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ठंडा माने एक अधूरी इच्छा

5 अक्टूबर 1955 को जन्म। छह कहानी संग्रह, 3 उपन्यास और एक कविता संग्रह। पहली कहानी सन 1978 में सारिका में प्रकाशित। दूरदर्शन और आाकाशवाणी के विभिन्न केंद्रों द्वारा कहानियों पर टेलीफिल्म और रेडियो नाटकों का निर्माण। कई कहानियों का भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में कहानियां अनूदित।
ठंडा माने एक अधूरी इच्छा

 

लड़के ने ठंडे की बोतल पकड़ कर दुकान के काउंटर पर अभी बमुश्किल कुहनी टिकाई ही थी और तिरछा होने के लिए कमर को लचकाया ही था कि दुकानदार बिफर गया।

'नीचे उतर, मैं कहता हूं नीचे उतर, चबूतरे से नीचे उतर।’

 

लड़के के ढीठ कदमों को चबूतरे से नीचे न उतरते देख कर दुकानदार हाथ लहरा-लहरा कर चिल्लाने लगा और तभी चुप हुआ जब लड़का चबूतरे की नुक्कड़ पर पहुंच गया। लड़के ने नुक्कड़ पर ही खड़े होकर बोतल को मुंह से लगाकर घूंट भरा, पर हड़बड़ाहट में कुछ ज्यादा ही ठंडा मुंह में भर गया। ठंडा गले से नीचे जाते ही गैस से भरी हुई ऐसी डकार आई कि लड़के की आंखों में पानी उतर आया और नाक-कान चिरचिरी हवा से भर गए। उसकी डकार की तेज आवाज से दुकानदार फिर चिढ़ गया और दोबारा चीखने लगा।

 

'नीचे उतर। तुझसे कह रहा हूं नीचे उतर। कमबख्त सुनता ही नहीं। नीचे उतर।’

दरअसल, आज लडक़े को एक कोठी के कबाड़ में प्लास्टिक और गत्ते का जखीरा मिल गया था। वह बेहद खुश था। वह प्लास्टिक बेच चुका था और गत्ता बेचने के लिए जा रहा था। इसलिए उसकी जेब में आज इतने पैसे थे कि वह पूरे रुतबे के साथ दस रुपये वाली ठंडे की बोतल पी सके। भला उसकी इच्छा पर किसी को ऐतराज भी क्या होता। एतराज था तो उसकी अदा पर। वह विज्ञापन वाले फिल्मी अदाकार की तरह दुकान के काउंटर पर कुहनी टिका कर ठंडा पीना चाहता था, जो दुकानदार को कतई मंजूर नहीं था।

 

प्लास्टिक की सफेद तांत से बुना हुआ उसका बोरा आज ठूंस-ठूंस कर मुंह तक गत्ते से भरा हुआ था। प्लास्टिक बेच कर आए पैसे उसकी जेब में फुदक रहे थे और गत्ते बिकने से भी अच्छे पैसे मिलने की उम्मीद थी। इसलिए उसने तय किया था कि आज शाम भी वह चमचमाते हुए शीशों के बड़े-बड़े दरवाजों वाले भटियार खानों के सामने खड़े होकर चिकने-चुपड़े बच्चों को ललचाने के लिए गुब्बारे नहीं बेचेगा। कमबख्त दरबानों की झिड़कियां नहीं खाएगा और पूरी टिकट खरीदकर पिक्चर देखने जाएगा।

 

सिनेमा हॉल में परदे के पीछे की दीवार से चिपक कर अंदर से आती अपुष्ट आवाजों के सहारे, सिनेमा का मजा लेने की कोशिश वह कई बार कर चुका था पर हर बार दुरदुरा दिया गया था। जैसे, आज यह कमअक्ल और बदशक्ल दुकानदार उसे दुरदुरा रहा था।

 

यह सच है कि लड़के के कपड़े धुले और साफ नहीं थे। जो हो भी नहीं सकते थे। क्योंकि उसे मतलब की चीजें बीनने के लिए बदबू मारते हुए कई तरह के कबाड़ से भरे ढेर में घुसना पड़ता था। यह भी सच है कि उसका रंग साफ नहीं था और यह मुमकिन भी नहीं था। वह चिलचिलाती धूप में दिन भर शहर के कोने-कोने में भटकता रहता था। इस सबके बावजूद वह ठंडे की उस दस रुपये वाली बोतल को, पूरी ठसक से दुकान के काउंटर पर कुहनी टिका कर पीना चाहता था। विज्ञापन वाले फिल्मी अदाकर की तरह। उसे समझ नहीं आ रहा था कि दस रुपये का खरा रोकड़ा देने के बाद भी यह दुकानदार उस पर चिल्ला क्यों रहा है।

 

दरअसल, चार फीट के कुचैले हुलिए और कांधे पर लदे हुए कबाड़ से भरे बोरे के बावजूद लडक़े ने जिस अंदाज में दुकानदार से ठंडा मांगा था उससे दुकानदार बौखला गया था पर चुप रहा था। वह चिल्लाया तो तब था जब लड़के ने बोतल पकड़ने के बाद बिंदास अंदाज में काउंटर पर कोहनी टिका कर ठंडा पीने की कोशिश की थी। दुकानदार चिल्लाया ही नहीं था, बल्कि अब भी चिल्ला रहा था।

