इस सारी कहानी की शुरुआत हुई थी बीसवीं सदी के आखिरी चरण में। यह वह दौर था जब कंप्यूटर, सॉफ्टवेयर, आईटी जैसे शब्दों ने भारतीय उद्योग जगत में हंगामा मचा रखा था और इस क्षेत्र की विकास गति से लोगों की आंखें चुंधियाई हुई थी। देश में हर तरफ इंफोसिस, विप्रो, टीसीएस और सत्यम के नाम की धूम थी और इन कंपनियों में नौकरी हासिल करने के लिए भारतीय युवा लालायित थे। नव उदारवाद, वैश्वीकरण और बाजारवाद के जरिये भारतीय मध्य वर्ग के पास जो धन आया था वो उसे फिर से बाजार में निवेश करने में जुटे थे और उनकी पहली पसंद यही सेक्टर था जिसकी चमक हर ओर बिखरी हुई थी। मगर वर्ष 2009 में अचानक सब बदल गया जब यह सच सामने आया कि देश की चौथी सबसे बड़ी आईटी कंपनी मेसर्स सत्यम कंप्यूटर्स के प्रमोटर बी रामलिंगा राजू तथा अन्य लोगों ने मिलकर वर्षों में धीरे-धीरे करके करीब 6 करोड़ निवेशकों के 7800 करोड़ रुपये हड़प लिए हैं। इस खुलासे ने पूरी दुनिया की नींद उड़ा दी क्योंकि घोटाले का खुलासा होने से पहले सत्यम का कारोबार 66 देशों में फैला हुआ था। कागजों पर कुल 53 हजार कर्मचारी कंपनी में काम करते थे मगर बाद में पता चला कि वास्तविक संख्या 40 हजार ही थी और राजू शेष 13 हजार कर्मचारियों का वेतन हर महीने करीब 20 करोड़ रुपये खुद हड़प जाते थे। इस काम में कंपनी के ऑडिटर भी उनकी पूरी मदद करते थे। इस सारे पैसे को राजू अपने बेटों की दो कंपनियों में निवेश कर देते थे।
सत्यम की कहानी शुरू होती है वर्ष 1987 में जब अमेरिका से प्रबंधन की पढ़ाई करके लौटे बी रामलिंगा राजू ने इस कंपनी की नींव रखी। तब कंपनी में सिर्फ 20 कर्मचारी थे। कुछ ही वर्षों में इस कंपनी ने इतनी तरक्की कर ली कि 1999 में राजू को वर्ष के सर्वश्रेष्ठ कारोबारी का सम्मान मिल गया। लेकिन 21वीं सदी के पहले दशक का अंत सारी खुशियों का अंत साबित हुआ। वर्ष 2009 की 7 जनवरी को अचानक से कंपनी के चेयरमैन राजू ने अपना पद छोड़ दिया। हालांक यहां भी आरंभ में उन्होंने खुद को शहीद की तरह पेश किया। निदेशकमंडल और सेबी को भेजे अपने पत्र में उन्होंने लिखा कि वर्षों से कंपनी की वित्तीय स्थिति खराब चल रही थी। बाजार में कंपनी की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए हर वर्ष उन्होंने कंपनी को लाभ में दिखाया जिसके लिए कंपनी के खातों में हेर-फेर की गई। उन्होंने कहा कि सत्यम को संकट से उबारने के लिए उन्होंने हरसंभव प्रयास किया, लेकिन उनके तमाम प्रयासों के बावजूद सत्यम की स्थिति लगातार बिगड़ती चली गई। राजू ने कहा, यह बाघ की सवारी करने जैसा है, यह जाने बिना कि उसका आहार बनने से कैसे बचा जाय।
