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फिल्मः रचना और नैतिकता की हदें

अपने पिंड या गांव से शुभदीप सिंह सिद्धू को खास लगाव था। सो, संगीत की दुनिया में उन्‍होंने अपने गांव का...
फिल्मः रचना और नैतिकता की हदें

अपने पिंड या गांव से शुभदीप सिंह सिद्धू को खास लगाव था। सो, संगीत की दुनिया में उन्‍होंने अपने गांव का नाम जोड़ा और यह नाम ब्रांड बन गया। पंजाब के मनसा जिले के मूसा गांव में जन्मे गायक और रैपर ने बड़ी तेजी से दुनिया भर में, खासकर पंजाबी आप्रवासियों के बीच प्रसिद्धि पा ली। मूसेवाला की ताबड़तोड़ प्रसिद्धि और उनकी हत्या के वाकये पर हाल ही में रिलीज हुई बीबीसी डॉक्यूमेंट्री द किलिंग कॉल में उनके एक दोस्‍त का हवाला है, जो कहता है, मूसेवाला “बेखौफ हो गया था” और “उसने अपनी जिंदगी के 50 साल उन पांच साल में समेट लिए थे।”

ब्रिटेन के द गार्जियन अखबार ने मूसेवाला को 2020 में 50 उभरते हुए कलाकारों में शामिल किया था। 2021 में उन्होंने मूसेटेप रिलीज किया। इस ट्रैक ने दुनिया भर में धूम मचा दी थी। इसने बिलबोर्ड ग्लोबल 200 से लेकर कैनेडियन हॉट 100 और न्यूजीलैंड हॉट चार्ट तक हर फेहरिस्‍त में जगह बनाई। स्पोटिफाई पर 1 अरब से ज्‍यादा स्ट्रीम के साथ मूसेटेप यह मुकाम हासिल करने वाला पहला भारतीय एल्बम बन गया। 2022 में 28 साल की उम्र में सिद्धू की गोली मारकर हत्या कर दी गई।

मूसेवाला राजनैतिक हस्तियों, राज्य-व्यवस्था और सामाजिक पाखंड की तीखी आलोचना से कतई नहीं कतराते थे। उनके गीतों में अक्सर पुलिस बर्बरता, राजनैतिक भ्रष्टाचार और पंजाबी नौजवानों की दुर्दशा और बेरोजगारी की मार का बेखौफ जिक्र हुआ करता था। सरकार द्वारा किसानों की अनदेखी, नशीली दवाओं की लत और नौजवानों में घोर निराशा उनके पसंदीदा विषय थे।

उन्होंने राजनैतिक भ्रष्टाचार और धार्मिक तथा सियासी नाइंसाफी जैसे मुद्दों को सीधे उठाया। अपने गाने 295 में उन्होंने असहमति को आवाज दबाने और सजा देने वाले कानूनों को निशाने पर लिया। इस रैप में उन्होंने गाया, ‘‘सच बोलोगे, तो धारा 295 के तहत जेल में डाल दिए जाओगे।’’ उनकी मौत के बाद रिलीज हुए उनके ट्रैक एसवाइएल में जल-बंटवारे की सियासत (विवादित सतलुज यमुना लिंक नहर), राजनैतिक कैदियों, किसान संकट का जिक्र है। लेकिन इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

मूसेवाला ने अपने गीतों के जरिये सिख और पंजाबी पहचान को भी प्रमुखता दी। उनके ये गीत नौजवानों की जुबान पर चढ़ गए और उन्‍हें राष्ट्रीय एकरूपता के विरोध में बुलंद क्षेत्रीय आवाज की तरह देखा जाने लगा। उन्हें कई बार बंदूक संस्कृति को बढ़ावा देने और हिंसा के महिमामंडन के लिए आलोचना का शिकार होना पड़ा। उनके कई गीतों में ताकत, गर्व और पहचान की बुलंद आवाज के लिए उग्र प्रतीकों का जिक्र है, जो खासकर सिख नौजवानों में आवेश भर देता था। इस अर्थ में उनके गीत कई बार अपनी उग्र पहचान और विध्‍वंस के बीच रेखा को पार कर जाते हैं।

