"पुत्तरछेत्ती कर, वेख, चा ठंडी होंदी पई ए।"
बीजी की तेज आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई। रंग में ब्रश डुबोते हाथ थम गए। पिछले एक घंटे में यह पहला मौका था, जब भूपी ने मूर्ति, रंग और ब्रश के अलावा कहीं नजर डाली थी। चाय सचमुच ठंडी हो चली थी। उसने एक सांस में चाय गले से नीचे उतारते हुए मूर्तियों पर एक भरपूर नजर डाली। दीवाली से पहले उसे तीन ऑर्डर पूरे करने थे। लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों से घिरा भूपी दूर बिजली के तार पर अठखेलियां करते पक्षियों को देखने लगा। हमेशा की तरह आज भी एक आवारा-सा ख्याल सोच के वृक्ष की फुनगी पर पैर जमाने लगा, आखिरकार ये पक्षी इतनी ऊंचाई पर क्यों बैठे रहते हैं? 'ऊंचाई', दुनिया का सबसे मनहूस शब्द था और ऊंचाइयां उसे हमेशा डर की एक ऐसी परछाई में ला खड़ा करती थीं कि जिसके आगे उसका व्यक्तित्व छोटा, बहुत छोटा हो जाता था! दूर आसमान में सिंदूरी रंग फैलने लगा था जिसकी रंगत धीरे-धीरे भूपी के रंगीन हाथों सी होती चली गई।
रंगों का चितेरा भूपी उर्फ भूपिंदर, जस्सो मासी का छोटा बेटा है और हमारी इस कहानी का नायक भी है! यूं कहने के लिए उसमें नायक जैसे कोई विशेषता नहीं थी जिसे रेखांकित किया जाए! अगर सिर्फ उसकी दुनिया ही हमारी कहानी का दायरा हो तो इस खामोश कहानी में न कोई आवाज होगी और न ही संवादों के लिए कोई गुंजाइश रहेगी! यहां भूपी की इस रंगीन कायनात में इधर-उधर, तमाम रंग जरूर बिखरे हैं पर इंद्रधनुषी रंगों से सजी ये कहानी इन सब रंगों के सम्मिश्रण से मिलकर बनी है यानि वह रंग जो बेरंग है! तो कहानी भूपी से शुरू होती है, भूपी की उम्र रही होगी लगभग उनतीस साल, साफ रंगत जो हमेशा बेतरतीब दाढ़ी के पीछे छिपी रहती थी, औसत से कुछ कम, नहीं कुछ और कम लंबाई, इतनी कम कि देखते ही लोगों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ जाती थी! पढ़ने लिखने में न तो मन ही लगा और न ही घर के हालात ऐसे थे कि वह ज्यादा पढ़ पाता! कुल जमा पांच जमात की पढ़ाई की थी पर मन तो सदा रंगों में रमता था उसका! पान, बीड़ी, सिगरेट, तंबाखू, शराब जैसा कोई ऐब उसे छू भी नहीं गया था! हां, अगर कोई व्यसन था तो बस आड़ी-तिरछी लकीरों का साथ और रंगों से बेहिसाब मोहब्बत जो शायद उसके साथ ही जन्मी थी और साथ ही जन्मी थी एक लंबी खामोशी जो हर सूं उसे घेरे रहती थी! उसका कोई साथ या मीत था तो उसके सपने, जो दुर्भाग्य से सपने कम दुस्वप्न ज्यादा थे! भूपी की खामोश दुनिया अक्सर उन दुस्वप्नों की काली, सर्द, अकेली और भयावह गोद में जीवंत हो जाती! ये सपने अब उसकी आदत में शुमार हो गए थे और इनका साथ उसे भाने लगा था!
कम ही मौके आए होंगे जब उसे किसी ने बोलते सुना था! यकीनन मुहल्ले से गाहे-बगाहे गुजरने वालों को यह मुगालता रहता होगा कि वह बोल-सुन नहीं सकता! कहते हैं जब होंठ चुप रहते हैं तो आंखें जबान के सारे फर्ज अदा करने लगती हैं पर भूपी की तो जैसे आंखें बस वही देखना चाहती थीं जिसका संबंध उसके काम से हो और आंखों के बोलने जैसी सारी कहावतें बस कहावतें ही तो रह गई थीं! पता नहीं ये दुस्वप्नों के नींद पर अतिक्रमण का असर था या कुछ और कि ये आंखें अक्सर बेजान, शुष्क और थकी हुई रहा करती थीं! यह सहज ही देखा जा सकता था कि उन तमाम काली रातों की सारी कालिमा, सारा अंधेरा, सारा डर और सारा अकेलापन इन भावहीन आंखों के नीचे अपने गहरे निशान छोड़ गया था, हालांकि इनकी इबारत पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था, फैक्टरी में दिन भर मेहनत कर रात में गहरी नींद लेने वाली बीजी भी इन निशानों की थाह कब ले पायी थी!
