हिंदी सिनेमा के सौ सालों का सार ये है कि ज्यादातर फिल्मों में कहानी एक नायक से शुरू होती है, जो नायिका के पीछे भागता है, उसे मोहित करने कई स्वांग रचता है, जोखिम उठाता है और जैसे ही नायक-नायिका मिलते हैं, कहानी खत्म होती है। सच कहें तो हिंदी सिनेमा यानी बॉलीवुड के नामी डायरेक्टर्स ने अपनी फिल्मों में रोमांटिसिज्म, सोशल इशूज, नेशनलिज्म को अपनाया जरूर है, लेकिन नुमाइंदगी का अंदाज सभी का अलग-अलग है। ‘अंदाज-ए-बयां’ ही इनका आधार है, इनके फिल्मों की बुनियाद है। ‘लीक से हटकर जो फिल्म बनाता है वो दुनिया से अलग नहीं सोचता बल्कि किसी एक सूक्ष्म पहलू को विस्तार से समझाता है, कई दफा दिखाता है, नई दिशा देता है, यही डायरेक्टर्स की सफलता का फार्मूला है।‘
कई दशकों से बॉलीवुड फिल्मों ने प्यार की परिभाषा दी- लव ऑफ फर्स्ट साइट, यानी पहली नजर में प्यार हो जाता है। अनिल कपूर, शाहरूख खान, आमिर खान और अक्षय कुमार, इमरान हाशमी ने शुरूआती दौर में कई फिल्में कीं जो इस परिभाषा को सार्थक सिद्ध करता रहा। फिल्म में नायिका से पहली बार गुफ्तगु होते ही नायक तय कर लेता, कि ये वही है जिसे वो सपनों में देखता है। ये वही है जिसे पाकर पूरे कायनात की खुशी उसके मुट्ठी में होगी, ये वही है जिसके लिए वो दुनिया से जीतना चाहता है लेकिन सिर्फ इसी एक के आगे वो अपना सर भी झुकाता है, आखिर दिल जो जीतना है।
लंबे अरसे तक चले इस प्यार की विडंबना को खत्म किया बिहार के छोटे से जिले दरभंगा से मुंबई की राह पकड़ने वाले इम्तियाज अली ने। इम्तियाज की पहली से लेकर अब तक जितनी भी फिल्में हैं,- सोचा न था, लव आज कल, जब वी मेट, रॉकस्टार, तमाशा... इनमें नायक-नायिका कई बार मिलते हैं, किसी और के साथ अपने रिलेशनसिप की बातें आपस में शेयर करते हैं, क्योंकि वो मानते हैं कि दोनों सिर्फ फ्रेंड हैं, प्यार तो वो है जिसके किस्से ये एक-दूसरे को सुनाते हैं। लेकिन आधी फिल्म बीत जाने के बाद नायक-नायिका को एहसास होता है कि एक-दूसरे से दूर जाकर वे तन्हाई में दिन गुजारते हैं, उस फ्रेंड की कमी महसूस होती है जो दिल में खास जगह बना चुका होता है। उसके बगैर शाम बेरंग और सुबह भी बेगानी सी लगती। फिर ये दोनों मान लेते कि इन्हें आपस में प्यार हो चुका है। प्यार के रंग फ्रेंड के साथ ही एहसासों को अतिरेक को छुते हैं, जो साथ है तो पूरी दुनिया से हम बेखबर हो जाते और जो साथ नहीं है तो पूरी दुनिया ही बदहवास लगती। ये बातें इम्तियाज ने ‘सोचा न था’, ‘लव आज कल’, ‘जब वी मेट’ और ‘रॉकस्टार’ के जरिए दुनिया को बताया।
