सिंगिंग इन द रेन अंग्रेजी
निर्देशक: स्टेनली डॉनेन, जीन केली
वर्ष: 1952
कलाकार: जीन केली, डॉनाल्ड ओ कोनर
पचास के दशक में भारी तामझाम और बड़ी लागत से बनी हॉलीवुड की संगीतमय कॉमेडी फिल्म सिंगिंग इन द रेन में जीन केली और उनकी प्रतिभाशाली सह-कलाकारों की नृत्य प्रतिभा देखने को मिलती है। केली ने फिल्म का कोरियोग्राफ और सह-निर्देशन भी किया है। इस फिल्म में 20 के दशक में हॉलीवुड की हलकी-फुलकी कहानी है जिसमें मूक फिल्मों से निकल रहे सिनेमा के दौर में तीन कलाकारों की दशा का चित्रण किया गया है। फिल्म के गीत और संगीत इसके निर्माता आर्थर फ्रीड तथा कंपोजर नासियो हर्ब ब्राउन ने तैयार किए हैं। इसमें खूबसूरत टाइटिल संगीत 'सिंगिंग इन द रेन भी फ्रीड ने ही तैयार किए हैं जिसमें जीन केली ने छाता घुमाते हुए तथा पानी में छपाक-छपाक करते हुए खूबसूरत नृत्य पेश किया है। इसकी कोरियोग्राफी बेहतरीन है। केली इसमें मूक फिल्मों की उभरती अभिनेत्री की भूमिका में हैं जो संघर्षरत युवा कलाकार (रेनॉल्ड्स) से मिलती हैं और सिनेमा के बाद की जिंदगी में उसके साथ रोमांस करती हैं। यह रोमांस लोगों में चर्चा का विषय बन गया है जो अब जुबान हिलाने के बजाय आपस में बात भी कर सकते हैं।
हजारों ख्वाहिशें ऐसी हिंदी
निर्देशक: सुधीर मिश्र
वर्ष: 2003
कलाकार: केके मेनन, शाइनी आहूजा, चित्रांगदा सिंह
विचारक मार्का फिल्में बनाने की शोहरत वाले निर्माता सुधीर मिश्र की हजारों ख्वाहिशें ऐसी भारतीय राजनीति के उस दौर को बड़े परदे पर उतारती है, जो अक्सर गहरी रोमानियत के साथ चित्रित होता रहा है-नक्सलबाड़ी का जलता-सुलगता दौर, वर्ष 1970 का। ऐसा दौर जिसने भारतीय राजनीति में मार्क्सवादी विचारधारा के साथ युवाओं की ब्रिगेड को कॉलेज-विश्वविद्यालयों में उद्वेलित किया था। यह फिल्म इस आंदोलन के उठान और पस्ती के बीच का सफर तय करती है। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि विचारधारा आधारित आंदोलन को यह महज नारेबाजी और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा में तब्दील करने का दुस्साहस करती है। प्रेम त्रिकोण और भूमिका में अदला-बदली की कहानी दर्शकों को बांधे रखती है, लेकिन आंदोलन के वेग को थामने की कूवत निदेशक के हाथ से खिसकती जाती है। इस फिल्म में केके मेनन, चित्रांगदा सिंह और शाइनी आहूजा की प्रभावशाली एक्टिंग की भी चर्चा रही। नक्सलबाड़ी आंदोलन, छात्रों में बहते आक्रोश को चित्रित करने का जोखिम जरूर इस फिल्म ने उठाया। इस फिल्म की बहुत चर्चा हुई, नक्सली आंदोलन से जुड़े लोगों ने इसका तीखी आलोचनात्मक विश्लेषण पेश किया। मुख्यधारा के सिनेमा में लंबे अंतराल के बाद विचारधारात्मक फिल्म की तौर पर इस फिल्म ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। सुधीर इस मामले में सफल रहे कि एक कठिन समझे जाने वाले विषय पर भी ऐसी फिल्म बनाई जा सकती है, जो सीधे दर्शकों से जुड़े और विचारधारा तथा आंदोलन के सवालों-द्वंद्वों को भी सामने रखे। फिल्म के गाने जबर्दस्त हैं, शुभा मुद्गल का गाया 'बावरा मन देखने चला एक सपना’ हो या फिर फिल्म का टाइटल गीत 'हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ गालिब के दौर से लेकर नक्सलवाद तक के दौर की ख्वाहिशों को दिलकश अंदाज में सामने रखती हैं।
भाषा सिंह
पार्टी हिंदी