जस्सो मासी उर्फ बीजी उर्फ जसवंत कौर एक नेक, मिलनसार और खुशमिजाज औरत थी जो ज्यादा सोचने में यकीन नहीं रखती थी या उन्ही के शब्दों में कह लीजिये "जिंदड़ी ने मौका ही कदो दित्ता" (जिंदगी ने मौका ही कब दिया) ! गेंहुआ रंग, छोटा कद, स्थूल शरीर, खिचड़ी बाल और कनपटी पर किसी हल्के से रंग की चुन्नी के बाहर, 'मैं भी हूं' अंदाज में झूलती एक सफेद लट, चौड़े पायंचे वाली सलवार-कमीज और चेहरे पर मुस्कान! मुल्क के बंटवारे ने सब लील लिया था, बंटवारे के दंश को सीने में छुपाए, काफी अरसा हुआ तरुणाई की उम्र में पति के साथ पंजाब से यहां आकर बसी थी! जाने वो दिल था, जिगर था या जान थी जो वहां छूट गया था, लोग कहते हैं वो अब पाकिस्तान था! बहुत समय लगा ये मानने में कि वह मुल्क अब गैर है, कि अब वह हमारा नहीं रहा, कि उसे अब अपना कहना खामखयाली है! और देखिए न उनकी उजड़ी गृहस्थी और टूटे दिल को उस दिल्ली में ठिकाना मिला जो खुद भी न जाने कितनी बार उजड़ी और बसी थी! पर दिल्ली जब हर बार उजड़ कर बस गई तो जस्सो मासी की नई-नई गृहस्थी भला कब तक उजड़ने का दर्द संजोती रहती! दिल्ली ने ही उनकी तरुणाई की वह जाग-जाग कर काटी रातें देखीं, तिनके-तिनके जोड़ कर जमाया घोंसला देखा और दिल्ली ही असमय पति के बीमार हो जाने पर 2 बच्चों के साथ हालात की चक्की में पिसती, उस जूझती फिर भी सदा मुस्कुराती मां के संघर्षों की मौन साक्षी बनी! इन मुश्किलों ने उन्हे जुझारू तो बना ही दिया था, साथ ही वह छोटी-छोटी बातों को दिल से लगाने को फिजूल मानने लगी थी! यूं भी जिंदगी ने उन्हें सिखाया था जब मुश्किलें कम न हो तो उनसे दोस्ती कर ली जाए, उन्हे गले लगा लिया जाए!
यह एक निम्न-मध्यमवर्गीय लोगों का मोहल्ला था, जहां रहते हुए लोगों को न तो बीत गए सालों की संख्या याद थी और न ही एक दूसरे से कब रिश्ता बना यह भी याद रहता था! अपने छोटे-छोटे सुखों को महसूसते और पहाड़ जैसे दुखों से लड़ने को अपनी आदत में शुमार किए उन लोगों का बड़ा-सा परिवार थी यह गली, जिसे गली नंबर 2 कहा जाता था! इन लोगों ने धर्म, जाति और क्षेत्रीयता जैसे तमाम आग्रहों से ऊपर उठकर एक नए पंथ की अघोषित, मौन स्थापना कर दी थी जिसे भाईचारा कहा जाता था, जो खून के रिश्तों से कहीं ऊपर था! कोई हालांकि कई बार छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते ये लोग शाम को साथ मिलकर मन-मुटाव को साथ साथ विदा कर देते थे! तो जस्सो मासी, जी हां लोग उन्हे इसी नाम से पुकारा करते थे, यूं तो कहने को दो बेटों वाली थी पर बड़ा बेटा करमजीत उर्फ काके, बेटा कम अपने पूर्वजन्म के कुकर्मों का फल ज्यादा लगता था उन्हें! पिता की बीमारी और घर में कामकाजी मां की गैर-मौजूदगी ने जहां छोटे को चुप्पा बना दिया था, वहीं बड़ा निकम्मा, और नाकारा निकला हालांकि कहने के लिए किराए का ऑटो चलाया करता था, शराबी-कबाबी ऊपर से एक दिन एक एंग्लो-इंडियन लड़की को घर ले आया!
कहने लगा "बीजी, बहू है तुम्हारी, इसके साथ कोर्ट मैरेज की है!"
अब आप जानो जस्सो मासी तो जस्सो मासी ठहरी! फौरन उसे दरवाज़ा दिखाकर कहा, "फिटे मुंह तेरा, जित्थों लाया है, ओत्थे ही छडके आ मोए!"
