नटराजन चंद्रशेखरन का टाटा संस के चेयरमैन के रूप में पहला कार्यकाल फरवरी 2022 में समाप्त हो जाएगा। उन्हें दूसरा कार्यकाल मिलने की चर्चा पहले ही सुर्खियों में है। जानकारों का कहना है कि टाटा-साइरस मिस्त्री विवाद के बाद चंद्रशेखरन के नेतृत्व में टाटा समूह के प्रदर्शन और उनकी नेतृत्व शैली को देखते हुए उन्हें दूसरी बार चेयरमैन बनाया जाना लगभग तय है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि प्रबंधन में उत्तराधिकारी नियुक्त करना किसी भी कंपनी का आंतरिक मामला है, और टाटा-मिस्त्री विवाद के मद्देनजर कोई बाहरी व्यक्ति इस बारे में निष्कर्ष निकालता है तो वह अटकलों और आधे-अधूरे सच पर आधारित होगा। इसलिए इससे बाहर रहना ही ठीक है। हालांकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि टाटा-मिस्त्री विवाद समूह के फैसले लेने की प्रक्रिया तक सीमित नहीं है। यह भारतीय उद्योग जगत में कॉरपोरेट गवर्नेंस की समस्या की ओर भी इंगित करता है।
शेयरहोल्डर एम्पावरमेंट सर्विसेज के सह-संस्थापक और प्रबंध निदेशक तथा बाजार नियामक सेबी के पूर्व कार्यकारी निदेशक जे.एन. गुप्ता को लगता है कि यह सिर्फ टाटा संस से जुड़े पक्षों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, खासकर टाटा ट्रस्ट और शापूरजी पालोनजी ग्रुप के लिए। वे कहते हैं, “मुझे नहीं मालूम कि किसी उम्मीदवार को चुनने के मानक क्या हैं। मैं यह भी नहीं जानता कि चंद्रशेखरन के कामकाज का आकलन कैसे किया जाता है। लेकिन ये बातें मुझसे साझा क्यों की जानी चाहिए? ये बातें तो सिर्फ कंपनी से जुड़े पक्षों के लिए ही पारदर्शी होनी चाहिए।” गुप्ता का मानना है कि सिर्फ मिस्त्री प्रकरण की वजह से बॉम्बे हाउस (टाटा समूह का मुख्यालय) में नेतृत्व को लेकर इतनी चर्चा हो रही है।
टाटा समूह की होल्डिंग कंपनी सूचीबद्ध नहीं है और बिना सार्वजनिक किए इस तरह के फैसले लेने का उसे पूरा अधिकार है। लेकिन यह मामला इसलिए अलग है क्योंकि होल्डिंग कंपनी का कॉरपोरेट इंडिया पर बड़ा प्रभाव है। टाटाः द ग्लोबल कॉरपोरेशन दैट बिल्ट इंडियन कैपिटलिज्म किताब लिखने वाले मिरचिया रायनू आउटलुक के साथ ईमेल पर हुई चर्चा में कहते हैं कि यह मामला कंपनियों, ट्रस्ट और टाटा संस के बीच संबंधों के बारे में कठिन सवाल खड़े करता है। उनका कहना है, “लोगों को कॉरपोरेट गवर्नेंस की चिंता करनी चाहिए। अगर इस तरह के सवाल भारत के सर्वश्रेष्ठ समझे जाने वाले कॉरपोरेट समूहों में से एक के बारे में उठाए जा सकते हैं, तो बाकी का क्या हाल होगा? पूरे सिस्टम में कितनी चौकसी और पारदर्शिता बरती जाती है?”
गुप्ता भी मानते हैं कि मिस्त्री को हटाने का जो तरीका अपनाया गया उसमें सब कुछ ठीक नहीं था। लेकिन साथ में वे यह भी कहते हैं, “सिर्फ गवर्नेंस के नाम पर गवर्नेंस नहीं हो सकता, इसके पीछे एक उद्देश्य होता है। ऐसा नहीं हो सकता कि आप गुड गवर्नेंस का पालन करें और कंपनी को बर्बाद होने दें। आखिरकार गवर्नेंस का लक्ष्य शेयरधारकों का मुनाफा होता है।” मिस्त्री और टाटा संस के बीच विवाद के व्यापक असर की बात करते हुए रायनू, गुप्ता की इस बात से सहमति जताते हैं कि उस विवाद ने लोगों का ध्यान बहुत अधिक आकर्षित किया। वे कहते हैं, “जेआरडी टाटा और रतन टाटा के समय भी व्यक्तिगत करिश्मा और शीर्ष स्तर पर शक्तिशाली लोगों का होना (टाटा स्टील में रूसी मोदी जैसे अपवाद को छोड़कर) तब तक अधिक मायने नहीं रखता था जब तक कंपनी का कामकाज और सिस्टम ठीक चल रहा हो।”
टाटा बनाम मिस्त्री विवाद
टाटा संस में 18.4 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले शापूरजी पालोनजी समूह के वारिस, 44 साल के साइरस मिस्त्री को 2012 में टाटा संस का चेयरमैन बनाया गया था। तब इसे आसान विकल्प माना गया। उनकी नियुक्ति के साथ दो साल से चल रही तलाश पूरी हुई थी। कुछ लोगों का मानना है कि टाटा समूह और परिवार के साथ शापूरजी पालोनजी ग्रुप के लंबे जुड़ाव के कारण मिस्त्री को चुना गया था। चेयरमैन बनाए जाने के बाद मिस्त्री लो प्रोफाइल में रहकर काम करते रहे, कभी मीडिया के सामने नहीं आए। लेकिन पर्दे के पीछे वे समूह का कर्ज कम करने के साथ-साथ नुकसान वाले या कम लाभदायक उद्यमों को बंद भी कर रहे थे। चार साल बाद 2016 में उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। बोर्ड ने कहा कि उसका मिस्त्री में भरोसा नहीं रह गया है। मिस्त्री ने भी इसे चुपचाप स्वीकार नहीं किया। उन्होंने चेयरमैन और समूह की सभी कंपनियों के डायरेक्टर पद से हटाए जाने को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल में चुनौती दी। उन्होंने कहा कि समूह के भीतर कॉरपोरेट गवर्नेंस की अनेक खामियां हैं और अल्पसंख्यक शेयरधारकों के हितों का ख्याल नहीं रखा जाता है। मामला वहां से अपीलेट ट्रिब्यूनल और फिर सुप्रीम कोर्ट में गया। सुप्रीम कोर्ट ने टाटा संस के पक्ष में फैसला सुनाया।
टाटा समूह का बिजनेस नमक बनाने से लेकर सॉफ्टवेयर तक लगभग हर सेक्टर में है। चेयरमैन का मसला समूह की सभी कंपनियों को प्रभावित करेगा। रायनू के अनुसार टाटा समूह में फैसले सलाह-मशविरे के बाद लिए जाते हैं। इसलिए सिर्फ चेयरमैन का चयन समूह का भविष्य निर्धारित नहीं करेगा। रतन टाटा के लिए गुंजाइश इसलिए ज्यादा थी क्योंकि उन्होंने समूह को मजबूत बनाया और 1990 के दशक में उसे नई दिशा दी। मिस्त्री के पास वह गुंजाइश नहीं थी। इसलिए नहीं कि उनके पास अधिकार कम थे, बल्कि इसलिए कि वे पर्याप्त मशविरा नहीं करते थे। लीडरशिप टीम में भी मतभेद थे।
चंद्रशेखरन की शैली सहयोग वाली है। पारिवारिक बिजनेस पर काफी शोध कार्य करने वाले इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस के प्रो. कविल रामचंद्रन मानते हैं कि चंद्रशेखरन को ‘स्थापित और गाइड’ करने में बोर्ड की बड़ी भूमिका रही होगी। उन्होंने एक कंपनी (टीसीएस) को तो बहुत अच्छे तरीके से संभाला था, लेकिन अलग-अलग सेक्टर में काम करने वाले समूह के प्रबंधन का उनके पास कोई अनुभव नहीं था। रामचंद्रन के अनुसार, “वे इंटेलिजेंट हैं और जानते हैं कि बोर्ड के सेंटिमेंट से कैसे निपटना है। अपने विचारों को वे जबरन आगे नहीं बढ़ाते।” सवाल यह है कि चंद्रशेखरन को दूसरा मौका मिले या उनकी जगह किसी और को चेयरमैन बनाया जाए, प्रबंधन की यह शैली शायद ही बदले।
रामचंद्रन को लगता है कि इस बार व्यक्तिगत पसंद-नापसंद को उतनी तवज्जो नहीं दी जाएगी। वे कहते हैं, “रतन टाटा का प्रभाव रहेगा, लेकिन पहले जैसा नहीं।” आज का समय अलग है। बड़ी कंपनियां बंद हो रही हैं और नई कंपनियां तथा नए नेतृत्व रातों-रात खड़े हो रहे हैं। इसलिए जोखिम की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। वे कहते हैं, “समूह की रणनीति अब तर्कों से ज्यादा चलेगी। मसलन, कौन सी इंडस्ट्री आगे बढ़ रही है और किस सेक्टर में कंपनी प्रतिस्पर्धी है। इसलिए इस बार भी डिजिटल सर्विसेज की बड़ी भूमिका रहेगी।” मतलब यह कि समूह की दूसरी कंपनियों की तुलना में टीसीएस का राजस्व बहुत अधिक होने को लेकर चिंता बनी रहेगी। लेकिन गुप्ता के अनुसार, “परिवार का एक बच्चा करोड़ों रुपये कमाए और बाकी की कमाई हजारों में हो, तो आप पहले बच्चे को कमाई घटाकर लाखों में लाने के लिए नहीं कह सकते, न ही दूसरों से बाहर जाने को कहते हैं।” गुप्ता की राय में समूह को उन कंपनियों पर फोकस करना चाहिए जो अपने सेक्टर में टॉप तीन या पांच में शामिल हैं और जिनके पास शीर्ष स्तर पर जाने का एक रोडमैप है। अगर कंपनी इन दोनों मापदंडों पर खरी नहीं उतरती है तो उसे बंद कर दिया जाना चाहिए।
लेकिन समूह इतनी निरपेक्षता के साथ काम नहीं करेगा। रामचंद्रन के अनुसार ‘सामाजिक विकास’ के इसके लक्ष्य बने रहेंगे। मिस्त्री और टाटा ट्रस्ट के बीच विवाद की एक बड़ी वजह लाभांश का वितरण थी। टाटा ट्रस्ट को लगता था कि उन्हें चैरिटेबल कार्यों के लिए पर्याप्त रकम नहीं मिल रही है। कोर्ट में सुनवाई के दौरान मिस्त्री ने कई बार टाटा संस और विभिन्न ट्रस्टों के बीच संबंधों पर सवाल उठाए थे। जब तक रतन टाटा दोनों के चेयरमैन थे तब तक कोई विवाद नहीं हुआ था। अब समूह के शीर्ष पद का जिम्मा चंद्रशेखरन को मिले या किसी और को, उसे संतुलन बना कर रखना ही पड़ेगा।
टाटा संसः किसकी कितनी हिस्सेदारी
टाटा ट्रस्ट
66%
मिस्त्री परिवार
18.4%
टाटा समूह की कंपनियां
13%
अन्य
2.6%