तीन साल पहले 8 नवंबर 2016 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की थी। एक ही झटके में 15.41 लाख करोड़ रुपये के 1000 और 500 रुपये के नोट चलन से बाहर हो गए। तब प्रधानमंत्री ने कहा था कि कालेधन, भ्रष्टाचार, जाली नोट और आतंकवाद को फंडिंग पर अंकुश लगाना नोटबंदी का मकसद है। बाद में डिजिटल ट्रांजैक्शन को भी इसमें जोड़ दिया गया। इन लक्ष्यों को कितना हासिल किया जा सका, इसे लेकर विवाद बना हुआ है, लेकिन यह जरूर है कि बिना पूर्व तैयारी के लागू हुई नोटबंदी से अर्थव्यवस्था जो दक्षिणमुखी हुई, वह अभी तक संभल नहीं पाई है। पूर्व प्रधानमंत्री और जाने-माने अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह का यह अनुमान सही साबित हुआ कि नोटबंदी से जीडीपी विकास दर कम से कम 1.5 फीसदी नीचे चली जाएगी। अप्रैल-जून 2019 की तिमाही में आर्थिक विकास दर 5 फीसदी पर पहुंच गई। जुलाई-सितंबर तिमाही में तो विकास दर 5 फीसदी से भी कम रहने का अंदेशा है। हजारों एमएसएमई इकाइयां बंद हुईं और लाखों लोग बेरोजगार हुए सो अलग।
धरे रह गए कालेधन के सरकारी अनुमान
रिजर्व बैंक ने पिछले साल अपनी सालाना रिपोर्ट में कहा था कि नोटबंदी में जो 15.41 लाख करोड़ रुपये के नोट चलन से बाहर हुए थे, उनमें से 99 फीसदी से ज्यादा बैंकिंग सिस्टम में आ गए। सिर्फ 0.7 फीसदी यानी 10,720 करोड़ रुपये के नोट बैंकों में वापस नहीं आए। इससे सरकार के अपने अनुमान ही धरे रह गए। नोटबंदी के कुछ दिनों बाद ही सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा था कि नोटबंदी के बाद तीन से चार लाख करोड़ रुपये का कालाधन नहीं आने का अनुमान है। लेकिन रिजर्व बैंक का कहना है कि कालाधन नकदी के रूप में कम ही है। यह रियल एस्टेट और सोने में ज्यादा है। विपक्ष ने आरोप भी लगाया कि नोटबंदी “कालेधन को सफेद करने वाली सरकारी स्कीम” थी।
कालेधन के अनुमान से ज्यादा इकोनॉमी को नुकसान
नोटबंदी का अर्थव्यवस्था पर क्या असर हुआ, इसे जीडीपी से आंका जा सकता है। जीडीपी का आकार 150 लाख करोड़ रुपये मानें तो 1.5 फीसदी गिरावट का मतलब है साल में 2.25 लाख करोड़ और दो साल में 4.5 लाख करोड़ रुपये का नुकसान। इतनी रकम के बराबर कालाधन आने का अनुमान तो सरकार को भी नहीं था। इसके अलावा रिजर्व बैंक को नई करेंसी की छपाई पर जो खर्च करना पड़ा सो अलग। आरबीआई को दो साल में 500 और 2000 रुपये के नए नोट छापने पर 13,000 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े।
डिजिटल ट्रांजैक्शन का लक्ष्य भी हासिल नहीं
नोटबंदी के कुछ दिनों बाद यह कहा जाने लगा कि इससे डिजिटल ट्रांजैक्शन को बढ़ावा मिलेगा, और इकोनॉमी में नकदी कम होगी। लेकिन वास्तव में ऐसा हुआ नहीं। नोटबंदी से पहले अर्थव्यवस्था में 17.97 लाख करोड़ रुपये के नोट चलन में थे। इनमें 1000 और 500 रुपये के नोट 86.4 फीसदी थे। अब अर्थव्यवस्था में करीब 22 लाख करोड़ रुपये के नोट चलन में हैं। यानी नकदी बढ़ गई है। डिजिटल ट्रांजैक्शन भी नोटबंदी के तत्काल बाद तो बढ़ा था, लेकिन अब फिर लोग नकदी का इस्तेमाल पहले की तरह करने लगे हैं। अभी करीब 87 फीसदी लेन-देन नकदी में ही हो रहा है।
अब 2000 रुपये के नोटों की भी जमाखोरी
नोटबंदी की घोषणा करते समय प्रधानमंत्री ने कहा था कि 1000 रुपये के नोटों से कालाधन जमा हो रहा है। लेकिन बाद में सरकार इससे भी बड़ा, 2000 रुपये का नोट ले आई। हाल ही स्वैच्छिक रिटायरमेंट लेने वाले पूर्व वित्त सचिव एस.सी. गर्ग का कहना है कि 2000 रुपये के नोटों की जमाखोरी हो रही है, इसलिए इसे बंद किया जाना चाहिए। उनका कहना है कि इसके लिए नोटों का चलन अचानक बंद करने के बजाय लोगों से इन्हें बैंक में जमा करने को कहा जाए।
66% की राय, नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को नुकसान
लोकलसर्किल के एक सर्वे में 66 फीसदी लोगों ने कहा कि नोटबंदी से अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचा है। इससे बेरोजगारी भी बढ़ी है। इस ऑनलाइन सर्वे में शामिल 28 फीसदी लोगों का मानना था कि नोटबंदी का अर्थव्यवस्था पर कोई नकारात्मक असर नहीं हुआ। पिछले तीन साल के दौरान अर्थव्यवस्था की जो हालत खराब हुई है, उसके लिए 33 फीसदी लोग नोटबंदी को ही जिम्मेदार मानते हैं।
नोटबंदी से पहले इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने वालों की संख्या 3.8 करोड़ थी, जो अब 6.8 करोड़ तक पहुंच गई है। सरकार का तर्क कि नोटबंदी और जीएसटी से अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने में मदद मिली है। टैक्स रिटर्न के आंकड़े देखकर यह तर्क सही लग सकता है, लेकिन जिस देश की 60 फीसदी से ज्यादा इकोनॉमी अनौपचारिक हो वहां नोटबंदी जैसे कदम आत्मघाती होंगे, यह बात तीन साल में साबित हो चुकी है।
 
                                                 
                             
                                                 
                                                 
                                                 
			 
                     
                    