विश्व बैंक ने अपनी रपट, ‘उभरते बाजारों में नरमी: कठिन समय या दीर्घकालिक कमजोरी’ में कहा है कि 2010 से उभरते बाजारों की वृद्धि पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार में नरमी, पूंजी प्रवाह का धीमा पड़ना और जींस मूल्य में नरमी और अन्य चुनौतियों का प्रभाव पड़ा है। इससे उत्पादकता में कमी और राजनीतिक अनिश्चितता बढने से घरेलू समस्याएं और भी बढी हैं।
विश्व बैंक के मुख्य अर्थशास्त्री और वरिष्ठ उपाध्यक्ष कौशिक बसु ने कहा बरसों तक ईष्याजनक तेज आर्थिक वृद्धि दर्ज करने के बाद उभरते बाजार दबाव में आ गए हैं और इनकी वृद्धि आपस में अलग अलग तरह की हो गई है। उन्होंने कहा है कि आर्थिक वृद्धि में गिरावट से इनके यहां निपट गरीबी को दूर करने का लक्ष्य और कठिन हो जाएगा क्योंकि गिरावट गहरे पैठ बनाती जाती है और उन क्षेत्रों में ज्यादा केंद्रित होती जाती है जो संघर्षों से सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। रपट में कहा गया कि उभरते बाजार में नरमी इन बाजारों में वृद्धि के सुनहरे दौर के बाद आई है।
गौरतलब है कि 1980 के दशक की शुरुआत से दो दशक तक उभरते बाजारों का वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद में योगदान लगभग दोगुना हो गया है और वे वैश्विक आर्थिक वृद्धि का नेतृत्व कर रहे हैं और 2010-14 के दौरान वैश्विक वृद्धि में उनका योगदान करीब 60 प्रतिशत रहा। हालांकि उभरते बाजार की वृद्धि 2010 से नरम पड़ रही है। 2010 में यह 7.6 प्रतिशत थी जिसके इस साल चार प्रतिशत पर आने की उम्मीद है। बसु ने कहा कि चीन, रूसी परिसंघ और दक्षिण अफ्रीका सभी पिछले लगतार तीन साल नरमी की गिरफ्त में हैं।
रपट में कहा, ‘भारत को छोड़कर ब्रिक्स देशों में वृद्धि 2010 से उल्लेखनीय नरमी रही है। यह नरमी निकट भविष्य में बरकरार रहने की आशंका है।’ विश्वबैंक ने कहा कि कई उभरते बाजारों ने विशिष्ट क्षेत्रों में सुधार लागू किया, कुछ ने व्यापक ढांचागत सुधार योजना की घोषणा की जिनमें चीन, भारत और मेक्सिको शामिल हैं। रपट में कहा गया कि हालांकि क्रियान्वयन चिंता का विषय बना हुआ है लेकिन इन योजनाओं को निवेशकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली।