बमुश्किल छह लाख जनसंख्या का अलवर शहर कहने को तो मारवाड़ राजस्थान का एक ज़िला है। लेकिन नई दिल्ली के सबसे क़रीब और हरियाणा-यूपी से सटे इस मझोले शहर ने इधर 'पधारो म्हारे देश' की परिभाषा में नया पाठ जोड़कर जैसे राजस्थानी हौंसले को नई रंगत दे दी। पिछले वर्ष 18 दिसम्बर , 2024 से आरम्भ "अलवर रंगम : 2024" ने राजस्थान के इस शहर को देश के साथ विश्व की नाट्यपट्टी में दर्ज करवा दिया है। आमतौर पर दो-चार दिनी छोटा-मोटा नाट्य समारोह करने के बाद संस्थाएं और सरकारी अमला भी उसका महीनों पारायण करता दिखाई देता है। लेकिन अलवर में नाटक बिरादरी के लिए, जाहिर है दर्शकों के लिए भी जो घट रहा है उसकी मिसाल तो बेमिसाल मानी जाएगी। ज़रा ध्यान दें कि यह नाट्य समारोह सौ दिवसीय है। जी हाँ, पूरे सौ दिन चलने वाला। जब 27 मार्च , 2025 को 'विश्वरंगमंच दिवस' की संध्या इसका समापन हुआ ,तो इसने सौ का अपना जुनूनी आंकड़ा आयोजक 'रंग संस्कार ग्रुप' पूरा कर दिया।
चौंकाने वाले इन इरादों के पीछे आत्मविश्वास लिए खड़े हैं देशराज मीणा। साधारण मध्यमवर्गीय नौकरी पेशा परिवार से आने वाले मीणा के हौसलों की पटकथा जानने से पहले तनिक ठहरिए , बड़े रंगमंचों का अर्थशास्त्र दरुस्त करने वाले खजांची तो मुंह फाड़ देंगे जब उन्हें पता लगेगा कि संस्कृति संरक्षण का गुणगान करने वाली सत्ता से अलवर के इस आयोजन के नाम न पहले फूटी कौड़ी आई न इन दिनों चल रहे इस सौ दिनी "अलवर थियेटर फेस्टिवल" को कोई अनुदान मिला। एक भी प्रायोजक नहीं ! फ़िर? चमत्कार ऐसे नहीं गढ़ा करते।
ऐसे समय जब महानगरीय थियेटर संसाधन, जुगाड, विज्ञापन, रेपर्टरी , 'तुम मुझे आमंत्रित करो मैं तुम्हें' वाले सिद्धांत पर टिका हो तब राजस्थान के एक सीमांत इलाके में इतनी लंबी अवधि तक प्रतिदिन बिना बाधा नाटक देखने का न्योता देना आसान तो कतई नहीं है। लेकिन 'शतक लक्ष्य' को लेकर युवा निर्देशक मीणा कसीदाकारी जैसी महीन तैयारी किए बैठे हैं। 'मान लीजिए किन्हीं कारणों से कोई दल न आ पाए तब?' इस अंदेशे ने तो उनके भीतर सौ का विचार उठते ही अपना जाल फैला दिया था। हालात से निपटने उन्होंने कुछ मंडलियां सुरक्षित रखी हैं जो इस शताब्दी यज्ञ में अपनी आहुति लेकर अड़चन उठते ही दाखिल हो जाएगी।
असामान्य सी इस कवायद के पीछे उनका एक ही प्यार है नाटक और सिर्फ़ नाटक। आइए ज़रा नेपथ्य खंगाले : महाराजा जयसिंह के जिस अलवर में पारसी थियेटर की सत्तर बरस पुरानी परंपरा लोगों ने देखी है वहां एक समय रंगमंच करने वाली दस नाट्य संस्थाएं सक्रिय थीं जो आज सभी अपनी मांद में सुस्ता रही हैं। इसी खालीपन को देख मीणा ने अपने 'प्रशासकीय रंगकौशल' के पत्ते खोल दिए । न पूरी तरह मारवाड़ न आधुनिक। मिले जुले रस वाले इस आर्ट लवर शहर में थियेटर को आगे बढ़ाना मीणा के जीवन की अब मंशा बन गई है। इधर के बरसों में उन्हें अपनी राह सफल होते दिख रही है लेकिन सौ के पड़ाव पर एकाएक नहीं कूदे। पहली बार सन् 2014 में 8 नाटकों का एक समारोह शुरू कर जैसे ख़ुद का इम्तिहान ले लिया था। हौसला तो तब भी कम नहीं था। ख़ुद के भीतर से आवाज उठती सुनीं कि , आगे बढ़ते जाओ। बक़ौल मीणा , 'और मैंने अवधि बढ़ाना शुरू कर दिया।' पिछला समारोह 75 दिनों का था उसमें उन्होंने एक ऐसे दंपत्ति को अंतिम दिन सम्मानित किया जिन्होंने पूरे पचहत्तर दिन नाटक देखा। इस वर्ष भी कुछ बिला नागा आ रहे हैं। पहले नाटक , बाद में विवाह समारोह ऐसे दर्दी भी हैं!