मूसेवाला की 29 मई, 2022 को दिनदहाड़े गोलियों से भूनकर हत्या कर दी गई थी। एक दिन पहले ही राज्य सरकार ने उनकी पुलिस सुरक्षा वापस ले ली थी। यह बात विवादास्‍पद रही। उन्हें दो दर्जन से ज्‍यादा गोलियां मारी गई थीं। कनाडा में रहने वाले गैंगस्टर गोल्डी बरार ने हत्‍या की जिम्‍मेदारी ली थी और दावा किया था कि मूसेवाला बिश्नोई-बराड़ नेटवर्क के प्रतिद्वंद्वी बंबीहा गिरोह की गुप्‍त रूप से मदद कर रहे थे। लेकिन कई लोगों का मानना है कि मूसेवाला का सत्ता-विरोधी रुख उनकी जान का दुश्‍मन बन गया।

अगर वे जिंदा रहते, तो इस 11 जून, 2025 को वे 32 साल के हो जाते। इस मौके पर बीबीसी वर्ल्ड सर्विस ने द किलिंग कॉल रिलीज की है। खोजी पत्रकार इशलीन कौर के निर्देशन और अंकुर जैन द्वारा निर्मित इस डॉक्यूमेंट्री पर उनके पिता बलकौर सिंह ने कड़ी आपत्ति जताई है।

बलकौर सिंह ने रिलीज रोकने के लिए मनसा की अदालत में याचिका दायर की थी। उनकी दलील है कि डॉक्यूमेंट्री में मूसेवाला का नाम, उनके जीवन की मिलती-जुलती कहानी का इस्तेमाल परिवार की सहमति के बिना किया गया है, इससे लोगों में गफलत पैदा हो सकती है, क्‍योंकि उनके बेटे की हत्या के मुकदमे की सुनवाई अभी चल रही है। ऐसे समय में उन्होंने डॉक्यूमेंट्री को ‘‘अपमानजनक’’ बताया और फिल्म निर्माताओं पर व्यावसायिक फायदे के लिए व्यक्तिगत त्रासदी का फायदा उठाने का आरोप लगाया। कानूनी अपील के बाद बीबीसी ने मुंबई में तय स्क्रीनिंग तो नहीं की, लेकिन यूट्यूब पर फिल्म को रिलीज कर दिया।

फिल्म में गोल्डी बराड़ की आवाज की रिकॉर्डिंग शामिल है, जिसने मूसेवाला की हत्या की जिम्मेदारी ली थी। बलकौर सिंह की आपत्ति के बावजूद द किलिंग कॉल मूसेवाला की हत्या की परिस्थितियों पर एक विस्तृत खोजी नजर डालती है। यह पंजाब में राजनीति, अपराध और सेलिब्रिटी शख्सियतों के सांठगांठ की ओर ध्यान खींचती है।

 

कानूनी दुविधाएं

डॉक्यूमेंट्री में अमूमन सच्चाई की खोजबीन और किसी के निजी दुख के बीच नाजुक संतुलन बनाए रखना पड़ता है। यह पहली बार नहीं है कि फिल्म निर्माताओं को परदे पर दिखाए लोगों के परिजनों से आपत्ति का सामना करना पड़ा है। नेटफ्लिक्स पर डॉक्यूमेंट्री सीरीज मेकिंग अ मर्डरर (2015-2018) को कथित तौर पर सबूतों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने और चुनिंदा तथ्यों को पेश करने के लिए तीखी आलोचना का सामना करना पड़ा था, जिससे नॉनफिक्शन सिनेमा की नैतिकता पर बहस छिड़ गई थी।

काल्पनिक बॉयोपिक और ऐतिहासिक फिल्में भी अक्सर असली घटनाओं को बदलने या सरलीकरण करने के लिए आलोचनाओं का शिकार होती हैं। भारतीय सिनेमा में कई प्रमुख फिल्मों पर पिछले कुछ वर्षों में ऐतिहासिक तथ्‍यों को तोड-मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगा है, कुछ मामले में यह वाजिब है, कुछ में नहीं भी। रईस (2017) की आलोचना एक गैंगस्टर को ग्लैमराइज करने के लिए की गई थी। लेकिन गैंगस्टर अब्दुल लतीफ के बेटे ने रईस के निर्माताओं पर 101 करोड़ रुपये का मुकदमा दायर किया, जिसमें दावा किया गया कि फिल्म ने उनके दिवंगत पिता को बदनाम किया और परिवार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाया। गुजरात हाइकोर्ट ने शाहरुख खान और निर्माताओं के पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि मानहानि का दावा संबंधित व्यक्ति की मृत्यु के बाद कायम नहीं रह सकता।

