राजस्थान से स्पेशल मंगवाई थी विशम्भर प्रसाद के लिए। लेकिन अफसोस, वह तो पीना छोड़ चुका है, हम ही पी लेते हैं उसके नाम पर। क्यों भई विशम्भर प्रसाद ठीक है न। बाद में कोई गिला न करना कि सामने-सामने गटक ली और पूछा भी नहीं। बार-बार पूछ रहे हैं प्यारे तुमसे।’ गिलास भरते हुए, विशम्भर को दिखाते हुए एक थोड़ा कमीने किस्म का दोस्त बोला।

विशम्भर फिर भी खामोश रहा। उसने कोक के दो घूंट हलक में उतार लिए।

दूसरे ने विशम्भर को और कोंचा, ‘देखो दोस्त नहीं पीने का विचार दुरुस्त तो है तुम्हारा, लेकिन केसर-कस्तूरी को गंवाकर बहोत पछताओगे कसम से। जो बात केसर-कस्तूरी में है, वह तुम्हारे इस नामुराद कोक में क्या। इन दोनों की कोई बराबरी ही नहीं विशम्भर भाई। देखो अब रोजो-रोज तो ताहिर उधर से आएगा नहीं न हमें इस नशीली चीज का आस्वादन नसीब होगा। भई वाह, क्या खुशबू है, क्या रंग है, क्या खुमारी है। प्यारे विशम्भर भइय्या मेरी बात मानो तो तुम भी एक पैग उड़ेल लेयो धीरे से, कुछ फरक नहीं पड़ेगा। न पीने की तुम्हारी कसम पर भी कोई आंच नहीं आएगी, यह बात बाहर नहीं जाएगी, चाहे तो कसम ले लो कस्तूरी-केसर की। यहीं के यहीं खतम हो जाएगी। समझ रहे हो न क्यों विशम्भर भाई क्या कहते हो।’

विशम्भर ने फ़िर कोई जवाब नहीं दिया.

विशम्भर प्रसाद के दिल पर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी तो फिर एक दोस्त ने अपनी नई तरक़ीब बड़ी अदा से आजमाई। बोला, ‘क्या यार तुम लोग भी देसी तरल पर जान देते फिरते हो। विशम्भर प्रसाद पैदा भले ही हिंदोस्तान में हुआ है लेकिन उसकी पसंद खालिस विलायती है। यह बात सिर्फ मैं जानता हूं। मैं उसका पक्का यार जो ठहरा, तुम लोगों की तरह नहीं हूं मैं।’  कहते-कहते उसने अपने बैग से शराब की एक काफी मंहगी बोतल निकाली, ‘यह देखो विलायती स्कॉच लाया हूं मैं विशम्भर भाई के लिए।’ अरे विशम्भर का टेस्ट भला मुझसे ज़्यादा कौन जानता है।’

दोस्तों ने विलायती बोतल देखकर, जोर-जोर कहकहे लगाए और विशम्भर का जमकर हौसला बढ़ाया। लेकिन विशम्भर प्रसाद भी एक ही मिट्टी का बना था, टस के मस न हुआ। ख़ामोश बैठा मुस्कुराता रहा। सबको पीता देखता रहा। सबका चढ़ता-उतरता नशा देख देखकर, सबकी बहकी-बहकी बातें सुन सुनकर आनंदित होता रहा।  

आज विशम्भर प्रसाद हमेशा से ज्यादा खुश था। उसका यह अहसास आज पक्का हो चुका था कि शराब के बिना भी जिंदगी बेहद खुशगवार हो सकती है। आज उस न पीने में भी अलग ही सुरूर था। वह बिना एक भी घूंट पिए मुस्कुरा रहा था। विशम्भर प्रसाद पर उसके इन झूमते हुए दोस्तों का नशा तारी था। शायद वह खुद दोस्ती के नशे में झूम रहा था।  

कुछ देर बाद शेर-ओ-शायरी का दौर चला। उन दोस्तों की मंडली में गालिब, मीर, सौदा, आतिश, जौक, जफर, फैज लेकर दुष्यंत कुमार, निदा फाजली, वसीम बरेलवी और राहत इंदौरी तक के सारे शायरों के कलाम उस महफिल में ससम्मान बुला लिए गए।   

अगर एक ने खुमारी में एक शेर मारा, तो दूसरे ने नहले पर दहला फेंका।

जब रात आधी से ज्यादा ढल गई तो तो शेर-ओ-शायरी से नाता तोड़कर, गीत-संगीत की महफिलें भी दोस्तों ने जमा दीं। भांग-धतूरे में खोए हुए शिव-शंकर के भक्तों की तरह विशम्भर प्रसाद के सारे दोस्त कभी फाग गाते तो कभी बिरहा की हूक में अपनी अरसों-बरसों की भूली-बिछड़ी प्रेमिकाओं और जिनकी बीवियां मर चुकीं थीं उनकी याद में आंसू बहाते रहे। विशम्भर प्रसाद के दोस्तों ने बिन मौसम कजरी भी गाई और सोहर-बन्ना-बन्नी-घोड़ी-सेहरा गा-गाकर खुद का और सारे मित्रों का दिल भी खूब बहलाया। विशम्भर प्रसाद बैठा देखता रहा, उत्साह बढ़ाता रहा, आनंदित होता रहा। ढोलक-मजीरा की थाप पर उसके यार-दोस्त देर रात तक गाते-गुनगुनाते थिरकते रहे।

