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कहानी - दूर है किनारा

अंजू शर्मा मूलतः कवयित्री हैं। उनकी कविताएं आसपास की घटनाओं और जीवन के अनुभवों से गुजर कर शब्दों का चोला पहनती हैं। उनकी कविता चालीस साला औरतें पिछले दिनों बहुत चर्चितं रही थी। हाल ही कहानी लिखना शुरू करने वाली अंजू की कहानियों ने अलग मुकाम बना लिया है। सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।
कहानी - दूर है किनारा

 

तपन ने आसमान की ओर सर उठाकर देखा तो कुछ देर बस देखता रहा! आकाश तो वहां भी था पर इतना खुला कभी नहीं लगा,  हवा तो वहां भी थी पर इतनी आजाद,  इतनी खुशनुमा कभी न थी! उसने जोर से सांस खींची, इतनी जोर से मानो ब्रह्मांड की सारी हवा अपने फेफड़ों में भर लेने की ख्वाहिश रखता हो! कैसा हल्का महसूस कर रहा था खुद को, जैसे सदियों से एक बोझ उठाए हुए उसका वजूद थक गया था! कैसी थी यह थकान। बचपन में सुनी थी मां से कहानी कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर टिकी है! आज लगा, नहीं, सब झूठ है, निरा प्रलाप है, पृथ्वी तो उसके कंधों पर टिकी थी, बस अभी तो मुक्त हुआ था वह उसके भार से! और ये सुबह.... इस सुबह की प्रतीक्षा में कितनी रातें तपन ने बिना जागे ही काट दी, रातें जो उसकी आंखों में उगी, ढली और सो गईं पर क्या वह कभी सुकून का एक लम्हा जी पाया था!

 

बस के हॉर्न ने तंद्रा भंग की तो वह बिना कोई समय गंवाए बस में सवार हो गया! सब कुछ कितना बदल गया था! उसकी जिन्दगी ही नहीं, बस भी, फ्लाईओवरों से पटा शहर भी, यहां तक कि टिकट लेने का तरीका भी! एक इलेक्ट्रॉनिक मशीन से फाड़कर एक पर्ची उसके हाथ में थमा दी गई, यही टिकट थी! उसे उलटपुलट करता वह खिड़की के पास की एक सीट पर बैठ गया जो अभी खाली हुई थी!

 

"खूनी....हत्यारे.....तुझे कभी चैन ना मिलेगा रे तपन..!!!!" माला बोउदी याद आईं, उनका चीखना और बेहोश हो जाना! 

 

ये शब्द उसकी आत्मा पर खुद गये थे!  इतने सालों से मानों उसका जिस्म एक ताबूत था जिसमें कैद उसकी आत्मा परकटे पंछी सी छटपटाती रही थी इन चौदह सालों से!  चौदह साल गहन अन्धकार के, निराशा के, नाउम्मीदी के!  हर दिन एक सूरज उगा करता था पर उसके नाम का सूरज तो आज ही उगा!

 

जिस दिन हत्या के आरोप ने उसके नाम के सूरज को निगल लिया था, अंधेरा उसका नसीब बन गया था और आज जब  छह साल उसकी झोली में डाल दिए गए, अच्छे चालचलन के नाम पर, वह समझ नहीं पा रहा था, किस्मत को रोये या उसका शुकराना अदा करे!  बीस साल के निर्वासन की यात्रा चौदह के अंक पर थमी तो जैसे जिन्दगी जो किसी रूकी घड़ी-सी थी, चल पड़ी!

 

एक झटके से बस रुकी और वह लौट गया अपने आज में! उसने खिड़की की ओर नजरें घुमाई तो सामने वही बस स्टॉप था! उसके पीछे गलियां, और पांच मिनट की चहलकदमी के बाद उसकी कल्पना स्थिर हुई! सामने होगा "भास्कर पाइपलाइन्स प्राइवेट लिमिटेड" का बड़ा सा बोर्ड, लोहे का बड़ा गेट, ऊंची चारदीवारी जिसके भीतर उसने अपने सपनों की बुवाई की थी! दस साल अपने खून-पसीने से सींचता रहा पर फसल उगने के इंतज़ार में ही एक दिन बदकिस्मती के काले बादलों ने ढक लिया उसके जीवन को! फिर खूब बारिश हुई, काली बारिश, उसी बारिश में घुल गये सारे सपने, सपने जो उसने और शुभा ने साथ-साथ संजोये थे!  सुखी गृहस्थी का सपना,  सुहास और मंजरी को पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाने का सपना! यही तो कहता तपन, मेरा बच्चा सब चौकीदार नहीं बनेगा!  बड़ा आदमी बनेगा!”  पर सपनों का यह आशियाना बस एक झटके में ढह गया!