इसके अलावा इम्तियाज की फिल्मों का यूनिक पॉइंट है प्रकृति की खूबसूरती को कैमरे की नजर से सबको दिखाना। इनकी सभी फिल्मों में दर्शक देश-विदेश के खूबसूरत लोकेशन की सैर कर लेते हैं वो भी सिनेमा की ही टिकट के पैसे पर। हाइवे, जब वी मेट, रॉकस्टार औऱ तमाशा के सीन्स हमें आज भी याद हैं। पुछे जाने पर इम्तियाज ने बताया कि उनकी मां कहती है- बेटा अलग-अलग लोकेशन पर फिल्म शूट किया कर, मैं तुझसे मिलने आऊं और इसी बहाने हिंदूस्तान घूम लूं। शायद इसलिए इम्तियाज ने मां के आंचल में पहाड़, झील, नदी और सुंदर सड़कों की खूबसूरती को तोहफे के रूप में डाल दिया।
साकेत की हाल ही में रिलीज हुई फिल्म हिंदी मीडियम भी ‘मास वर्सेज क्लास’ की बात करता है। बिजनेस क्लास के अनपढ़ आदमी (इरफान खान) से शादी कर पढ़ी-लिखी युवती (कमर) अपनी बेटी को दिल्ली के सबसे टॉप के स्कूल में एडमिशन दिलाना चाहती है, ताकि वो उस जिंदगी को जी सके, जो एक हायर सर्विस क्लास प्रीफर करता है। वो मानती है बिजनेस से पैसा कमाया जा सकता है, लेकिन खास ‘क्लास’ को नहीं जीया जा सकता। उस ‘क्लास’ को पाने के लिए अंग्रेजी बोलना, बड़े रेस्टोरेंट में खाना, धीमी म्यूजिक में थिरकना और हंसी आने पर भी जरा सा मुंह खोलना (साइलेंटली) ही सही सलीका है। अपनी खुद की लाइफ को इस अनुरूप बनाने शादीशुदा पंजाबी कपल कई नुस्खे अपनाते हैं, जद्दोजहद करते हैं कि एक बार बेटी को अंग्रेजी मीडियम में एडमिशन मिल जाए, ताकि उसकी लाइफ बन जाए। साकेत के बारे में लगता है आखिर वे दिल्ली से बाहर कब निकलेंगे।
कबीर खान का सिनेमा भी बॉलीवुड में अपनी खास जगह बना चुका है, अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (9/11) पर हवाई हमले के बाद से एक ‘खास कम्यूनिटी’ पर लगातार अत्याचार होते रहे हैं, शक के आधार पर टॉर्चर भी किया गया। इस नरक भरी जिंदगी से बाहर निकाल किरदारों के नेक इरादे को दुनिया के सामने लाने कबीर ने ‘न्यूयॉर्क’ (2009) फिल्म बनाया। फिल्म ‘न्यूयॉर्क’ में सैम (जॉन अब्राहम) मुस्लिम युवा है, जो वर्ल्ड ट्रेड सेंटर हमले के बाद अमेरिकन सुरक्षा एजेंसी- एफबीआई (फेडरल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन) के द्वारा टॉर्चर किया जाता है, इसका बदला लेने सैम सुरक्षा एजेंसी (एफबीआई) के पुरे हेड क्वार्टर को बम से उड़ाने की प्लानिंग करता है, लेकिन उसे इंसानियत की राह पर बढ़ने के लिए प्रेरित करने वाला पुलिस के किरदार में एक मुस्लिम अफसर - रोशन (इरफान खान), सैम के इरादों को नाकाम कर देता है। फिल्म के आखिरी में दर्शक देखते हैं - नई जनरेशन ऐसी नहीं कि मजहब के नाम पर संबंध बनाए, वो तो दिल से जीता है और दिलवालों को गले लगाता है।
कबीर ने अपने सभी फिल्मों में किरदार को मजहब की छाया में रखकर उसकी सोच, नेक इरादे और सेवाभाव के बूते अलग पहचान दी। चाहे वो ‘न्यूयॉर्क’ में इरफान खान के मुस्लिम पुलिस वाले का किरदार रोशन हो, ‘एक था टाइगर’ में फिल्म की टर्निंग पॉइंट पाकिस्तानी खुफिया एजेंट कैटरीना कैफ का किरदार जोया हो या फिर ‘बजरंगी भाईजान’ में पाकिस्तानी पत्रकार नवाजुद्दीन सिद्दीकी का चांद नवाब वाला किरदार। इनकी फिल्म न्यूयॉर्क, एक था टाइगर, बजरंगी भाईजान की पृष्ठभूमि उस खास कम्यूनिटी के किरदार को हाइलाइट करती है।
