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बिमल रॉय: इंदिरा गांधी भी थीं जिसकी फैन

11 फिल्मफेयर अवार्ड और छः नेशनल फ़िल्म अवार्ड, सिनेमा ऐसा कि उसकी नकल इटैलियन सिनेमा और हॉलीवुड तक ने की। जमींदारों के परिवार मे जन्म लिया पर फिल्में बनाईं गरीबी और औरतों के शोषण पर, कलकत्ता से मुम्बई तक की यात्रा और 50 के दशक में कांस फिल्म फेस्टिवल में सम्मान।
बिमल रॉय: इंदिरा गांधी भी थीं जिसकी फैन

विशाल शुक्ला

वो फिल्मकार, जिसके साथ काम करना मधुबाला की भी हसरत थी, और इंदिरा गांधी भी थीं जिसकी प्रशंसक। जी हां, परिवर्तनशील सिनेमा के अगुआ और मेनस्ट्रीम और पैरलल सिनेमा के फर्क को मिटा देने वाले कालजयी बिमल राय का आज 108वां जन्मदिन है।

कलकत्ता से शुरू हुआ सफर

12 जुलाई 1909 को ढाका के सुआपुर (तब पूर्वी बंगाल) के एक जमींदार परिवार में हुआ था। कम उम्र में ही पिता को खो देने के बाद इनकी रियासत को अंग्रेजी सरकार के मैनेजर ने हड़प लिया, इस कारण छुटपन मे ही कलकत्ता चले आए। बिमल राय ने अपना करियर न्यू थियेटर स्टूडियो, कोलकाता में कैमरामैन के रूप में शुरू किया।

 

 

शुरुआत मे शौकिया तौर पर नौकरी के लिए कैमरा सम्भालने वाले राय को कैमरा वर्क का ऐसा चस्का लगा कि उनकी काबिलियत के किस्से धीरे धीरे पूरी कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री में मशहूर हो गए। आलम ये था कि कलकत्ता में उनके स्टूडियो के बाहर लंबी-लंबी कतारें लगी रहती थीं।

'अरे बिमल दा आपके हाथों में तो जादू है। आपने तो मुझे अप्सरा बना दिया।’ ये शब्द थे दादा साहब फाल्के सम्मान पाने वाली और तब की मशहूर बंगाली अभिनेत्री कानन देवी के।

कैमरामैन के तौर पर न्यू थिएटर्स प्राइवेट लिमिटेड में शामिल हुए रॉय ने 1935 में प्रदर्शित हुई पीसी बरुआ की फिल्म देवदास और 1937 में प्रदर्शित 'मुक्ति' के लिए फोटोग्राफी की। लेकिन बिमल दा ने बहुत अधिक समय तक कैमरामैन के तौर पर काम नहीं किया और 1944 में उन्होंने 'उदयेर पौथे' नाम की बांग्ला फिल्म से निर्देशन के मैदान में उतरे।

सोशलिस्ट विचारों से थे प्रभावित और फेमिनिस्ट एप्रोच

बिमल रॉय ने ऐसे समय में अपने कैरियर की शुरुआत की, जब भारतीय सिनेमा अपनी जड़ें जमा ही रह था। हिंदी सिनेमा में प्रचलित कला और कमर्शियल फिल्मो के बीच की दूरी को पाटते हुए बेहद लोकप्रिय फिल्में बनाईं। फिल्म 'बैंगल फैमिन' (1943) से उन्होंने बतौर निर्देशक अपने कैरियर की शुरुआत करने वाले बिमल राय ने 1953 में फिल्म 'दो बीघा जमीन' बनाई।

भारतीय किसानों की खस्ता हालत पर आधारित यह फिल्म ऐसे गरीब किसान की कहानी थी जो शहर आकर  रिक्शा खींचकर रुपया कमाता है ताकि वह गिरवी पड़ी जमीन को छुड़ा सके। गरीब किसान और रिक्शा चालक की भूमिका में बलराज साहनी और उनकी पत्नी के किरदार में निरुपमा रॉय ने जान डाल दी थी।

कहते हैं कि बिमल रॉय सोशलिज़्म और फेमनिज्म के कांसेप्ट से बहुत प्रभावित थे। जिसकी झलक दो बीघा जमीन से लेकर बंदिनी, सुजाता जैसी फिल्मों में साफ दिखाई देती है। जहां एक ओर वह सामाजिक रूढ़ियों को संवेदना के फिल्मों में दिख रहे थे तो दूसरी समाज की पीड़ा को तरफ भी उनका जोर था। उस समय हिंदी फिल्मों में नायक केंद्रित स्क्रिप्ट का जोर था लेकिन बिमल रॉय ने उसे  खारिज कर  हीरोइनों को केंद्रित कर मधुमती, बंदिनी, सुजाता, परिणीता बेनजीर, बिराज बहु जैसी बेहद कामयाब फिल्में बनाईं।

वर्ग संघर्ष और जाति संघर्ष पर की चोट

देशभक्ति और सोशल इशूज पर बेस्ड फिल्मों से अपना करियर शुरू करनेवाले बिमल रॉय की कृतियों के विषय का फलक काफी व्यापक रहा और वह किसी एक इमेज में बंधने से बच गए। जहां एक ओर उन्होंने सुजाता में अछूत जाति की कही जाने वाली अनाथ लड़की और ब्राह्मण लड़के के प्यार को दिखाया और कास्ट सिस्टम पर चोट की, वहीं अपने डायरेक्शन डेब्यू 'उदयर पाथे' (बाद में 'हमराही' नाम से हिंदी मे रिलीज़ हुयी) से किया, जिसमे उन्होंने एक उद्योगपति के लिए भाषण लिखने वाले एक बेरोज़गार लेखक और उद्योगपति के बीच के अधिकार की लड़ाई को दिखाते हुए क्लास सिस्टम पर भी तंज कसा।