समारोह की प्रचार सामग्रियों में लिखा 'रहना खाना फ्री' मात्र सौंदर्य बढ़ाने वाला वाक्य नहीं, सच्चाई है। देश के किसी भी हिस्से से आकर कोई नाटक देखना चाहें तो अलवर उसके आतिथ्य में जाजम बिछाने तैयार हैं। आर्थिक दबावों से जब कभी वे हताश होते हैं तो उन्हें अपने पिछले समारोह याद आते हैं कि कैसे उन्होंने दिन बढ़ाते हुए लोगों को नाटक देखने की एक तरह से आदत डाल दी। पैसों की तंगी से तब भी डगमगाए थे, लेकिन बनती गई साख का ही असर है कि काम रुकता नहीं। अब तक बैचलर हैं सो परिवार ही एक तरह से रंगमंच है। बड़े भाई भले नाटक देखने न आते हों, जरूरत देख पैसों का गुपचुप बंदोबस्त कर देते हैं। और संस्थाएं भी उन्हें पैसों के लिए कभी तंग नहीं करतीं।
ध्यान दें कि प्रतिदिन मंचन के अलावा भी नेपथ्य से कुछ ख़ास निकल रहा है। मसलन सौ नाट्य निर्देशकों की सूची। सौ बढ़िया कथानक, और नए दर्शकों का आगमन। समारोह अवधि में मीणा स्कूली बच्चों में रंग संस्कार देने दिन में विशेष शो कर रहे हैं। जिसका लाभ मंडलियों को होने लगा है। एक शहर में तीन प्रयोग का सुख लेकर भी वे लौट रही हैं । हर दिन प्रयोग के बाद भरने वाले चर्चा सत्रों का रोमांच तो बना ही हुआ है।
इतना सब देख आसानी से समझा जा सकता है कि इच्छा शक्ति ही बड़ी पटकथा है। यानी थियेटर के लिए भारंगम जैसा दैत्याकार मंच होना जरूरी नहीं, अलवर जैसा प्रकाशपुंज भी है - जो अलख जगा रहा है।
अलवर से उठी इस रंग आवाज़ को सैल्यूट करने वाले भी खड़े हैं। सिनेमा और छोटे परदे की दुनिया का नाम राजेंद्र गुप्ता जो अपने दो नाटकों के साथ इसके चश्मदीद हैं सीधे इसे 'हैरान करने वाला चमत्कार बताते हैं।' सुदामा पांडेय 'धूमिल' लिखित एकल नाटक "पटकथा संसद से सड़क तक" के बाद सौंवा दिन उनके दो पात्रीय "जीना इसी का नाम है" से होगा । जिसमें उनका साथ देंगी अभिनेत्री - हिमानी शिवपुरी।
और जयपुर निवासी रुचि भार्गव नरुला महेश दत्तानी के जिस नाटक "थर्टी डेज़ इन सितंबर" लिए पहुंचीं वह साधारण अंग्रेजी में लिखा 'कच्ची उम्र' को जकड़ने वाले यौन शोषण पर टिका है। समूची मण्डली पसोपेश में कि मारवाड़ दर्शक अंग्रेज़ी प्ले पर कैसे रिएक्ट करेगा? लेकिन संशय हवा में उड़ गया! दशकों ने हाथों-हाथ लिया। नरूला चकित थीं कि सबसे अधिक ऑनलाइन टिकटें उन्हीं के नाटक की बिकी और अगले दिन जब बातचीत का सेशन हुआ तो ताली बजाकर उठ जाने की बजाय इस पर खुलकर बोला। लोग बेझिझक हुए कि कैसे 'इस गंदे अनुभव का शिकार' वे भी कभी बने।