फिल्म ‘एक था टाइगर’ में भारतीय खुफिया एजेंट टाइगर (सलमान खान), एक पाकिस्तानी खुफिया एजेंट जोया (कैटरीना कैफ) से प्यार कर बैठता है, जोया अगर चाहती तो फर्ज मानकर इसका फायदा उठा विरोधी मूल्क को सकते में डाल सकती थी लेकिन प्यार की जमीं पर फरेब की पैदावार करना मुस्लिम एजेंट का नागवार गुजरा, और उसने भारतीय एजेंट के साथ किसी अंजाम तक पहुंचने की बजाय, एक-दूसरे के साथ जिंदगी को खुशनुमा मोड़ दे दिया। इस फिल्म में भी मजहबी इरादों को नजर-अंदाज कर इंसानियत को प्यार का असर बताया गया।
‘बजरंगी भाईजान’ ऐसी फिल्म रही जिसने दोनों विरोधी मुल्क के लोगों का दिल जीता। पाकिस्तानी बच्ची शाहिदा (हर्षाली मेहता) को उसके देश पाकिस्तान पहुंचाने की जिद्द में पवन कुमार चतुर्वेदी (सलमान खान) अपनी जान जोखिम में लेते हैं, बॉर्डर पर तार के नीचे से सरहद पार कर पाकिस्तान पहुंचते हैं, वहां का पत्रकार चांद नवाब (नवाजुद्दीन सिद्दीकी) और मौलवी (ओमपुरी) जिस तरह से पवन चतुर्वेदी की मदद करते हैं, उससे दर्शकों ने अंदाजा लगा लिया कि दोनों ही देश में खुदा के नेक बंदे अब भी हैं, जो दिल की सुनते हैं, वो हिंसा नहीं चाहते बल्कि इंसां बनकर जीना चाहते हैं। इस तरह कबीर ने अपनी फिल्मों के माध्यम से ‘खास कम्यूनिटी’ पर लगने वाले लांक्षण को खत्म कर उन्हें फिर से सम्मान दिलाने बेहतरीन प्रयास किया है। हर वर्ग के दर्शकों ने कबीर का भरपूर साथ भी दिया।
कबीर ने एक इंटरव्यू में एनडीटीवी को बताया- मैं जानता हूं कि एक फिल्म समाज में कोई बदलाव नहीं ला सकता, लेकिन सिनेमा की ताकत लोगों की सोच पर असर जरूर डाल सकती है।
मधुर भंडारकर की फिल्में- पेज थ्री, फैशन, कैलेंडर गर्ल्स, इंदू सरकार है, सभी में फिल्म का केंद्र 'एक युवती' है, इन सभी फिल्मों की पृष्ठभूमि 'मुंबई' है। अनुराग कश्यप की फिल्मों का केंद्र 'अपराध और हिंसा' है, वहीं संजय लीला भंसाली अपने फिल्मों के 'हर एक फ्रेम में लाखों के सोने-जेवरात दिखाना' पसंद करते हैं। यही इनकी यूनिकनेस है। जिसे ये छोड़ना नहीं चाहते।
डायरेक्टर्स की पॉपुलरिटी और सफलता का पैमाना साफ है कि वे फिल्म के लिए उस पृष्ठभूमि को विषय चुनते हैं, जिसमें उनकी पकड़ हो। फिर जिस कला (फिल्म) के वे कलाकार हैं, उस माध्यम से अपनी बात देश-दूनिया से कहते हैं। फिल्म की बॉक्स ऑफिस कमाई और पॉपुलरिटी से डायरेक्टर को दर्शकों का जवाब (फीडबैक) मिल जाता है। वे फिर से विषय की सूक्ष्मता को विस्तार देने किसी नई कहानी, नए कैरेक्टर के साथ अलग-अलग अंदाज में पेश होते हैं।
(लेखक गुरू घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय- बिलासपुर के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत है।)