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उल्लू न बनाओ

गंगाराम राजी की भ्रष्टाचार की अलग परिभाषा गढ़ती एक कहानी
उल्लू न बनाओ

सेवानिवृत्त गोयल देर रात सोता तो सुबह स्वाभाविक है सूर्य उगने से पहले नहीं उठता। गृह स्वामिनी मूर्गे की बांग पर उठ कर झाडू-पोछा, नहाना धोना कर सारे काम करके चाय लेकर पति परमेश्वर गोयल के विस्तर के पास जाती और बड़े प्यार से कहती, ‘गुड मॉर्निंग।’

गोयल कोई उत्तर नहीं देता। जैसे उसकी नींद खुली ही न हो। वह अच्छी तरह से जानती कि वह सोने का नाटक कर रहा है। उधर आधी खुली एक आंख से देख जब उसे राधा की उपस्थिति का ज्ञान हो जाता तो वह उसे खींच कर दो चार मॉर्निंग चुंबन लेकर ‘गुड मॉर्निंग’ कह कर उठ जाता।

‘अरे क्या करते हो ? उमर के हिसाब से चला करो।’ अच्छा लगने पर भी बड़े प्यार से राधा बोलती।

‘इस उमर में जो आनंद प्यार करने का है वह जवानी के झमेलों में कहां ?’

इस छोटी सी बातचीत से शुरू हो जाता दोनों का चाय पीने का दौर। सुबह गोयल की गप्पे जिसे दूसरे लफ्जों में घुसियां कहते हैं शुरू हो जाती। उसे एक बार इंटरनेट का चस्का मोबाइल फोन पर क्या लगा कि यू टयूब से अच्छी-बुरी, खरी-खोटी बातें इकट्ठी कर पत्नी को चाय के प्याले के साथ बड़े नाटकीय अदाओं के साथ सुनाना शुरू कर दिया। राधा भी जानती थी कि उसका पति जो भी बोल रहा है यह उसका रसिक मन है। बाकी तो वह बहुत वफादार है। उसे भी उसकी बातें अच्छी लगती और वह चाय की चुस्की के साथ सुनती, देखती और मुस्कराती रहती।

दोनों का दांपत्य जीवन सुखपूर्वक गुजर रहा था। पीडब्लूडी विभाग की सरकारी नौकरी से सेवा निवृत्ति पर ऑफिस के काम के तनाव से छुटकारा तो मिला ही था, बच्चों के ठीक तरह से जम जाने से भी दोनों बहुत खुश थे।

उसके दोस्त कहते, ‘भाग्यशाली है गोयल। ऊपर वाला इसके काम बड़े सुचारू ढंग से करता रहता है। ईश्वर ने इसे दो बेटे दिए, वह भी जुड़वां।’ लोग उसके बारे में कहते थे, वह जब देता है तो छप्पर फाड़ के देता है। लेकिन उसे तो ईश्वर ने छप्पर फाड़ कर भी दिया था और जमीन फाड़ कर भी। दोनों बच्चे होनहार थे। दोनों ही इंजीनियर बन गए। पीडब्लूडी की नौकरी की अच्छाई-बुराई दोनों वह जानता था। इसलिए इस विभाग से उसने दोनों को दूर ही रखा। दोनों किसी प्राइवेट कंपनी पर अच्छे ओहदे और वेतन पर लगे हुए थे। इस सरकारी नौकरी की दुनिया से दूर दूसरे कोने में। वह दोनों से कोई अपेक्षा भी नहीं रखता था। रखता भी क्यों ? रिटायरमेंट पर ग्रेचुटी, लीव कैशमेंट, जीपीएफ का अच्छा पैसा उसे मिला था और पेंशन भी कुछ कम नहीं थी।   

रिटायरमेंट के बाद गोयल खुश रहना चाहता था। और चाहता उसके बच्चे भी खुश रहें। उसने उन्हें कहा था, ‘बच्चो भगवान ने तुम्हें एक साथ इस पृथ्वी पर भेजा है, अब एक काम करना जब भी घर आओ और माता-पिता से मिलने की इच्छा हो तो एक साथ घर आना। सब मिल कर मस्ती मारा करेंगे।’

दोनों बच्चे अपने डैड की आज्ञा का पालन करते हुए एक साथ ही छुटियों पर आते और मम्मा डैड के साथ खूब मस्ती मारते। गोयल के एक मित्र ने पूछ ही लिया, ‘ यार गोयल बच्चे दोनों ही बाहर दूर जॉब करते हैं तूने उन्हें यहीं अपने विभाग में क्यों नहीं लगा दिया ?’

