तब मैं आठवीं में पढ़ता था। गांव का स्कूल पांचवीं तक ही था। पिछले दो-ढाई साल से मैं कस्बे के बड़े स्कूल में जा रहा था। उस दिन किस कारण मैं स्कूल नहीं गया था। मां मैले-कुचैले रजाई के खोल, गुदड़ियां और चद्दरें आंगन में बनी होदी में डाल रही थीं। साबुन लगी गुदड़ियों को मैं पांवों से रौंद रहा था। दिन के लगभग दस बजे थे, चमारों का मोहल्ला करीब-करीब खाली था। जवान मर्द-औरतें मुंह अंधेरे अपने-अपने जमींदारों-किसानों के खेत चले गए थे। बीमार दादी का खटोला फूस की छप्पर तले डला था। संभवत: उसकी देखभाल के नाम पर मां रूक गई थी। मां कोठरी में कुछ लेने गई थी और मैं गूदड़ों पर कूद-फांद रहा था। इतने में गली में से बनावटी खंखारकर खांसने की खुरदुरी आवाज आई
'रै भगवन्ना है के?’ मेरे पिता को पुकारने वाला यह हमारा ही किसाण था। हालांकि वह जानता था कि मेरे पिता उसके खेत में गए हुए हैं लेकिन गांव में संबोधन का यही तरीका था।
'दद्दा राम। राम।’ माता-पिता के बताए अनुसार मैंने अपने किसाण का अभिवादन किया।
'राम-राम छोरे। स्कूल न गया आज?’
'जी वो बुढ़िया के तकलीफ थी। इस मारे रोक लिया छोरा। अर इसका बाप तै खेत मैं जा रहया है।’ मां घूंघट की आड़ किए दादी के खटोले के पास खड़ी कह रही थी। जमींदार थोड़ा उलझन में पड़ गया।
'असल में बछड़ा मर गया। मुहल्ले में और कोए तै है ना। छोरे नै भेज दे। उठा देगा।’
'जी यो तै छोट्टा है। इसपै तै ना उठै।’ घूंघट को यथावत रख मां बोली। अकसर पिताजी, मेरे ताऊ और पड़ोस के कई लोग इन जमींदारों के मरे डंगर-ढोरों को उठाकर गांव की सीमा या जंगल में डाल आते थे। बाकी काम चील-गिद्ध, कुत्ते और कौए कर देते थे।
सुबह-सुबह गांव में एक और आदमी आता था। जितना मजबूत वह उतनी ही दमदार उसकी साइकिल थी। चौबीस प्लाई के रिक्शा वाले टायर, टी आयरन से बना लंबा-चौड़ा कैरियर जिस पर दो-तीन तो कभी चार तक मुर्दा पाड़े, बछड़े बांध लाद लेता था। साइकिल की बेकार ट्यूब से वह इन्हें बांधता था। साइकिल कैरियर के पिछले हिस्से में लगे सरिये में वह ट्यूब को अंग्रेजी के आठ आकार में लूप सा बनाकर बांधता, आगे खींचता, खूब ताकत लगाकर वह साइकिल की गद्दी के अगले सिरे में दो-तीन बार घुमाकर फंसा देता। अब अगर पाड़े-बछड़े में दम हो तो भी वे निकल न सकें। साइकिल के कैरियर में लदे-कसे पाड़ों-बछड़ों के पांव-थूथन लटकते रहते और टायर और ताडिय़ों से टकराते रहते। कभी-कभी उनके मुंह से लार, झाग या खून टपक रहा होता। सीमा पर उबड़-खाबड़ गड्ढों में ले जाकर वह इनकी खाल उतारकर ले जाता।
'खाल के साथ-साथ बढिय़ा-बढिय़ा मीट भी ले जावे है। खाल बेच-बेच के अमीर हो रहया है यो।’ अकसर बच्चे कौतुहल से एक-दूसरे को बताते।
'यो दूसरे गाम का चमार है। म्हार तै नीच्चा है। चमड़ा कमावै है।’ अकसर पिताजी बताते। वह आंगन में से गली में आता-जाता दिख जाता। कड़कती ठंड और बरसते मौसम में तो वह बिना नागा आता। ये दिन बूढ़ों, बछड़ों पर भारी पड़ते थे।
नाटकीय सा था वह आदमी। चेचक के दागों से भरा चेहरा, सख्त। खुरदुरा। नाक और ठुड्डी लंबी और दृढ़, गेहुंआ रंग, बलिष्ठ शरीर। सिर पर साफा, झीना मटमैला। मुसलमानी सा कुर्ता, चौखाने का तहमद, पांव में चमड़े की काली जूतियां। जैसे पुराना पहलवान।