तीन दिन के भीतर मुहल्ले वालों और इक्का-दुक्का नातेदारों को इकट्ठा किया और फेरे डालकर बहू को घर ले आई! ढोल बजा तो पूरे मोहल्ले से ज्यादा जस्सो मासी नाची थी! दबी ज़बान से बहू के धर्म पर छींटाकशी करने वालों की कमी नहीं थी पर जस्सो मासी ने यह कहकर सबका मुंह बंद कर दिया कि "औरत कीभला क्या जात और क्या धरम, पानी जिस भांडे में गया वैसा ही हो गया! लौटेविच पाओ तो लौटे वरगा, होर थाली विच पाओ ते थाली वरगा!" तो 'ग्लेडिस' अब 'लक्ष्मी' हो गयी थी और गली नंबर 2 का क्या कहना, कुछ दिनों की कानाफूसी के बाद वही 'लक्ष्मी' सबकी लाड़ली बहू थी और सुबह दिन निकलते ही 'पैरी-पैना चाचीजी' 'पैरी-पैनामासीजी" करते हुए उसकी कमर दोहरी हो जाती थी! यूं चार दिन तो मजे में कटे फिर चंद दिनों में ही शाम को डगमगाते कदमों से लौटते पति की खस्ता हालत, कपड़ों से आती असहनीय दुर्गंध और खाली जेब ने कुल मिलाकर जो तस्वीर खींची थी उसमें लक्ष्मी को भविष्य पर छाई अंधकार की छाया साफ दिखाई पड़ती थी और यह भी कि अब तो बस सास के सहारे दिन कटेंगे या खुद ही कमा-खाकर गुजर होगी। मायके या चर्च जाकर जी भर रोई पर कहीं कोई रास्ता नहीं था। खुदा उसका नसीब लिखते हुए सारी स्याही खो बैठा था बस दूर तक काला रंग बिखरा नजर आता था।
हरे-पीले-लाल-नीले-बैंगनी-नारंगी--दुनिया की भागदौड़ और चकाचौंध से दूर भागते भूपी को रंगों में निजात मिलती थी। यह और बात है कि उसके मन में दुनिया को लेकर जो भी तस्वीर बनती थी वह बहुत बेरंग थी। अपने कद को लेकर कोई ग्रंथि पाली हुई थी उसने या फिर ऊंचाई से उसका डर इसका कारण था, भूपी अक्सर ऊंची-लंबी आकृतियों से मुंह फेर लिया करता था। उसके अवचेतन में सदा एक लंबा ऊंचा ठूंठ सा वृक्ष विद्यमान रहता था जो मन को कभी हरा-भरा होने ही नहीं देता था। ऐसा नहीं था उसने कोशिश नहीं की, पर उसकी तमाम कमजोर कोशिशें उस ठूंठ की ऊंचाई के सामने हार मानकर दम तोड़ गईं। कभी-कभी भूपी को लगता था उसकी ऊंचाई हर रोज थोड़ा कम हो जाती है और ठूंठ हर रोज उतना ही बढ़ जाता है। उसे लगता था किसी दिन यह ठूंठ उसकी पूरी लंबाई को लील लेगा और वह पूरा का पूरा इसी ठूंठ में समा जाएगा। उसका यह डर अमूमन दिन में जाने कहां सोया रहता और रात में धीरे धीरे उसकी नींद पर काबिज हो जाता। वह पसीने-पसीने हो जाता और अपने घुटनों को पेट में घुसाए, खिड़की से बाहर स्ट्रीट-लाइट को देखते-देखते सुबह का इंतज़ार करता। उसकी बेचैनी बढ़ जाती और रगों में दौड़ता लहू, मानो लहू नहीं किसी ज्वालामुखी से निकलता गरम लावा हो जाता जिसका बहाव उसे दुनियावी चहल-पहल से कहीं दूर ले जा पटकता। हैरत की बात यह थी कि जो भूपी पहले घंटों अपनी दुनिया में लौटने की कोशिश करता रहता था उसे अब यह दूसरी अंधेरी, भयावह दुनिया रास आने लगी थी। यह दर्द, यह तकलीफ, यह बेचैनी और यह डर उसकी आदत जो बन गए थे।
इधर ग्लेडिस उर्फ लक्ष्मी ने देखा उसके अलावा ससुराल में कुल जमा चार प्राणी हैं। पति आधे दिन बोतल भर के लायक कमाता है और सब कमाई दारू में उड़ा देता है। ससुर बीमार और लकवे से लाचार है। सास किसी फैक्टरी में काम करती है और देवर यानि भूपी मूर्तियां बनाता है। लोगों को लगा था बहू ईसाई है चार दिन में सब छोड़छाड़ कर अपने घर लौट जाएगी। उसके घरवालों ने भी कुछ इसी तरह की सलाहें उसकी झोली में डाल दीं। पर लक्ष्मी, जो अपने परिवार की सारी हिदायतों, आशंकाओं और भविष्यवाणियों को नजरअंदाज कर इस घर में आई थी, उसने इस रिश्ते को एक मौका देने का फैसला किया। दिन बीतते गए, पता नहीं यह फेरों पर खाई कसमों का असर था या सास का स्नेह, गरीब मां-पिता की लाचारी की चिंता थी या घुटने टेकने से इंकार करती, गर्भ में आ गए एक अजन्मे शिशु की मां की जिजीविषा थी कि लक्ष्मी, लक्ष्मी ही रही, फिर कभी 'ग्लेडिस' नहीं बनी तो नहीं बनी। गले में डला 'क्रॉस' 'ॐ' में बदल गया और उसने एक टिपिकल संस्कारी बहू की तरह सास की गृहस्थी संभाल ली, वही रोजी रोटी के लिए देवर की मदद करने लगी। सास को चूल्हे चौके से छुट्टी मिली, ससुर को दवाई समय पर मिलने लगी वहीं भूपी के अकेलेपन के दायरे में लगी सेंध ने कुछ दिनों के लिए उसे परेशान तो जरूर कर दिया था पर वक्त का पहिया जब मंथर गति से आगे सरकता गया तो धीरे-धीरे यह अतिक्रमण उसे भी रास आने लगा। अब हुआ यूं कि मूर्तियां गली नंबर 2 की आवाजाही, एक-दूसरे की चुगलियां करती औरतें और भूपी की खामोशियों से इतर भी कुछ आवाजें सुनने लगीं थीं।
'भाभी, पीला रंग कब खत्म हुआ होर हरा रंग किन्ना लाणा है ......"