 

तेज़ बारिश में उस सुनसान रात में चोरी के लिए घुसे, उन दोनों ने फैक्ट्री ही नहीं उसके सुखी संसार में सेंध लगाई थी! जब वह छोटा था, मां कहा करती थी, "सब पहले से लिखा है रे तपन!  कब क्या होगा, सब लिखा है!"

 

क्या ये भी पहले से ही लिखा था कि वे फैक्ट्री में घुसेंगे,  तपन को आवाज़ आएगी और वो आवाज़ की दिशा में टोर्च लिए दौड़ेगा?  ये भी कि उनमें से एक सुबोध निकलेगा जो तपन पर पिस्तौल तान देगा?  क्या सुबोध नहीं जानता था कि रात की पाली में तपन की ड्यूटी है?  सुबोध नहीं होता तो क्या तपन को काबू करना मुश्किल था?   उसके भरोसे को ठेस लगी पर संभल भी गया था तपन!

 

मां, क्या उस गोली पर भी नाम लिखा था जो छीना झपटी में चली और उसके साथी को जा लगी! जानवर बना सुबोध, वहशी दरिंदे की तरह टूट पड़ा था!  कितना तो रोका, गिडगिडाया तपन! उस पर खून सवार था!  फिर क्या हुआ, बस याद था तो यही कि उसे घर जाना था, शुभा को माछेर झोल के लिए माछ चाहिए था! दो दिन से कह रही थी.....और मंजरी को...गुलाबी....खूब झालर वाला फ्रॉक....सुहास को नया कलम, ठीक सुबोध काका के बेटे जैसा, चमचम रुपहला!  सब लेकर जाना है! तब लगा, सुबोध सब छीन रहा है, उसकी रोजी ही नहीं सब कुछ!  कैसे सब ले जाने देता तपन,  कैसे?

होश आया तो अस्पताल में था!  वहीं से पुलिस ले गई थी! तीन गोली लगी थीं सुबोध को! अदालत में ही जाना तपन ने!  नहीं जानता था तपन, उसकी भूख बड़ी थी या सुबोध की या फिर फैक्ट्री मालिक की जिसने बिना कारण बिना नोटिस सुबोध और कई लोगों को निकाल बाहर किया था!

कंडक्टर की कर्कश आवाज़ ने ध्यान खींचा, जो किसी से खुल्ले पैसे मांग रहा था! स्मृतियां ठिठकीं, अगला स्टॉप, यानि उसका गंतव्य बस आने को है! कम से कम उसकी इन्द्रियां अपने गंतव्य को लेकर अभ्यस्तता का अभ्यास चौदह साल के लम्बे अन्तराल के बाद भी नहीं भूली!  

 

बाहर वही कुछेक पुरानी इमारतें, प्रभु जनरल स्टोर, अतीत के वैभव को ढोता जर्जर मंगल हाउस, बीच से गुजरता गलियारेनुमा रास्ता उसके किनारे खड़ा विशालकाय पीपल...चलो कहीं कुछ तो ऐसा है जो नहीं बदला.....उसने एक लम्बी सांस लेकर सोचा तो उसे वर्तमान से अपनी अजनबियत कुछ कम होती प्रतीत हुई!

 

सराय रोहिल्ला का फ्लाईओवर शुरू हो गया था!  ठीक बीच में स्टॉप था! आहिस्ता से उतरकर तपन ने तेज़-तेज़ चलना शुरू किया! घर अब थोड़ी ही दूरी पर था, बीच में बाज़ार था! अपने हाथ के छोटे बैग को कलेजे से  लगाये था तपन!

सब कितना बदल गया है! कच्चा रास्ता, पक्का है, सीवर भी डल गया है! फोन की ये दुकान, मिठाई की ये बड़ी-सी दुकान पहले तो नहीं थी! रसगुल्ले खरीदे तपन ने, मंजरी को बहुत पसंद है और सुहास के लिए वो नीले कागज़ वाला चॉकलेट मिठाई!  शुभा के लिए एक साड़ी भी, माछ भी लाना था पर यहाँ माछ नहीं मिलता पास में, कल जरुर लायेगा,  शुभा से अच्छा झोल कोई नहीं बनाता, कोई भी नहीं! तरस गया तपन इतने साल में!  