गांव के लोग उसे कसाई भी कहते थे। टाट के एक झोले में उसके चाकू-छुरे भी रहते, जिन्हें वह साइकिल के कैरियर में दबाए रहता। जब कैरियर पर पाड़े-बछड़े लदे होते तो, झोले को वह साइकिल के हैंडिल में टांगकर लपेट लेता। औजारों की टन-टन आवाज मुझे रोमांचित करती।
हाड़ कंपा देने वाली सर्दी हो, झमाझम मूसलाधर बारिश या उमस भरी गर्मी। वह हर मौसम में बिना नागा सुबह छह बजे गलियों में साइकिल लिए निकलता। जिन घरों में गाय-भैंस होती वहां वह साइकिल का भोंपू बजाता और भारी सी आवाज में सिर्फ इतना कहता, 'राम-राम। अरै है के?’ मैंने इसके अलावा उसके मुंह से कभी कोई दूसरे शब्द नहीं सुने। हां उसके बारे में सुना जरूर था, अफवाहों और रहस्य की तरह।
'एक बार किसी बीमार पड़े कटड़े-बछड़े की आंखां में आंख घाल के यो कसाई चला जावै है न, तै वापसी में उसनै ठा के ही ले जावै है।’ कोई गांव वाला कहता।
'हां। जब इसी बात पै कई बार पिटा भी तै है। जमींदारां नै लट्ठ मारे साले के। अच्छा भला डंगर भी इसकी सकल अर दीद्दां नै देख के जी छोड़ दे है। कसाई के जमराज है यो।’ दूसरा कहता।
लेकिन मुझे वह अच्छा लगता। मैं सोचता जब यह आदमी बुरे से बुरे मौसम में अपने काम पर आ सकता है तो मैं स्कूल क्यों नहीं जा सकता? उसके प्रति एक कौतुहल भरा सम्मोहन मेरे भीतर था।
'न्यू ऐ ऐसे ही मत जाणियो। बढ़िया पक्का दो मंजिला घर बणा राखा है इसनै खाल काढ़-बेच के।’ अक्सर लोग कहते।
लेकिन वह आज फिर याद आया
'जी वो ना आया। कटड़े-पाड़े ठाण वाला?’ मां, दादी के खटोले के पास खड़ी हुई घूंघट से ही बोली। 'उस साले की तै ऐसी तैसी होई। तड़के-तड़क बछड़े की ओर ऐसा घूर कर गया के थोड़ी देर में ही मर गया बछड़ा। काल आण दे, इसकी तै मैं...’ बात अधूरी छोड़ जमींदार ने गाली स्थगित कर दी और नरम पड़कर मां को संबोधित कर कहा, 'एक बार छोरे नै भेज दिए। बछड़ा उठा देगा।’ हालांकि मां एक बार मेरे छोटे होने का हवाला दे चुकी थी। मैं एक गूदड़ी के सिरे को पांवों से दबाकर हाथों से निचोड़ रहा था। बल देने से गूदड़ी ऐसी हो गई ज्यों अजगर। पूंछ पांवों तले तो मुंह मेरे हाथों में। जमींदार मेरी क्षमता का अंदाजा लगा चुका था।
'जा रे चला जा।’ मां का चिंतित स्वर मेरे कानों में पड़ा। संभवत: जमींदार सुन नहीं पाया था। आवाज में तल्खी भरा आदेश घोलकर बोला, 'चाल रै छोरे। तावला (जल्दी) कर। घाम-धूप लागेगा तो बास मारण लगेगा बछड़ा।’ कहकर वह घुन खाए दरवाजों की तरफ बढ़ा। गूदड़ी को मैंने वहीं छोड़ दिया। बल देने की वजह से वह होदी में ऐसी गिरी ज्यों अजगर ने कुंडली मार ली हो। मैं होदी में से उछलकर सीधे हवाई चप्पलों पर जा कूदा। चप्पलें पिताजी की थीं। घिसी होने की वजह से थोड़ा फिसला भी, पर संभल गया। पिताजी खेत में चमड़े वाली मोटे तले की जूतियां पहनकर जाते थे। मैं जमींदार के पीछे-पीछे हो लिया। रोमांच सा था। आज मैं भी 'उसकी’ तरह बनूंगा। साइकिल तो है नहीं पर करके देखता हूं।
वहीं छप्पर के नीचे एक खंटे से बछड़ा बंधा पड़ा था। उस पर जूट की बोरी पड़ी थी फिर भी उसके नरम हिस्सों पर कौवे चोंच मार गए थे। एक तरफ बंधी गाय बड़ी- बड़ी आंखों से उस लोथड़े को टुकुर-टुकुर निहार रही थी।