 

'साले भिखमंगे। दस रुपये की बोतल ली तो जैसे दुकान खरीद ली। नीचे उतर।’

 

दुकानदार अब बेवजह चिल्ला रहा था क्योंकि लड़का पहले ही चबूतरे से नीचे उतर चुका था और अब गत्ते से भरे हुए बोरे पर कुहनी टिका कर धीरे-धीरे ठंडा पी रहा था। पर उसे काउंटर पर कुहनी टिका कर ठंडा पीने जैसा मजा नहीं आ रहा था, जिसके लिए उसने दस रुपये नकद खर्च किए थे। इसका उसे मलाल था।

 

लड़का भिखमंगा नहीं था और उसे अपने लिए भिखमंगा कहा जाना अखर रहा था। पर वह चुप रहा। दुकानदार चिड़चिड़ा था और लड़का सहनशील।

 

मान-अपमान का कोई खाना लड़के के दिमाग में नहीं था। दिन भर वह कई बार दुरदुराया जाता था पर आज दुकानदार के व्यवहार से खीझने लगा था। आज उसकी जेब में पैसा था। वह नकद खरीदी हुई ठंडे की बोतल, किसी फिल्मी अदाकार की तरह काउंटर पर कुहनी टिकाकर पीना चाहता था, तो इसमें बुराई ही क्या थी? लड़का यह समझ नहीं पा रहा था। बस, इसलिए दुकानदार का व्यवहार उसे सालने लगा था और वह चिढ़ गया था।

 

लड़के ने गत्ते से भरे हुए बोरे को एक बार उठा कर देखा। भरा हुआ होने के बावजूद बोरा इतना भारी नहीं था कि लड़का उसे उठाकर भाग न सके। लड़का खाली हो चुकी ठंडे की बोतल लेकर चबूतरे पर चढ़ा और काउंटर के पास पहुंच कर चिरोरी भरे अंदाज में बोला, 'एक ठंडा और पिलाएगा सेठ।’

 

'जेब में पैसे है?’ दुकानदार ने उसे कुछ आश्चर्य से देखा।

'खरा रोकड़ा।’ कहने के साथ ही लड़के ने दस का एक नोट जेब से निकाल कर कुछ इस अंदाज में काउंटर पर पटका जैसे कोई शातिर जुआरी सामने वाले को मनोवैज्ञानिक मात देने के लिए चाल चल रहा हो। दुकानदार अभी बोतल से भरे फ्रिज की तरफ बढ़ा ही था कि लड़का फिर बोला, 'पर इस बार काउंटर पर खड़ा होकर पिऊंगा सेठ।’ लड़के को उम्मीद थी कि दुकानदार दूसरी बार दस रुपये के लालच में इस बार उसकी शर्त मान लेगा। पर शायद उसे अपने गंधियाते हुए जिस्म का अंदाज नहीं था। दुकानदार फिर भड़क उठा और चिल्लाया, 'खाली बोतल, बाहर क्रेट में रख और दफा हो।’ दुकानदार ने चबूतरे पर रखे खाली क्रेट की तरफ इशारा किया।

'बिगड़ता क्यों है सेठ, खरा रोकड़ा देता हूं, पीने दे न।’ लड़के ने फिर खुशामद की।

'सुना नहीं। बोतल क्रेट में रख और दफा हो।’ इस बार दुकानदार पूरी ताकत से चिल्लाया

'बोतल क्रेट में रख दूं?’ दस रुपये का नोट काउंटर से उठाकर जेब में रखते हुए, दुकानदार की झिड़कियों से बेजार लड़का इस बार आश्चर्यजनक रूप से हंसा और उसने कृत्रिम मासूमियत से पूछा, 'नहीं तो क्या मेरे सिर पर रखेगा।’ दुकानदार फिर चिढ़ गया।

'हां, तेरे सिर पर रखूंगा।’ समझौते की सभी संभावनाएं खत्म होते देख लड़का तन गया और उसने पूरी ताकत से ठंडे की बोतल चबूतरे पर दे मारी। कांच के टुकड़े और किरचें छिटक कर दूर तक फैल गए।

 

अचानक हुई इस हरकत को दुकानदार समझता और हैरानी से उबरता कि उससे पहले ही लड़का चबूतरे से नीचे कूद गया और हाथ से कुछ ऐसा इशारा किया कि दुकानदार की धमनियों में बहता हुआ लहू उसके चेहरे को फाड़कर आंखों से टपकने लगा। गालियां बकता हुआ दुकानदार, पैर में फंसी हुई चप्पल निकाल कर उसे किसी घातक हथियार की तरह हाथ में उठाकर बाहर की तरफ लपका। पर तब तक लड़का गत्ते से भरा हुआ बोरा उठाकर भाग चुका था।

भागता हुआ लड़का सोच रहा था कि किसी दुकान के काउंटर पर कुहनी टिका कर उस फिल्मी अदाकार की तरह ठंडा पीने के लिए अब उसे दस रुपये और गंवाने पड़ेंगे। आज की अच्छी आमद के बाद भी उसका बजट घाटे में चला गया था।

'कमबख्त बूढ़ा’ वह गुर्राया और भागता चला गया।

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