न केसर कस्तूरी, न विलायती स्कॉच न महुआ का ठर्रा और न रम-विस्की-जिन कुछ भी आज विशम्भर प्रसाद के अटल इरादों को हिला नहीं पाई। न उसके मन को डुला ही सकी। लेकिन वह फिर भी चहक रहा था। उसे मित्रों के संग बिना पिए भी झूमना रास आ रहा था।

विशम्भर प्रसाद आज बहोत खुश था, कि उसके खुद के किए हुए प्रण पर आंच तक नहीं आई, उसके दोस्त भी उसकी सोहबत का रस बड़े मनोयोग से लेते रहे।

महफिर तो आखिरकर बर्खास्त होनी ही थी, सो हुई और विशम्भर प्रसाद के सभी दोस्त-यार और पीने-पिलाने के पुराने जमावड़ी विदा भी हुए। उनमें से कुछ अगर पीने-पिलाने के इस लंबे दौर के बाद भी घर जाने लायक ठीक-ठाक हालत में थे तो दो-एक ऐसे भी थे जिन्हें अपने साथियों के सहारे की जरूरत पड़ रही थी।

चलते-चलाते जानकी लाला ने बड़ा आभार जताया, ‘भई, आज तो बड़ा मजा आया विशम्भर। अर्से बाद इतनी गुलजार महफिल नसीब हुई। जब से तुमने लाल परी का साथ छोड़ा है, प्यारे, समझो कि हम लोग तो बेआसरा हो गए थे।’

‘हां, वैसे भी जब से विशम्भर ने पीने से तौबा की है, हमें तो महफिल जमाने के लिए जगह के भी लाले पड़ने लगे थे।’ दूसरे ने होश में काबिज न रहते हुए भी अपना दु:ख सुना दिया।

चंदेल ने नशे में डूबे स्वर में इस बात की ताईद करते हुए फुलझड़ी छोड़ी, ‘और हम तो सोचते हैं कि इस सिलसिले को जारी रखा जाए। अरे, विशम्भर नहीं पीता तो कोई बात नहीं। यह जगह तो है और ऊपर से विशम्भर का साथ। हम तो सोचते हैं कि हर शनिवार को यहीं बैठकी हो। क्यों दोस्तो।’

इस पर नशे में डूबे स्वरों के एक ज़ोरदार कोरस ने मुहर लगाते हुए ऐलान किया कि अब से हर शनिवार को सब यहीं इकट्ठा हुआ करेंगे। और यह ऐलान करके सारी मंडली गाती-गुनगुनाती, लहकती-चहकती, गिरती-डगमगाती रुखसत हुई।

उन सब के जाने के बाद दरवाज़ा बंद करके अपने कमरे की तरफ लौटते हुए विशम्भर को अपना सुरूर कुछ हल्का होता लगा। नौकर-चाकर बेहद ही अस्त-व्यस्त हुए कमरे को ठीक करने लगे। बर्तन, बोतलें, दरी, खाने-पीने के बिखरे सामान समेटने लगे। ढोलक-मंजीरा-झांझ बटोरने लगे। लेकिन इन सब चीज़ों से अलहदा विशम्भर के कानों में बार-बार जानकी लाला और चंदेल की सुरमयी बातें और दोस्तों के बुलंद ऐलान गूंजने लगे।

कभी-कभार की बात तो और थी पर अगर हर हफ्ते यह मंडली बगैर नागा किए इसी किस्म की बैठक उस के घर जमने-जमाने लगी तो कितने दिन उसका ये सुरूर, ये संयम, दिल-जिगर की ये मजबूती कायम रह पाएगी। ये सब विशम्भर प्रसाद के लिए घोर चिंतन का विषय बन गया था। उसके लिए यह बेहद गंभीर रूप से शोचनीय बात थी। वह इसी गंभीर चिंतन में डूबा हुआ था। और उसे नींद तब जाकर आई जब आसमान पर सूरज ने हल्की-सी दस्तक दी थी। न सही लाल पानी, सूरज की मद्धम लालिमा ही उसके लिए नींद की गोद बनी और वह गहन अवसाद जैसा टेढ़ा गम ओढ़कर, इसी चिंता को सिरहाने रखकर सो गया कि ‘केसर-कस्तूरी’ से कहीं फिर राबेता न बन जाए। 

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