'यो ही बोरी ले ले। इसी में घाल ले।’ जमींदार ने मुझे निर्देश दिया। बछड़ा बहुत मरियल था। लग रहा था, भूखा प्यासा रहा होगा। सारा दूध तो ये लोग फिर ट्रैक्टर भी आ गया है अब तो बैल की भी जरूरत नहीं।
‘चल उठा।’ थोड़ी सख्त आवाज में आए आदेश ने मेरा ध्यान तोड़ा। झिझकते हुए मैंने बोरी लाश पर से हटाई। बछड़ा गिलगिला सा लग रहा था। उसकी टांग को हाथ में पकड़ा तो वह अकड़ी हुई थी। लगा रात ही मर गया होगा ठंड से, हालांकि दिन अभी निवाए ही थे।
'अगर सांझ नै वो कसाई आ जावै तै इसके मुंह की खाल उतरवा के उसमें भुस्स भरवा लूंगा। गाय दूध देती रहवेगी।’ जमींदार जैसे खुद से कह रहा था। ये लोग ऐसा ही करते हैं। मैं पिताजी के साथ आकर देख गया हूं। भूसे वाली कोठरी में कई बछड़ों के भुस्स भरे मुखौटे हैं। बछड़े के मुंह की खाल उतरवाकर उसमें भूसा भरवा लिया और एक लाठीनुमा डंडे में लगवा लिया, भाले की तरह। जो गाय अपने बछड़े के बिना दूध नहीं देती, उसके थनों देह और मुंह पर यह मुखौटा छुआ दिया जाता, ज्यों जादू की छड़ी फिराई हो और दूध थनों में उतर आता।
'जी भारी है।’ मैंने उसे घसीटते हुए कहा।
'जोर लगा छोरे। इतणा भी भारी कोन्या।’ जमींदार की आवाज में जैसे कांटे उग आए थे।
'अरै के बात छोरे? खाणा न मिलता के? हलका सा बछड़ा है।’ जमींदार गुस्से में था।
'किसे भी तरहां उठाणा पड़ेगा। ना तै तेज घाम लागते ही सड़ ज्यावेगा। लगा जोर। हां और जान लगा।’ जमींदार चिल्ला रहा था। 'उठा, पांच रुपये दूंगा। हां। शाबास।’ वह हौंसला बढ़ा रहा था लेकिन मैं पस्त हुआ जा रहा था। जैसे-तैसे बोरी में उसके पिछले पैरों को डाला लेकिन अब आगे कैसे सरकाऊं? 'थम अगर हाथ लगवा दो तो।’ डरते-डरते मैंने कहा। जमींदार ने खा जाने वाली नजरों से मुझे घूरा।
'बोरी आगे बढ़ा।’ दम सा घोंटकर उसने कहा। मैंने जैसे ही बोरी आगे बढ़ाई उसने बछड़े की गर्दन पर हथेली लगाई और बोरी में धकेला। बछड़े की गर्दन उसकी तरफ लुढक़ गई। बछड़े की थूथन से झाग और खून मिश्रित लार बह चली और जमींदार के हाथों-बाजुओं पर लिसड़ गई। लगा कि वह उबकाई को रोकने का प्रयास कर रहा था। मुंह लाल सुर्ख हो गया उसका पेट मुंह को आने वाला था।
'जी, कमर पै धरवा देते।’ डरते हुए कहकर मैं थोड़ा झुका और बोरी का मुंह दोनों हाथों से पकडक़र कंधे पर रख लिया। उसे फिर हाथ लगाना पड़ा। इस उपक्रम में बोरी से रिसकर गीलापन लेई की तरह उसके पांवों पर गिर पड़ा। बछड़े को कमर पर लादकर मैं पिछले दरवाजे से डगमग कदमों से खेतों की तरफ बढ़ा। यह गांव का बाहरी गोल घेरदार रास्ते का घर था। मैं सीम का लक्ष्य कर बढ़ चला।
'पीसे सांझ नै तेरे बाप नै दे दूंगा।’ जमींदार का थका स्वर मुझे सुनाई पड़ा। साथ ही हल्ल, हल्ल, हल्ल अक्क की उसकी उलटी करने की आवाज भी सुनाई पड़ रही थी। वह जानवरों की खेल (पानी पीने की नाद) से पानी की बाल्टी भर भरकर नहा रहा था और लगातार कै किए जा रहा था।
बोझ के कारण मेरी कमर टूटी जा रही थी लेकिन मैं खुश था। हालांकि मैं अकेला उठा सकता था, लेकिन जान-बूझकर नहीं उठाया। मेरी तो कमर पर लदे और वह हाथ भी न लगाए। फंसी में ही सही उसे बछड़े की लाश को छूना तो पड़ा। पता लगा कुछ? अपने आप में हंसता हुआ मैं गांव के बाहर जाने वाली पगडंडी पर चल चुका था।