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जावेद अख्तर : उर्दू दिलों को जोड़ती है

जावेद अख्तर हिंदुस्तान के ऐसे वाहिद शख्स हैं, जिनका जितना दखल बतौर स्क्रिप्ट लेखक और गीतकार हिंदी...
जावेद अख्तर : उर्दू दिलों को जोड़ती है

जावेद अख्तर हिंदुस्तान के ऐसे वाहिद शख्स हैं, जिनका जितना दखल बतौर स्क्रिप्ट लेखक और गीतकार हिंदी सिनेमा में रहा उतना ही नाम उन्होंने उर्दू साहित्य में भी बनाया। जावेद अख्तर के पिता जां निसार अख्तर और मामा मजाज़ लखनवी इस देश के बड़े शायरों में रहे। जावेद अख्तर की शायरी का संकलन ‘तरकश’ और ‘लावा’ हर आयु वर्ग के पाठक के बीच लोकप्रिय रहा है। उर्दू भाषा और इसके साहित्य पर जावेद अख्तर की पैनी निगाह रही है। युवाओं में उर्दू शायरी के प्रति बढ़ती दिलचस्पी को लेकर जावेद अख्तर काफी सकारात्मक नजर आते हैं।

युवा पीढ़ी में उर्दू की दीवानगी सर चढ़कर बोल रही है। मैं साल दर साल लगातार देख रहा हूं कि युवा पीढ़ी मुशायरे, कवि सम्मेलन में शामिल हो रहे हैं। ये साहित्यिक पृष्ठभूमि के नहीं है। इनमें से कोई विज्ञान, कोई चिकित्सा तो कोई प्रबंधन क्षेत्र से जुड़ा है लेकिन सभी का दिल उर्दू और शायरी के लिए धड़कता है।

दरअसल उर्दू आम इंसान की जुबान है। ये कभी खास वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी। बहादुरशाह जफर के समय में ये दरबार तक पहुंची। तब तक ये बाजार की जुबान थी। इस देश का मध्यमवर्गीय परिवार उर्दू भाषा में अपने सुख और दुख साझा करता रहा है। उर्दू भाषा और हिंदी भाषा एक दूसरे में रची बसी हैं। इन दोनों के जैसी जुबानें तो दुनिया में हैं ही नहीं। आप पूरी दुनिया में देख लीजिए, किन्हीं दो जुबानों का व्याकरण कभी एक जैसा नहीं होता है। केवल हिंदी और उर्दू भाषा ही हैं, जिनका व्याकरण एक है।

उर्दू पढ़े-लिखे आदमी को भी उतना ही प्रभावित करती है, जितना किसी अनपढ़ आदमी को। वह दोनों ही वर्ग की बात को कहने का सामर्थ्य रखती है। यह तो इस देश में विभाजन के बाद की सांप्रदायिकता रही जिस कारण उर्दू भाषा को एक विशेष मजहब से जोड़कर देखने लगे हैं। असल में भाषा तो केवल प्रांत की, जगह की होती है। भाषा कभी भी किसी धर्म की हो ही नहीं सकती। बंगाल में रहने वाला बंगाली मुसलमान बंगाली भाषा बोलता है, उर्दू नहीं। इसी तरह पंजाब में रहने वाला मुसलमान भी पंजाबी बोलता है, उर्दू नहीं।

एक और मजेदार बात यह है कि जब तक भाषा समझ आ रही होती है, उसे हिंदी भाषा कहा जाता है। जैसे ही भाषा समझ आनी बंद होती है, लोग उसे उर्दू का नाम दे देते हैं। उर्दू और हिंदी के शब्दकोश में दुनिया भर के लफ्ज शामिल हैं और इन्हें होना ही चाहिए। इसी से आपकी भाषा समृद्ध बनती है। यही तो हिंदुस्तान की खूबसूरती है कि वह सबको शामिल करने की भावना रखता है। 

यह उर्दू भाषा का ही जादू है कि तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद लोग इससे मोहब्बत कर रहे हैं। आप देखिए कि आज किताबों और पत्रिकाओं की क्या स्थिति है। आप देखिए कि स्कूलों में उर्दू शायरी और भाषा को कितनी तवज्जो दी जा रही है। बावजूद इसके आज के बच्चे सोशल मीडिया पर शायरी में खूब दिलचस्पी ले रहे हैं। इस देश में वैश्वीकरण और उदारीकरण के बाद अंग्रेजी भाषा का प्रभाव और तेजी से बढ़ा। हिंदी और उर्दू भाषा के प्रति लोगों में हीन भावना पैदा होने लगी। लेकिन आज भी जो उर्दू भाषा का रंग है, हुस्न है, मोहब्बत है, वह किसी साहित्यिक संस्था के कारण नहीं है। वह उर्दू की मिठास और स्वभाव के कारण है। उर्दू मोहब्बत की जुबान है। मेरा यकीन है कि यह हमेशा से ही दिल जोड़ने का काम करती आई है और करती रहेगी।

(गिरिधर झा से बातचीत पर आधारित)

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