"भाभी, एक कप चा पीणी है....."
"भाभी, सिंह साहब का आदमी क्या बोल रहा था...."
भूपी ने मूर्तियां बनाने का काम छुटपन में ही सीख लिया था, कुछ अरसा काम एक दोस्त के घर काम किया और फिर जल्दी ही अपना काम शुरू कर दिया। रबर की डाई उर्फ सांचे में प्लास्टर ऑफ पेरिस का घोल डालकर उसे छत पर सुखाया जाता था। एक लाइन से बने 10 x 10 के चार कमरों को जोड़ कर बनी लंबी छत पर लाइन से मूर्तियां रखी रहती थीं। एक कोने में एक छप्पर डला था जो अक्सर स्टोर रूम का काम करता था। मूर्तियां पूरी तरह से सूखने के बाद उन्हे रंगा जाता था। यह दिवाली से ठीक पहले का समय था। चारों ओर लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियां ही नजर आती थीं। ऑर्डर के मुताबिक लक्ष्मी-गणेश की कुछ मूर्तियों को सुनहरा रंगा जाता था, कुछ को पूरा सिल्वर कलर किया जाता था और बाकी को विभिन्न रंगों में रंगा जाता था। थोड़े ही दिनों में लक्ष्मी ने सब सीख लिया था। कैसे सबसे पहले सिंहासन पर फिरोजी रंग, लक्ष्मी जी की साड़ी में लाल रंग, उनकी चोली में हरा रंग, गणेश जी के वस्त्रों में पीला रंग, हाथ-पांव में पीच रंग और गहनों को सुनहरा रंगा जाता था। यहां तक तो सारा काम दोनों मिलकर करते थे, बस इसके बाद का काम केवल भूपी ही करता था और यह था उनकी आंखों का चित्रण। मूर्तियों में प्राण फूंकने वाला मुहावरा यहां साकार हो जाता जब भूपी बड़े मनोयोग से, अपने सधे हाथों से उनकी आंखें चित्रित किया करता था। एक-एक कर मूर्तियां साकार हो उठती थीं और लक्ष्मी उन्हे गिनते हुए ऑर्डर पूरा होने की खुशी में झूम उठती थी। इसके बाद ईंटों के एक छोटे से चबूतरे पर रखकर उन पर वार्निश का स्प्रे किया जाता। जहां एक ओर मूर्तियां जीवंत हो चमक उठतीं वहीं उनके रंग भी पक्के हो जाया करते। लक्ष्मी के लिए ये मूर्तियां केवल मूर्तियां नहीं थीं, घर का राशन थीं, बच्चों की स्कूल की फीस थी, बिजली का बिल थीं और मकान-मालिक का चाहे मामूली-सा ही सही, पर समय पर दिया जाने वाला किराया भी थीं।
"ओए होये, अबे तू जमीन से बाहर आएगा या नहीं?"
"भूपी, तू तो बौना लगता है यार!!! हीहीही !!"
"अबे तू सर्कस में भर्ती क्यों नहीं हो जाता, चार पैसे भी कमा लेगा"
"साले, तेरी कमीज़ में तो अद्धा कपड़ा लगता होएगा और देख तेरी पैंट तो चार बिलांद की भी नहीं होगी!"
"ओए तुझे कौन अपनी लड़की देगा, बड़े होकर काके के न्याणे (बच्चे ) खिलाने हैं तेनु ...."
"भूपी, वर्माजी के ऑर्डर का कितना काम अभी बाकी है?"
लक्ष्मी ने गीले कपड़े से हाथ पोंछते हुए पूछा और भूपी फ्लैश बैक से बाहर आ गया। लगा जैसे किसी ने जंजीरों में जकड़ दिया था और वह दूर भाग जाना चाहता है। बदन पसीने पसीने हो रहा था। सांस धौंकनी की तरह चल रही थी और कनपटियां जैसे शरीर के सारे लहू को अपने में समाए सुर्ख हो गईं थीं। लग रहा था जैसे वह मीलों दौड़कर लौटा है।
"दो दिन होर लगने हैं!"