अनुराग कश्यप की ब्लैक फ्राइडे (2004) को 1993 के मुंबई बम धमाकों के गंभीर चित्रण के लिए प्रतिबंध और राजनैतिक दबाव का सामना करना पड़ा। 2005 में 1993 के बॉम्बे बम धमाकों के एक आरोपी मुश्ताक तरानी ने एक याचिका में फिल्म की रिलीज पर रोक लगाने की मांग की थी। तरानी की दलील थी कि यह फिल्म लोगों के मन में उनके और अन्य आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ पूर्वाग्रह पैदा करेगी। बॉम्बे हाइकोर्ट ने इस पर सहमति जताई और शुरू में फिल्म की रिलीज पर रोक लगा दी। फिल्म आखिरकार 2007 में रिलीज हुई।

 

 सच्‍चाई को कुछ छुपाना

अजहर (2016) और संजू (2018) जैसी बॉयोपिक पर आरोप लगा कि मोहम्मद अजहरुद्दीन और संजय दत्त की जिंदगी की कड़वी सच्‍चाइयों पर परदा डाला है। बाजीराव मस्तानी (2015), पद्मावत (2018) जैसी ऐतिहासिक फिल्‍मों पर घटनाओं के तोड़मरोड़ कर पेश करने का आरोप लगा और कई हलकों में विरोध उठे। ‘घूमर’ गीत में निर्माताओं को दीपिका पादुकोण की कमर को डिजिटल रूप से ढंकना पड़ा। यह दर्शाता है कि संस्कृति के स्वयंभू पहरुओं को खुश करने के लिए रचनाकारों को कैसे-कैसे बेतुके बदलाव करने पड़ते हैं।

ठाकरे (2019) बाल ठाकरे की बॉयोपिक की तरह बनाया गया है। आलोचकों का कहना है कि राजनैतिक नेता को अदालत में पेश होने के दृश्‍य, खासकर हिंसा भड़काने वाले मुकदमे में, रिकॉर्ड के अनुरूप नहीं हैं। बाला साहेब कभी भी 1992-93 के दंगों या अन्य मामलों से संबंधित किसी भी न्यायिक कार्रवाई में औपचारिक रूप से पेश नहीं हुए।

हाल में विक्की कौशल की फिल्म छावा (2025) को शिर्के परिवार की ओर से उनके पूर्वजों को देशद्रोही के रूप में चित्रित करने के लिए कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा। दीपक राजे शिर्के ने फिल्म निर्माताओं पर ऐतिहासिक तथ्‍यों को गलत ढंग से पेश करने का आरोप लगाया। परिवार ने धमकी दी कि अगर उनकी आपत्ति पर ध्यान नहीं दिया गया तो वे 100 करोड़ रुपये का मुकदमा करेंगे और राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन करेंगे। निर्देशक लक्ष्मण उटेकर ने भूषण शिर्के से संपर्क किया और माफी मांगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि फिल्म में उपनाम या गांवों का साफ उल्लेख नहीं था।

 

कहां लक्ष्‍मण रेखा खींचे?

किस्‍सागोई और ऐतिहासिक तथ्‍य के बीच तनाव नई बात नहीं है। वृत्तचित्रों के जनक कहे जाने वाले रॉबर्ट जे. फ्लेहर्टी पर नैनूक ऑफ द नॉर्थ (1922) में मनगढंत दृश्य गढ़ने का आरोप लगा था, जो अब तक बना पहला फीचरलेंथ वृत्तचित्र में से एक था। अपने समय के क्रांतिकारी होने के बावजूद नैनूक के इनुइट जीवन को कुछ हद तक रोमांटाइज किया गया है। फ्लेहर्टी ने इनुइट पारंपरिक गतिविधियों में बदलाव किया जो उस वक्‍त नहीं था, जैसे कि बंदूकों के बजाय हार्पून से शिकार करना।

वृत्तचित्र वास्तविक लोगों पर केंद्रित होते हैं, खासकर सच्ची अपराध कथाओं में, यह तनाव खासकर तभी उभरता है। ये फिल्में अक्सर अन्याय या व्यवस्थागत सड़ांध को उजागर करती हैं। चुनौती वास्तविकता को दर्ज करने और नैतिकता की बारीक रेखा के बीच संतुलन में है। मानहानि जैसी कानूनी चिंताएं जायज हैं, केवल भावनाओं को ठेस पहुंचाना ऐसी फिल्म निर्माण को सेंसर या दबाने का कारण नहीं होना चाहिए।

 

 

 

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