इसी दौर में बिमल दा ने अंजानगढ़ भी बनाई जो बिहारी  आदिवासियों की जमीन हथियाना चाह रहे ताकतवर नेताओं की पोल खोलती थी। अंजानगढ़ न केवल एक फ़िल्म है बल्कि  सत्ता और अल्पसंख्यक आदिवासियों के बीच संघर्ष पर महत्तपूर्ण दस्तावेज है। 2016 में आदिवासियो जंगल और जमीन की बात फिल्मों में होगी, इसकी तो उम्मीद भी नहीं है।

मधुबाला भी थीं दीवानी

हिंदी सिनेमा की सर्वकालिक खूबसूरत एक्ट्रेस कही जाने वाली मधुबाला भी बिमल रॉय की तगड़ी प्रशंसक थीं। कहते हैं मधुबाला बिमल रॉय की फिल्म 'बिराज बहू' में काम करना चाहती थीं। उन्होंने बिमल रॉय के दफ़्तर के कई चक्कर लगाए लेकिन बिमल उन्हें कास्ट नहीं कर पाए। मधुबाला को अंतिम वक्त तक इस बात का अफसोस रहा।

इंदिरा गांधी भी थीं प्रशंसक

अपने करियर के शुरुआती सालों में जब बिमल दा कैमरापर्सन के तौर पर ख्याति अर्जित कर चुके थे और कलकत्ता में उनके स्टूडियों के बाहर आम लोगों से लेकर उस वक्त के सितारों तक की कतारें लगा करतीं थी। एक बार इंदिरा गांधी ने अपनी कलकत्ता विजिट के दौरान बिमल दा से मिलने की इच्छा जाहिर की। कहते हैं इस दौरान बिमल रॉय के द्वारा खींची गईं तस्वीरें आज भी दिल्ली के 'तीन मूर्ति भवन' म्यूजियम में सुरक्षित हैं।

टैलेंट की थी परख

बिमल राय स्वयं एक महान डॉयरेक्टर होने के साथ-साथ वे प्रतिभा के अद्भुत पारखी भी थे जो कि इस बात से साफ है कि बॉलीवुड में संगीतकार के रूप में मशहूर सलिल चौधरी के लेखन की ताकत को  पहचाना जिसके फलस्वरूप आज देश के पास "दो बीघा जमीन" जैसा  मास्टरपीस है। यही वजह रही जब वह कलकत्ता से बम्बई आए तो सलिल चौधरी, ऋषिकेश मुखर्जी और बासु भट्टाचार्य समेत अपनी पूरी टीम लेकर आए।

उस वक्त उनके सहायक रहे दिग्गज़ गीतकार गुलजार के ही शब्दों मे "मेरी फिल्मों में बिमल रॉय की छाप है। उनके तकरीबन सभी असिस्टेंट्स का यही हाल है। बिमल रॉय कि ही तरह तकरीबन सभी ने साहित्य को अपनी फिल्मों का आधार बनाया, चाहे वो बासु भट्टाचार्य हों या ऋषिकेश मुखर्जी। मैंने भी साहित्य से कहानिया ली हैं।”

फिल्मों पर समकालीन लिटरेचर की गहरी छाप

जिस तरह उस दौर में मुंशी प्रेमचंद के 'गोदान' का हीरो 'होरी' अभावग्रस्त और संघर्षरत भारतीय किसान का प्रतीक बन चुका था तो वहीं दूसरी ओर सामंती व्यवस्था और नगरों के पूँजीवाद के बीच पिसते श्रमिक वर्ग के प्रतिनिधि का दर्ज़ा 'दो बीघा ज़मीन' का 'शम्भू' बना। जिस वर्ग में यह भ्रम है कि हाल ही के दिनों में एक अंग्रेज द्वारा बनाई गयी एक अति साधारण फिल्म के 'स्लमडॉग मिलिनेयर' को ऑस्कर मिलने के बाद ही ग्लोबली हिंदी सिनेमा को प्रतिष्ठा मिलने का दौर शुरू हुआ है। उन्हें सनद रहे कि 'दो बीघा ज़मीन' वर्षों पहले ही अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में अपना डंका बजा चुकी थी। अगर कभी भी 'प्रगतिशील सिनेमा' की बात होगी तो बिमल राय निस्संदेह इसके चितेरा माने जाएंगे।

आज भी रिलेवेंट है बिमल दा की फिल्में

बिमल रॉय की बेटी, लेखक और पत्रकार, रिंकी  भट्टाचार्य बताती हैं, ''पिताजी की सोच समय से आगे की थी। मधुमती से प्रेरित होकर आज तक फिल्में बन रही हैं। ऋषि कपूर की कर्ज और फराह खान की ओम शांति ओम उसी पर आधारित थीं। पिताजी ने दिलीप कुमार को लेकर देवदास बनाई।"

वह कहती हैं कि बाद में संजय लीला भंसाली ने भी देवदास बनाई, लेकिन वो 'देवदास' की ट्रेजेडी नहीं समझ पाए। शाहरुख खान तो इस किरदार के दर्द को समझ ही नहीं सके।

आखिरी सफर

बिमल राय 'चैताली' फिल्म पर काम कर ही रहे थे, लेकिन 1966 में 7 जनवरी को बम्बई में कैंसर के कारण इनका निधन हो गया। बिमल राय भले ही हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उन्होंने फिल्मों की जो भव्य विरासत छोड़ी है वह सिने जगत के लिए हमेशा अनमोल रहेगी।

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