दोबारा पूछने पर भूपी के भावहीन चेहरे ने बिना नजर उठाए ही बुदबुदाया। लगा आवाज कहीं दूर किसी गहरी खाई से आ रही है। उत्तर रस्म अदायगी भर था और इन शब्दों से उसे कोई लेना-देना नहीं है। इतना तय था कि उस हांफते जिस्म और लड़खड़ाती जबान के लिए इससे कम शब्दों अपनी बात कहना शायद संभव न रहा होगा।
लक्ष्मी बच्चों को स्कूल भेज चुकी थी। ससुर नाश्ता करने के बाद आराम से सो रहे थे। उसका पति काके 'काम' पर जा चुका था और सास आज जमनापार एक जानकार के यहां गई थीं। भूपी का काम अब अच्छा चल निकला था, लक्ष्मी का साथ मिलने से अब वह ज्यादा ऑर्डर ले सकता था। मूर्तियां तो पहले ही उसकी अभी मुंह से बोल उठने वाली लगती थीं। किराए के उस छोटे से एक कमरे-रसोई वाले घर को मां ने खरीद कर ऊपर भी एक बड़ा कमरा बना लिया था, जहां बहू लाने के वह सपने देखने लगी थी। लौटी तो चेहरे पर चिर परिचित मुस्कान कुछ और गहरी हो गई थी और हाथ में बर्फी का डिब्बा था जिसे उसने पूरे मुहल्ले में बांटा था। भूपी ने दूर खड़े बिजली के खंबे को देखा तो उसके मुंह का स्वाद कसैला होता गया। पता नहीं क्यों वह आज कुछ ज्यादा ही लंबा लग रहा था। आंखें बंद होते ही ठूंठ एकाएक आसमान छूता नजर आया। उसने घबराकर आंखें खोल दीं।
"आक थू sssss" उसने बर्फी थूक दी और निर्विकार शून्य में ताकने लगा।
जब ठोकरें नसीब में हो तो भरे-पूरे संसार को भी एक छोटी सी चिंगारी लील लेती है। कुछ ऐसा ही सन 84 में सिखों के साथ हुआ था। 84 के प्रेत ने मुंह खोला और पंजाब के एक गांव में रहने वाले सरदार दलजीत सिंह दो-दो गबरू जवान बेटों के साथ रोती-बिलखती पत्नी और 16 साल की जवान बेटी को छोड़ कर उसके मुंह में समा गए। सदमे ने उनकी पत्नी कुलवंत के होश छीन लिए और जब होश आया तो पाया दुनिया उजड़ चुकी थी, लालची रिश्तेदारों की मेहरबानी से अब न पास में जमीन थी न सर पर छत। अपनी बच्ची को सीने से लगाकर दूर के रिश्ते के एक भाई के पास दिल्ली चली आईं। अजीब आलम था, न गले से निवाला उतरता था न रातें दिल में भरी बेचैनी को कुछ आराम दे पाती थीं। उनकी रातें जैसे किसी अजाब की गिरफ्त में थीं और उनके दिन इसे पहेली से सुलझाते हुए शाम के कदमों में दम तोड़ दिया करते थे, क्योंकि शरीर को न भूख सताती थी और न ही नींद बस अगर कुछ दिखाई देता था तो सोहणी की चढ़ती जवानी और अल्हड़ अठखेलियां।
यह बीसवां साल किसी भी लड़की के जीवन पर एक बसंती चादर की तरह छा जाता है जिसकी छांव में हर लम्हा वसंती लगने लगता है। पिता अपनी सूरत और सीरत के साथ अपना डील-डौल भी सोहणी को सौंप गए थे। खासा लंबा कद, चौड़ा हाड़, दबा हुआ रंग और गदराया हुआ भरा जिस्म, साधारण शक्लों-सूरत के बावजूद सोहणी भीड़ में भी अलग नजर आती थी। कुछ साल बीत चुके थे, कुछ अरसा तो बाप-भाइयों की मौत का शोक उस पर हावी रहा, फिर दिल्ली की आबोहवा और नई बनी सहेलियों का साथ, मन आवारा परिंदे सा उड़ने लगा और जवानी एक साथी मांगने लगी थी। जोबन का असर अपने शबाब पर था और मन सपनों की गलियों में रोज सैर पर जाने लगा। उसका बेपरवाह अंदाज, ज़ोर से खिलखिलाना और मस्तानी चाल, मां के कलेजे में बरछी की तरह गड़ते थे। "हायो-रब्बा, मरजानी कितनी जल्दी बड़ी हो गई।" अक्सर वह सोचा करतीं। उनका बस चलता तो उसकी उम्र का पहिया कब का थाम चुकी होती।
खैर, कुलवंत कौर ने कई जगह बात चलाई पर किसी को पढ़ी-लिखी लड़की चाहिए थी, किसी को ऊंचा घर-बार, कोई दाज में 10 तोले सोना चाहता था तो कोई बजाज का स्कूटर। बिन बाप-भाई की लड़की का ब्याह वह भी बिना दहेज इतना आसान भी नहीं था। इससे पहले कि 'ऊंच-नीच' की आशंका से परेशान कुलवंत कौर और हलकान होतीं पड़ोस की एक पंजाबी महिला ने उन्हें जस्सो मासी के बेटे भूपी के बारे में बताया। यह महिला भी जस्सो मासी के साथ ही फैक्टरी में काम करती थी। जमना-पार के उस मोहल्ले में आज भी इतनी सदाशयता बाकी थी कि जवान लड़की मां-बाप के साथ-साथ पड़ोसियों की भी साझी चिंता का कारण बना करती थी। लड़के का कमाऊ और शरीफ होना ही सबसे अधिक सुकूनदायक बात थी, उम्र में दस साल का फर्क तो बातचीत का विषय बनने लायक समझा ही नहीं गया।