उधर, महाराष्ट्र से एनएसडी डिग्रीधारी जयंत गाड़ेकर अलवर का रुझान पहले समारोह से देख चुके थे। इस बार अपना ही लिखा "पापा पेट का सवाल है" मंचित किया। फ़िल्म - वेब सीरीज में खासे सक्रिय गाड़ेकर को अलवर समारोह की खातिर राजकुमार हिरानी के प्रॉजेक्ट से छुट्टी लेने में कतई झिझक नहीं थी। उलटे हिरानी भी खुशी खुशी उनके नाटक प्रेम के साथ खड़े हो गए। गाड़ेकर की राय गौर करने वाली है : मीणा समाज को नाटक के नए दर्शक भी दे रहे हैं! एनएसडी के पास बड़ा सहारा है लेकिन उनका भारंगम भी पचासेक नाटकों में सिमट जाता है लेकिन मीणा तो "एकल आर्मी" से कम नहीं!
इस सम्मेलन के बारे में देशराज मीणा ने अपने विचार साझा किए हैं।
सौ दिनी समारोह में चयन का आधार क्या रहा?
मीणा : रचनात्मक से कोई भी समझौता नहीं किया। सोशल मीडिया के तमाम प्लेटफॉर्म में इसकी मुनादी की। देश भर की नाट्य मंडलियों ने हाथों-हाथ लिया। 5000 आवेदन हमारे सामने थे। स्पेन, पॉलैंड, नेपाल,बांग्लादेश और श्रीलंका से भी फॉर्म आए। अहिंदी भाषा के नाटकों के लिए 6 विशेषज्ञों का सहारा लिया। कारण हम मराठी, पंजाबी, संस्कृत और ओड़िया भाषा के नाटकों को समझने में असमर्थ थे। रंग संस्कार थियेटर ग्रुप की सदस्य कोलकाता निवासी मोनालिसा दास सोशल मीडिया संभाले हुए हैं। तीन भाषाओं में उनके नाटक भी होंगे। उनके पुत्र स्वर्णिम दास ने ही "अलवर रंगम" का पोस्टर-लोगो डिजाइन किया है।
मंचन के बाद इसकी यादों को बनाए रखने का कोई तरीका ?
मीणा : समारोह की तारीख से पहले पूरे छह महीने की मेहनत है। इलीलिए भले रात दो बज जाए। प्रतिदिन का ब्योरा मैं खुद संस्था के पेज पर अपलोड करता हूं। हम प्रत्येक नाटकों की रिकॉर्डिंग भी करवा रहे हैं जो उन्हें निःशुल्क उपलब्ध करवाएंगे।
सौ दिनों का खर्च कैसे निकालते हैं?
मीणा : प्रायोजक - अनुदान न होने से टिकट अनिवार्य है। पूरा समारोह देखना चाहें उन्हें 31 हजार में 10 फैमिली पास, 11 में 4 व्यक्ति, और विद्यार्थियों के लिए मात्र 2 हजार, ऐसी व्यवस्था। है। दर्दी लोगों ने जुनून देख आगे आकर मदद की। कोई किसी रोज़ के नाश्ते का खर्च उठा लेता है कोई कहता है आज का भोजन मेरी ओर से। घर का बना अचार लेकर आने वालों ने भी मेरे रंगकर्म की राह में मिठास घोल दी।
सौ रोज़ रोज़ ही नाटक? अतिरेक नहीं लगता।
मीणा : मकसद लोगों को अच्छा नाटक दिखाने का रखा है। इसीलिए समापन में प्रस्तुति 'जीना इसी का नाम' तय की। 550 कुर्सियों वाले महावर ऑडिटोरियम में औसतन 300 से अधिक दर्शक प्रतिदिन आते हैं। जीना इसी का नाम तो है!