‘भाई साहब इस बात को न ही पूछो तो अच्छा है।’

बार-बार पूछने पर भी गोयल अपने मित्रों को इससे अधिक उत्तर नहीं देता था। उसे अपने विभाग की कुछ बातें बिलकुल पसंद नहीं थी। इसलिए वह चाहता था कि उसके बच्चे भी इस चक्कर में न पड़ें। वह इस विभाग की रिश्वतखोरी के रिवाज से खुश नहीं था। ऐसा नहीं है कि उसने रिश्वत नहीं ली थी। नौकरी लगने के शुरुआती दिनों में तो वह आदर्श भारतीय सरकारी नौकर बना रहा। परंतु साथियों का साथ और इस विभाग की आबोहवा ने उसे अपने रंग मे रंग ही लिया था। शुरू में न-नुकुर के बाद जिसने जो दिया वह उसे अपने मेज की दराज में डालता चला गया। पहले-पहल कुछ लेते वक्त उसे झटका लगता था। पहले जोर का लगता था, जब आदत बन गई तो यही बात सामान्य लगने लगी। गोयल मानता था कि रिश्वत देने वाला लेने वाले को उल्लू बना जाता है। जैसे उल्लू को दिन में दिखाई नहीं देता उसी तरह रिश्वत लेने वाला दिमाग से अंधा हो जाता है। वह यह भी कहता था कि नाजायज धन आदमी को उल्लू ही बनाता है। जो उसे मिलता उसका कुछ अंश ऊपर और नीचे जाता ही था। उसके अफसर और उसके नीचे काम करने वाले इस बात पर उसकी बहुत कद्र करते थे।   

उसकी इसी आदम पर वह जहां भी तबादले पर जाता, उसे ऐसी सीट मिलने लगी जहां दराज में डालने लायक सामग्री आती ही रहती थी। ठेकेदारों को उसकी आवश्यकता पड़ती थी और उसे ठेकेदारों की। विभाग के अधिकारी उसे ऐसी सीट पर बैठाए रखने के लिए खुद ही कोशिश करते थे, ताकि गोयल उनके भी सारे ‘काम’ ठीक से करता रहे। कागजों की देख-रेख में भी वह माहिर था। उसकी टेबल से हो कर गुजरा कागज सही ही होगा, यह हर अफसर मानता था। हर आदमी अपने लिए एक सेफ साइड चाहता है और यह सेफ साइड गोयल उन्हें मुहैया कराता था।  

एक बार जब सरकार बदली तो उसके साथ काम करने वालों में से कुछ ने उसकी शिकायत मंत्री से कर उसका तबादला किसी दूर-दराज के क्षेत्र में करा दिया। वह मंत्री के पास नहीं गया बल्कि उसके अधिकारी मंत्री के पास गए और कहा, ‘महाराज यह आदमी इतना ज्ञानी है कि आप और हम सब इसके साथ सेफ रहते हैं।’ अफसरों ने उसकी तारीफ में कसीदे काढ़े और उसका तबादला रुकवा दिया।

उसने कभी खुद रिश्वत नहीं मांगी। देने वाले ही उसके पीछे पड़े रहे। दरअसल देने वाले सबको इस तरह पाठ पढ़ाते हुए तैयार करते हैं कि लेने वाला कितना भी ईमानदार क्यों न हो मान ही जाता है। एक बार उसके दोस्तों ने इस बारे में उससे पूछा था तो वह दार्शनिक अंदाज में बोला था, ‘देखो भाई भगवान जब मनुष्य को इस लोक में भेजता है तो वह केवल इंसान होता है। बाद में वह समाज के रवैए के अनुसार इमानदार या बेइमान हो जाता है। खुद को समाज के अनुसार ढालना पड़ता है मेरे भाई।’ वह अकसर एक किस्सा भी सुनाया करता था, ‘मैंने जब दसवीं पास की तो एक दोस्त से मिलने गया। दोस्त सरकारी स्टोर में क्लर्क था और उसके स्टोर में दुनिया भर की घरेलू चीजें थीं। जैसे, पंखे, ट्यूबलाइट, बल्ब, हीटर, तार आदि।’ सुनाते हुए वह अकसर चुप हो जाता जैसे बादल फटने वाला हो। फिर एक घूंट पानी पी कर नाटकीय अंदाज में कहानी आगे बढ़ाता, ‘मेरा मित्र मुझ से बोला, ‘गोयल तुझे जो भी चीज चाहिए ले ले।’ मैं हक्का-बक्का रह गया कि यह क्या बोल रहा है ? आखिर सरकारी चींजें कोई किसी को कैसे दे सकता है। मैंने उससे पूछा, यह सारी चीजें तेरी हैं? ‘नहीं सरकारी है। मैं कहीं न कहीं इसे एडजस्ट कर दूंगा। तूं चिंता मत कर।’ मैंने उसकी ओर देखा और कहा, देख इस बार तो बोल दिया। अगली बार ऐसा कुछ मत बोलना वरना मैं तेरे हाथ का छुआ भी नहीं पीऊंगा। कुछ देर के बाद हम सामान्य हुए। कुछ साल बाद जब मैंने घर बनाया तो मुझे पंखे, ट्यूबलाइट, तारों की जरूरत पड़ी। मुझे उसी दोस्त की याद आई। मैं तुरंत उसके पास गया। उसने मुझे कहा कि वह मेरी पहले कही गई बात को भूला नहीं है। पर मैंने उससे कहा कि पहले हमने माहौल बिगाड़ा और अब वही हम लोगों को बिगाड़ रहा है। वह इस उत्तर से बहुत संतुष्ट हुआ और मेरे घर में एक के बदले तीन पंखे और बल्बों की कतार झिलमिलाने लगी।’ उसकी बात की सबने तारीफ की और यही समझा कि वह हिसाब से और वक्त पड़ने पर ही रिश्वत लेता है।