दरअसल कंपनी में प्रमोटरों की भागीदारी लगातार घटती गई थी जिसके कारण कंपनी में चल रही हेराफेरी का राज खुलने का खतरा पैदा हो गया था। इससे बचने के लिए दिसंबर, 2008 में उन्होंने अपने पुत्र की स्वामित्व वाली रीयल इस्टेट कंपनी मेटास इंफ्रा और मेटास प्रॉपर्टीज के अधिग्रहण का निर्णय लिया। कंपनी के निवेशकों ने इसपर आश्चर्य जताया कि आखिर एक आईटी कंपनी एक रीयल इस्टेट कंपनी का अधिग्रहण क्यों करना चाहती है, वह भी चेयरमैन के बेटे की कंपनी का। इसपर राजू ने कहा कि रीयल इस्टेट कंपनी से पैसे कमाकर सत्यम का घाटा पूरा किया जाएगा। मेटास के अधिग्रहण के लिए करीब 7900 करोड़ रुपये देने की बात थी। यह तकरीबन उतनी ही राशि थी जितने का घोटाला सत्यम में किया गया था। जाहिर है कि यह अधिग्रहण घोटाले की राशि को छिपाने का जरिया बनता मगर निवेशकों ने इस अधिग्रहण को मंजूरी नहीं दी। इसके बाद राजू के लिए बच निकलने की कोई राह बाकी नहीं बची। तब उन्होंने इस्तीफा दिया। उन्होंने पत्र में लिखा कि वो दोषी हैं और स्वयं को कानून के हवाले करने के लिए तैयार हैं और अब वो हर परिणाम भुगतने के लिए तैयार हैं।
जिस समय उन्होंने इस्तीफा दिया उस समय सत्यम के एक शेयर का मूल्य 188 रुपये था। लेकिन शाम तक इसका मूल्य घटकर मात्र चालीस रुपये प्रति शेयर रह गया था। दूसरे दिन यह मूल्य 6.25 पैसे पर पहुंच गया। इससे कंपनी के निवेशकों को लगभग 10000 करोड़ रुपये की हानि हुई। सत्यम के इस घोटाले को भारतीय कॉरपोरेट इतिहास का सबसे बड़ा लेखा घोटाला कहा जाता है।
सच सामने आते ही सत्यम पर शिकंजा कस गया। राजू को गिरफ्तार कर लिया गया। सेबी ने सत्यम के शेयरों पर प्रतिबंध लगा दिया। उधर, न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में भी सत्यम के शेयरों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। सत्यम पर दर्जनों मामले दर्ज कराए गए। सरकार ने सत्यम के कामकाज की देखभाल के लिए तीन सदस्यीय समिति बना दी। सत्यम के खातों की जांच का दायित्व एसएफआईओ (सीरियस फ्रॉड इन्वस्टीगेशन ऑफिस) को सौंपा गया। बाद में सीबीआई ने इस मामले की जांच की और सीबीआई के अधिकारियों के अनुसार यह शायद भारत का सबसे बड़ा कारपोरेट घोटाला था जहां सत्यम कम्प्यूटर्स ने निवेशकों को 14,162 करोड़ रुपये का नुकसान पहुंचाया है। कपटपूर्ण सेल-इन्वायस के माध्यम से तथा कंपनी के सांविधिक और आंतरिक लेखा-परीक्षकों की मिलीभगत से बैंक की स्टेटमेंट में जालसाजी करके कंपनी के राजस्व में वृद्धि दर्शाते हुए इस घोटाले को अंजाम दिया गया है। कई वर्षों तक बढ़े हुए राजस्व के साथ कंपनी की वार्षिक वित्तीय विवरण प्रकाशित किए गए जिसके फलस्वरूप बाजार में प्रतिभूतियों का उच्च दर निर्धारित हुआ। इस प्रक्रिया में निर्दोष निवेशकों को कंपनी में निवेश करने का प्रलोभन दिया गया। घोटाले को छिपाने के लिए रिश्तेदारों की कंपनियों को अधिग्रहित करने का भी प्रयास किया गया।
देश को जैसे ही इसके बारे में पता चला, वैसे ही सत्यम मामला भी इस प्रकार के अन्य विभिन्न मामलों की तरह सीबीआई को सौंपा गया। ब्यूरो ने मामले की जांच के लिए एक बहु-विषयक अन्वेषण दल (एमडीआईटी) का गठन किया। इस दल ने रात-दिन कठिन परिश्रम करके रिकार्ड 45 दिनों में ही सफलता प्राप्त की जब उसने आरोपियों के विरुद्ध आपराधिक षडयंत्र, धोखाधड़ी, छल, कूटरचना और लेखा-असत्यकरण के अपराधों के लिए अपना पहला आरोप-पत्र दायर किया।