चिट्ठी नहीं भेजी उसने, परेशान होकर भागेगी वह! उसके जेल जाने के बाद अपने मां-बाबा के पास चली आई थी शुभा! वहां सुबोध के परिवार के पास, माला भाभी के सामने की खोली में कैसे रहती! पहले मां गई और अब दो साल पहले शुभा के बाबा भी नहीं रहे! उस दिन आखिरी बार मिलने आई थी तो तपन ने बोल दिया था, दिल पक्का करने को, जेल ना आने को! बच्चों के लिए, उनके अच्छे कल के लिए! इतना दूर जेल आयेगी तो बच्चा सब को कौन देखेगा!  घर में जो काम करके चार पैसा बनाती थी उसका हर्जा अलग!

कितनी तस्वीरें जेहन में उभर रही थीं!  उसे देखकर हंसती-रोती शुभा, दौड़कर उसके घुटनों से लिपटते मंजरी-सुहास! बिल्कुल पगला जायेंगे न सब! 

हां यही घर है, बिल्कुल वैसा ही!  आसपास तो सब बदल गया है!

“कौssssन? सुहास, दाखो तो ओ लोग आ गया!”  ये शुभा ही थी!

“मांssssss” कितने प्रश्न, कितना अजनबीपन पसरा था उस चेहरे पर जो दरवाज़े के उस ओर था!

“की होलो?” उसे पहचानने में चश्मे से झांकती शुभा को उतना वक़्त नहीं लगा पर उसके चेहरे पर तिरता असमंजस क्या छिप पाया था तपस से!

“बाबा...सुहास....” सकते में खड़े सुहास ने माँ के इशारे पर पांव छुए, तब तक मंजरी भी आ गई थी अंदर के कमरे से! दौडकर सबको सीने से चिपटा लिया था तपन ने!  इतने बड़े हो गये थे बच्चे!!!!  गया तो मंजरी आठ साल की थी और सुहास पांच साल!  अभी देखो, कितने बड़े हो गये!  आँख धुंधला रही हैं तपन की, सूझता भी नहीं!  और शुभा....खिचड़ी बाल, झुर्रियों से भरा चेहरा, चालीस से कुछ ऊपर की ही तो होगी पर पचास से कम नहीं मालूम होती है!

“तुमी .....आज ....”

पर ये लोग उसे देखकर खुश हैं या...?  तय नहीं कर पाया तपन! हां खुश हैं! पर......क्या है जो इस ख़ुशी पर छाया है?  कुछ तो है! शुभा बार-बार द्वार की तरफ देखती है, तीनों एक-दूसरे को देखते हैं! उनकी उलझन छू रही है तपन को! नहीं अब चुभ रही है! हाथ का सामान वहीं रखा है! बैग अभी भी कंधे पर टंगा है!

बाहर तेज़ हवा का झोंका सिहरा रहा है! कहां जा रहा है तपन, किस दिशा में, मालूम नहीं! कब लौटेगा, नहीं मालूम!  ये जो वक़्त है न, बीतता नहीं है, वो तो अतीत और वर्तमान के बीच कहीं खड़ा हो जाता है चट्टान की मानिंद!  सख्त, विशाल और मजबूत-सी चट्टान! वो सीधे अतीत से अपने वर्तमान में कैसे जा सकता है....कैसे भूल गया था तपन इस चट्टान को! 

आज वहां किसी और की प्रतीक्षा थी!  वो लोग मंजरी की शादी की बात करने आने वाले थे!  आस्तीन से आंसू पोंछ लिए  तपन ने!  इतनी बड़ी हो गई उसकी नन्ही मंजरी! उनके सामने कैसे जा सकता था तपन!  वो खूनी तपन, हत्यारा तपन....दो लोगों का हत्यारा, अपने ही मित्र का हत्यारा तपन!  

लडकी का बाबा अभी जेल से हत्या की सज़ा काटकर आया है!  नहीं, नहीं... कैसे शामिल हो सकता था अभी उनकी ख़ुशी में! उनकी खुशियों में कहीं कोई रिक्त स्थान नहीं था जो तपन के नाम से भरा जा सकता था! चट्टान जैसे कुछ और बड़ी हो गई!  तपन को लगा ये चट्टान अतीत और वर्तमान के बीच नहीं, उनके संबंधो के बीच उग आई है, जिसकी नींव उसकी छाती पर है!  दब रहा है तपन का पूरा अस्तित्व इसके बोझ तले, दबता ही जा रहा है धीरे-धीरे!     

 

 

 

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