'आहो जी, की फरक पैंदा ए?" फिर भाभी का ईसाई होना भी भला कोई बात है, "येक्या कम है कि कोई 'डिमांड-शिमांड' नहीं है ! बस दो जोड़ी कपड़ों में लड़की भेजने की बात है! अगले व्याह दा खरच उठान लई भी तैयार हैं!" डूबते को तिनके का सहारा काफी होता यहां तो साहिल खुद सामने आकर बाजू दे रहा था। कुलवंत कौर ने हाथ जोड़कर बात चलाने के लिए कहा, हालांकि उनकी जागती रातों को अब एक नया काम मिल गया था। अब तो दिन-रात 'वाहेगुरु' से इस रिश्ते के सिरे चढ़ने की अरदास करते बीतता था। ऐसा नहीं था कि सोहणी को मां की इस हालत का अंदाजा नहीं था, वह खुद दुआ करने लगी थी कि मां की खोई नींदें उसे वापिस मिल जाएं।
अमावस की रात अधिक काली हो जाती है अगर मन का अंधेरा बढ़ जाए। लगातार चौदह दिन ड्यूटी देने से थके, उकताए चांद ने उस रात विश्राम के लिए बादलों की चादर ओढ़ ली और सोने चला यह सोचकर कि कल फिर से उगेगा नई उम्मीद और नए रूप के साथ। अंधेरे के लबादे ने आहिस्ता-आहिस्ता गली नंबर 2 को भी अपने साये में ले लेने के लिए कदम बढ़ाया था पर स्ट्रीट लाइट ने उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया। उस रात जस्सो मासी अपने कुछ परिचितों के घर कार्ड बांटने गई हुई थी। लौटने में देर होने पर शायद वही रुक गई होगी। बड़े की शादी इतनी जल्दबाजी में हुई थी कि इस बार मासी कोई कोर-कसर नहीं छोडना चाहती थी। भूपी ने कुछ साल पहले मनोयोग से एक मूर्ति बनाई थी। एक लड़की की वह सुंदर मूर्ति इतनी दिलकश लगती थी कि मासी ने उसे कमरे के कोने में रख छोड़ा था। भूपी ने उसे मनचाहे रंगों से सुंदर कपड़े और गहनों से सजाया था, उसकी देहयष्टि इतनी चित्ताकर्षक थी कि अक्सर देखने वालों का ध्यान खींच लेती थी। भूपी ने एकटक उस मूर्ति को निहारते हुए अपनी आंखें बंद कीं और बिस्तर पर लेट गया। रात के गहराने के साथ नींद भी गहराने लगी थी। देर रात अचानक भूपी को लगा मूर्ति, मूर्ति नहीं जीती-जागती एक लड़की है जो धीमे-धीमे मुस्कुरा रही है। उसकी आंखें इतनी सम्मोहक हैं कि उसके आकर्षण से बचने के किसी प्रयास के करीब आ पाने का कोई चांस नहीं है। अमावस की उस काली रात में भी पूरा कमरा एक अनोखी रोशनी और खूशबू से सराबोर है। भूपी उठा और उसकी और बढ़ने लगा। मात्र तीन कदम के बाद वह उसके सामने था। करीब, बेहद करीब, उसके होंठों पर गहरी मुस्कान थी और उसकी सांसें अब भूपी की सांसों में एकाकार हो रही थी। भूपी ने महसूस किया, खून की गर्मी उसके पूरे जिस्म को गरमा रही थी। जिस्म जैसे आग की भट्टी की तरह तप रहा था। सम्मोहन से खिंचे आए भूपी ने उसे अपनी बाहों में भरना चाहा। उसके तपते होंठ अभी उन सुर्ख मदमाते होठों की ओर बढ़े ही थे पर यह क्या एकाएक मूर्ति का कद बढ़ने लगा, ऊंचा, ऊंचा और ऊंचा, इतना ऊंचा कि काफी ऊंची बनी उस कमरे की छत को छूने लगा। फिर जाने छत कहां गायब हो गई और औरत की लंबाई बढ़ती रही, उसकी मुस्कान अब विद्रूप हो गई, मानो बाहें फैलाये खड़े भूपी का मजाक उड़ा रही हो। मुस्कान अब ठहाकों में बदल गई और भूपी जैसे जड़ हो गया, वह न तो हिल पा रहा था और न ही बोल पा रहा था। उसे लग रहा था वह बौना और ज्यादा बौना होता जा रहा है। फिर अचानक अट्टहास करती वह मूर्ति ठूंठ में बदलने लगी, वही लंबा, निर्जीव, अकेला और डरावना ठूंठ। तभी मुर्गे की बांग ने स्याही चूस की तरह उसकी नींद का सारा कालापन सोख लिया और भूपी इस दुनिया में वापस लौट आया था। बाहर अब भी स्ट्रीट लाइट की रोशनी थी, भूपी बिस्तर पर सिमटा हुआ था, उसका वजूद एक सूखे पत्ते की मानिंद कांप रहा था। सांसें फिर धौंकनी की तरह चल रही थी। कोई देखता तो हल्के सर्द मौसम के बावजूद उसके चेहरे पर पसीने का असर साफ नजर आता। बमुश्किल भूपी देख पाया कि मूर्ति अब भी पहले की तरह वहीं कोने में चुपचाप खड़ी थी। शांत और बेजान।
