दो साल पहले 30 जून की आधी रात को संसद के विशेष सत्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुड्स एवं सर्विस टैक्स (जीएसटी) का ऐलान ‘एक देश, एक टैक्स’ की “क्रांतिकारी व्यवस्था” की तरह ऐसे किया था कि “यह देश में दूसरी आजादी है।” उस वक्त उन्होंने यह भी कहा, “जीएसटी एक सरल, सहज और पारदर्शी कर व्यवस्था है, जो देश में कालेधन और भ्रष्टाचार को रोकने में मददगार होगी। इससे टैक्स आतंकवाद और इंस्पेक्टर राज से भी मुक्ति मिलेगी।” एक जुलाई 2017 से लागू जीएसटी में करीब 730 दिनों में ही 550 से ज्यादा बदलाव किए जा चुके हैं, मगर कारोबारियों की शिकायतें जारी हैं। उनके अनुसार अभी भी जीएसटी में टैक्स रेट बहुत ज्यादा है। साथ ही रिफंड से लेकर रिटर्न फाइलिंग में बहुत सारी झंझटे हैं। इसकी वजह से इकोनॉमी की रफ्तार भी सुस्त पड़ गई है।
दो साल बाद भी एक देश, एक टैक्स का सपना अधूरा
जीएसटी को जब लागू किया गया था, उस वक्त सरकार के तरफ से यह कहा गया था कि इससे देश में एक देश एक टैक्स की व्यवस्था लागू होगी। लेकिन अभी भी ऐसा नहीं है। कई सेक्टर जीएसटी के दायरे से ही बाहर हैं। फिक्की के अध्यक्ष संदीप सोमानी का कहना है “सबसे पहले नेचुरल गैस को जीएसटी के दायरे में लाना चाहिए। इसके अलावा पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स को भी उचित बदलावों के साथ जीएसटी के तहत लाना जरूरी है”
छोटे कारोबारी ज्यादा परेशान
देश की इकोनॉमी की रीढ़ कहे जाने वाले छोटे कारोबारी इस समय सबसे ज्यादा परेशान हैं। फिसमे के जनरल सेक्रेटरी अनिल भारद्वाज का कहना है कि अभी भी जीएसटी में टैक्स रेट बहुत ज्यादा है। इसकी वजह से कारोबारियों पर मार पड़ रही है। दो साल बाद भी इनवॉयसिंग और रिफंड का प्रोसेस बहुत जटिल है। इस कारण कारोबारी परेशान है। जॉब वर्क करने वाले कारोबारी भी परेशान हैं। सरकार को जल्द से जल्द इन मुद्दों को दूर करना चाहिए।
ऊंची टैक्स दरों से धंधा मंदा
फाडा के सीईओ शरस दमानी के अनुसार ऑटो सेक्टर इस समय मंदी के दौर से गुज रहा है। ऐसे में टैक्स रेट को कम करने की जरूरत है। इसे 18 फीसदी के दायरे में लाना चाहिए। ऐसा करने से डिमांड बढ़ेगी। जिसका फायदा इकोनॉमी को मिलेगा। वहीं भारद्वाज का कहना है “किसी भी इकोनॉमी की बेहतरी के लिए जरूरी है कि वहां पर टैक्स रेट कम हो। अगर टैक्स ज्यादा होगा तो मंदी छाने का डर रहेगा। इस दिशा में सरकार को तुरंत कदम उठाना चाहिए।”
इसी तरह जीएसटी में अभी चार टैक्स स्लैब हैं, जिसे उद्योग जगत कम करने की लगातार मांग कर रहा है। उसके अनुसार 28 फीसदी स्लैब में ऐसी वस्तुएं रख दी गई हैं, जिनकी बिक्री इकोनॉमी की रफ्तार के लिए बेहद जरूरी है। लेकिन कीमतें बढ़ने की वजह से डिमांड रूक गई है।