बस यही वजह थी कि वह नहीं चाहता था कि उसके बच्चे सरकारी तंत्र के फेर में पड़ें। वह अपने दोस्तों से कहता, ‘इस विभाग का माहौल ठीक नहीं है। बच्चों को प्राइवेट नौकरी ही ठीक रहेगी। हमारे देश में लेन-देन इतना बिगड़ गया है कि अब सब गलत काम में लग गए हैं। लोग काले धन की बात करते हैं और कहते हैं कि विदेश में काला धन जमा हो गया है। मैं कहता हूं कि यह बात वही करते हैं जिनके पास काला धन विदेश में नहीं है। काला धन हमारे देश में जितना है उतना तो स्विस में भी नहीं होगा। हमारे ऊपर बैठे अधिकारियों के पास, तथाकथित देश के कर्णधारों के पास, ऊपर से नीचे तक सब के पास काला धन है। कितने हजार करोड़ है यह किसी को नहीं पता। पहले अपने देश का काला धन इकट्ठा करो भाई, फिर बाहर से लाओ। जिसे करने में आप सक्षम हैं वह तो करो पहले। जनता को उल्लू न बनाओ। न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी।’ गोयल अक्सर ऐसी दलीलें देता रहता था।

गोयल के दोस्त कहते, ‘बात तो है। अपने देश में ही इतना काला धन है कि सब बाहर निकल जाए तो शायद गरीबी ही खत्म हो जाए। सब सियाती खेल है। इसलिए अपने घर में आनंद से रहो।’

गोयल के दोनों बेटे घर आए हुए थे। पूरा परिवार आनंद में डूबा हुआ था। लेकिन उनकी मस्ती में तब खलल पड़ गया जब एक अधिकारी अपनी बेटी के लिए रिश्ता ले कर आया साथ ही उसने बहुत सारे दहेज की पेशकश भी की। उसका मतलब सीधा सा था, दौलत के प्रभाव में उसकी बेटी घर पर राज कर सके। गोयल के बेटों को जब इस बात का पता चला तो दोनों बेटों में स्पर्धा बढ़ गई कि कौन ज्यादा पैसे वाली लड़की से शादी कर पाएगा। किसका ससुराल ज्यादा अमीर होगा। अगली छुटियों में गोयल के बेटे उसके पास नहीं आए वे सीधे उस अफसर के घर जाने लगे जो अपनी बेटी का रिश्ता ले कर आया था।

गोयल को बेटों की यह हरकत बहुत नागवार गुजरी। वह चुप सा रहने लगा। उसका यू ट्यूब का चस्का बंद हो गया। पत्नी के साथ गुड मॉर्निंग बंद हो गई। उसे लगा कोई उसे उल्लू बना गया है। अब पति-पत्नी अकेले रहते हैं। गोयल चुप-चुप शून्य में कुछ खोजता रहता है। वह महाकवि निराला के उस ठूंठ की तरह हो गया है जहां न अब कोयल आती न कोई पथिक। अब लड़के अपनी बीवियों के साथ उससे बहुत दूर अलग-अलग बंगलों में रहते हैं। गोयल के पास आए उन्हें बहुत दिन बीत गए हैं। उनको किसी चीज की जरूरत हो तो उनका ससुर दराज में वह चीज रख जाता है। 

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