"काला डोरया कुंडे नाल अड़या ओए, के छोटा देवरा भाभी नाल लड़या ओए" ढोलक की थाप पर व्याह के गाने गाये जा रहे हैं। आखिरकार वह दिन आ ही गया। व्याह वाले दिन बेतरतीब दाढ़ी और ऊबड़-खाबड़ बालों के पीछे से भूपी का गोरा-चिट्टा चेहरा ऐसे दमक कर सामने आया था जैसे कालों बादलों के पीछे से चांद निकल कर सामने आता है। सुंदर कपड़ों में बैठा हुआ वह किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था। आज शादी को दो दिन बीत चुके हैं। भूपी सोहणी को देखने के बाद जाने किस बियाबान में खो गया था। उसका डील-डौल, उसकी लंबाई और उसका खिलंदड़पन, सब भूपी को उसके करीब जाने से रोकने के हथियार साबित हुए वह जितना करीब आती थी, भूपी उतना ही दूर होता जाता था। उसे लगता था सोहणी उससे दूर, बहुत दूर इतनी ऊंचाई पर खड़ी है जहां पहुंचने के लिए अगर वह अपने सारे अरमानों, सारी ख्वाहिशों, सारी तमन्नाओं को सीढ़ी में बदल दे तो भी उसे नहीं छू पाएगा। पर सौ टके का सवाल यह था क्या भूपी वह सीढ़ी बनाने का ख्वाहिशमंद था या अपने ही अंतर्मन के अंधेरों से जूझता भूपी आज किसी की ख्वाहिश या आरजू करने की हिम्मत ही नहीं जुटाना चाहता था। यूं भी चाहतों को राहों या राहत तक पहुंचने के लिए जिस जज्बे की, जिस इच्छाशक्ति की दरकार है वह भूपी के जीवन में नदारद है, उसने जीतने से पहले ही अपने हथियार नियति को सौंप दिए थे और चुपचाप नसीब के भंवर में खामोश बहता जा रहा था।
दिवाली को बीते महीना बीत चुका है। सोहणी 10 दिन बाद मां के घर से लौटी है। जब गई थी तो उन दिनों भूपी की तबीयत ठीक नहीं थी। उसे आराम चाहिए था। इधर मां के साथ पंजाब भी हो आई थी। 'सीज़न' के बाद भूपी के पास इन दिनों ज्यादा काम नहीं होता। पूरा दिन या तो थोड़ी बहुत मूर्तियां बनाने में जाता है या फिर छत के कोने में बैठकर कागज पर आड़ी-तिरछी लकीरें निकालने में अपने वक्त की रेजगारी को बेभाव खर्च किया करता है। सीजन की थकान और आपाधापी के बाद मिले सुकून के यह लम्हे उसे बेचैन करते हैं। उसका बस चले तो काम को कभी खत्म ही न होने दे। तभी एक कंकर उसके पैरों पर आकर लगा और विचारों के झंझावात का सिलसिला छन्न से टूट गया। सोहणी छत पर कपड़े सुखा रही है, न चाहते हुए भी भूपी का ध्यान उसकी ओर चला ही गया। गुलाबी पंजाबी सूट और पटियाला सलवार में कसा उसका गदराया जिस्म, चोटी में बंधे लंबे काले बालों के नीचे झूलता सुनहरी परांदा, हाथों में चमकते चूड़े का लश्कारा (चमक), भूपी का दिल चाहा उसे ताउम्र निहारता रहे पर एकाएक उसकी नजरें सोहणी से मिली और वह देखते ही फिक्क से हंस पड़ी। भूपी चुपचाप सिर झुकाकर पेंसिल से खेलने लगा।
खिड़की से आती स्ट्रीट लाइट की थोड़ी रोशनी के कारण कमरे में बहुत अंधेरा नहीं था। सोहणी बिस्तर पर लेटी थी, उसकी आंखें बंद थीं। भूपी कुछ देर खिड़की से उसे देखता रहा, फिर धीरे-से बिस्तर की ओर बढ़ा। उसका दिल जोरों से धडक रहा था, भूपी को लगा अगर सूखते हलक में फंस न गया होता तो शायद कलेजा बाहर आ गया होता। बिस्तर के करीब पहुंचकर वह अभी झुका ही था कि एकाएक उसकी निगाह कमरे के कोने में रखी मूर्ति पर पड़ी। उसे लगा मूर्ति के चेहरे पर व्यंग्यभरी मुस्कान थी। वह खौफनाक रात उसके जेहन पर काबिज हुई और भूपी पलटा और कमरे से बाहर की ओर भागा। उस खौफनाक सूनामी की लहरों में थपेड़े खाकर आज एक बार फिर वह खाली हाथ वापस किनारे की ओर लौट आया था। इसके बाद गली के नुक्कड़ पर अलाव के किनारे हाथ सेंकते हुए, वह बची हुई रात को तल्ख यादों की कैंची से काटते हुए अलाव में कतरे-कतरे होम करता रहा। यह कैसी आहुति थी जिसमें उसका कल, आज और कल जल रहा है, ये कैसी तपिश है जिनसे जिंदगी को रु-ब-रु तो खड़ा कर दिया है पर उसे उसकी जिंदगी के ही करीब नहीं आने देती थी। फिर एक और मनहूस रात उसकी किस्मत के खाते में दर्ज हो गई थी। वक्त की झोली में ऐसी कई सर्द रातें भरी थीं जो एक-एक कर जादूगर के टोपी से परिंदों की मानिंद निकल कर स्याह आकाश में गुम होने लगी।
"जी, मैं केया, त्वानु चा दे नाल कुछ चाइदा है?"
भूपी ने गर्दन उठाई तो एकाएक घबराकर सर झुका लिया, सोहणी चाय के साथ नाश्ते की प्लेट थामे खड़ी थी। उफ्फ यह लंबाई कितनी खौफनाक शय है।
"पकौड़े......"
सोहणी ने उसके पैर को धीरे से अपने पैर से दबा दिया। पैर खींचते भूपी ने संयत होते हुए चाय का कप थाम लिया। बढ़िया, चाय अच्छी है, एक सुड़की के बाद उसका ब्रुश तेजी से चलने लगा, भाभी की नजर बचाकर सोहणी ने एक पकौड़ा उसके मुंह में ठूस दिया और प्लेट वहीं रखकर हंसते हुए वहां से चली गईं। दूर जाती सोहणी को एकटक निहारता भूपी उसे जाते हुए देखता रहा। फिर मुंह चलाते हुए नजर हटाकर बिजली के तार पर बैठे पंछियों को देखने लगा, पंछी आज भी ऊंचाई पर बैठे चहचहा रहे थे, पर जाने क्यों आज पकौड़े का स्वाद उसे कसैला नहीं लगा। उसने एक और पकौड़ा उठाकर मुंह में डाला और ब्रश चलाने लगा।
सोहणी भाभी के पास बैठी हन्नी के साथ गिट्टे खेल रही है। अचानक गिट्टे उछालना छोड़कर वह भाभी से पूछती है, "भाभी, ए कुछ बोलते नहीं। बहुत चुप-चुप रहते हैं। क्या हमेशा से......" भाभी बोलती रही और सोहणी जैसे कोई पेंसिल थामे शब्दों को मन के कैनवास पर उतारती रही। जब वह तस्वीर मुकम्मल हुई तो सोहणी ने पाया, वह बचपन से अपने अकेलेपन से जूझते हुए उदास भूपी का रंगहीन चेहरा था, जिसमें सोहणी को जीवन और प्रेम के रंग भरने थे। वह जान गई थी खामोशी भूपी की ढाल थी और एकांत उसका सहारा, और सोहणी ने सबसे पहले इन्हीं पर निशाना साधना था। वह उसके एकांत के व्यूह में प्रवेश द्वार ढूंढकर उसकी खामोशी को भंग करने का अरमान रखती थी और इसका कोई मौका छोड़ना उसे गवारा नहीं था! उसने तय कर लिया था वह उसके मन पर सातों तालों को तोड़कर भी उसके दिल में अपना आशियां बनाएगी! उसके शर्मीलेपन, सादगी और उसकी मासूमियत ने सोहणी के दिल में घर बना लिया। जिस तरह उसने सोहणी का हाथ थाम कर उसे अपनाया है, उसकी मां के चेहरे पर संतोष और सुख के सतरंगी रंग उस चितेरे की बदौलत ही तो हैं जिसने उसे बरसों की खोई नींद से मिला दिया।
भूपी दीवार से सर टिकाये हुये चांद को देख रहा है, तभी नीचे के कमरे की खिड़की से दीवार पर पड़ रही रोशनी में दो साए एकाकार होते दिख रहे हैं। भूपी को अजीब सी बेचैनी महसूस हो रही है। उसने नज़रें वहां से हटा लीं। शायद आज काके देर से काम पर निकलेगा। भूपी चुपचाप कमरे में आकर लेट गया है। उसका चित्त शांत नहीं है और नींद आंखों से दूर, बहुत दूर सैर पर निकली है। यह चांद और आंखें, दोनों की साजिश खूब रंग ला रही थी!
"चिट्टा कुकड़ बनेरे ते, काशनी दुपट्टे वालिये, मुंडा सदके तेरे ते......"
अपने काशनी (बैंगनी) दुपट्टे को लहराती, गुनगुनाती उस चंचल, चपल हिरनी ने जब कमरे में प्रवेश किया!
वह नहीं जानती कि भूपी सो रहा है या जाग रहा है! हां, पर वह जाग रही है, चांद जाग रहा है, रोशनी में नहाई गली जाग रही है और जाग रही हैं उसकी तमाम उद्दात कामनाएं! नदी का सागर के प्रति समर्पण उसका स्वभाव है और उस भाव की सुखद परिणिती उसका ध्येय! इसके लिए रास्ते में आने वाली हर बाधा, बांध को तोड़कर भी वह बढ़ती जाती है, निरंतर, गतिशील! तो पूरे चाँद की उस एक रात में सब अपने लक्ष्य की बढ़ रहे थे आहिस्ता-आहिस्ता! नदी बेखौफ़ बढ़ रही थी कि उसे सागर से मिलना था, वहीं सागर चांद के आकर्षण में समस्त गुरुत्वाकर्षण को समेटे हर पल उस आसेब से लड़ रहा था जो लगातार उसे अपने और खींच रहा था! सोहणी ने उसके करीब जाकर धीरे से उसे छुआ! अब वो भूपी के बेहद करीब थी, उन दोनों के बीच पसरी वह सर्द, अनजान रात धीमे-धीमे एक सुंदर सवेरे की तलाश में अपने मुसलसल सफर पर थी! धीरे-धीरे रात पिघलने लगी थी, जिस्म की गर्मी की तपन के आगे धधकते शोले भी शीतल झों