निर्देशक: गोविंद निहलानी
वर्ष: 1984
कलाकार: मनोहर सिंह, रोहिणी हटंगड़ी, विजया मेहता
पार्टी का स्वर तीखी आत्मालोचना से भरा है। अस्सी के दशक की यह अप्राप्य क्लासिक हमारे आधुनिक बुद्धिजीवी भद्रलोक की अंतरंग कथा है, जिसमें उनके व्यक्तितत्वों का उथलापन अपनी पूरी कटुता के साथ परदे पर जीवित होता है। लेकिन पार्टी की बड़ी बात यह है कि यह इन चरित्रों को एकायामी 'अच्छे’ या 'खल’ के भेद में नहीं विभाजित करती। इसके बदले यह उस गैर-बराबरी पर आधारित व्यवस्था पर कटाक्ष है जो ऐसे भीतर से सड़ रहे सुविधाभोगी शहरी मध्यवर्ग को पैदा करती है। सम्मानित मराठी लेखक महेश एलकुंचवार के नाटक पर आधारित निहलानी की पार्टी उनकी पिछली चर्चित अर्ध सत्य से सिनेमाई भाषा में शायद कुछ कम कठोर है, लेकिन इसका व्यंग्य मारक है। यहां कहानी सिर्फ एक शाम की है, जहां लेखक दिवाकर बर्वे (मनोहर सिंह) के सम्मान में आयोजित पार्टी में शहर के तमाम बुद्धिजीवी-लेखक-कलाकार और कला के कद्रदान शरीक होते हैं। यह लेखन में 'क्रांति’ करनेवाले लेकिन असल जीवन में मर्दवादी-जातिवादी-सुविधाभोगी चरित्रों की बहुतायत है। कलाकार जो विभिन्न कारणों के चलते शासनसत्ता से समझौता कर चुके हैं। निहलानी ने इन परतदार चरित्रों के निर्वाह के लिए हिंदी सिनेमा की सबसे अद्वितीय कास्ट को जुटाया है। लेकिन इन तमाम चरित्रों के ऊपर यहां अनुपस्थित उपस्थिति है सबसे प्रतिभाशाली युवा लेखक अमृत (नसीरुद्दीन शाह) के किरदार की। अमृत जो इस सुविधाभोगी वाम के दरम्यान सच्चे क्रांतिकारी वाम का प्रतीक है। अमृत जो इस पार्टी को, इस छल और धोखे से भरी दुनिया को छोड़ असल लड़ाई के मोर्चे पर जा चुका है। फिल्म नक्सलबाड़ी के बाद उभरी वाम विचारधारा के बीच की उस फांक को उजागर करती है जहां साधनों की बहस दरअसल ईमानदारी और नीयत की बहस में बदल चुकी थी।
मिहिर पंड्या
नवरंग हिंदी
निर्देशक: वी. शांताराम
वर्ष: 1959
कलाकार: महीपाल, संध्या
वी. शांताराम के सिनेमाई विजन का इंद्रधनुष थी नवरंग। फिल्म दो आंखें बारह हाथ की शूटिंग के दौरान एक हादसे में फिल्मकार वी. शांताराम की आंखों की रोशनी तकरीबन चली गई थी। काफी इलाज के बाद भी उनकी आंखें ठीक हुईं तो उन्होंने जीवन के रंगों और अपनी कल्पनाओं को नई रोशनी से देखने-दिखाने की कोशिश की। इसी कोशिश का नतीजा थी, नवरंग। इसमें निर्देशक के तौर पर न सिर्फ अण्णा साहेब (वी. शांताराम) का सर्वश्रेष्ठ देखने को मिलता है बल्कि फिल्मकार के तौर पर उनके विजन और हौसले की झलक मिलती है। ब्रितानी दौर के भारत में एक कवि की रंगीन कल्पना और आम जिंदगी की फीकी सच्चाइओं से रूबरू कराती नवरंग की कहानी से लेकर कलाकारों के चयन, भव्य सेट, मधुर गीत-संगीत फिल्म के हर पहलू पर वी. शांताराम की छाप साफ दिखाई पड़ती है। दिग्गज कलाकारों के बजाय महिपाल और संध्या जैसे अपेक्षाकृत कम चर्चित कलाकारों को लेकर शांताराम ने उस दौर की शानदार फिल्म बनाई जिसमें भारतीय सिनेमा की गहराई नजर आती है। पत्नी में प्रेमिका की खोज और कला साधना के साथ आम जीवन की जद्दोजहद जैसे नए विषयों के साथ नवरंग उस दौर की फिल्मों में एक ताजगी लेकर आई। समाज की हकीकत को पेश करने की शांताराम की ललक इस फिल्म में भी दिखाई पड़ती है। साथ-साथ भव्य सेट और उस दौर में फिल्मांकन के सबसे आधुनिक तरीकों के जरिये वह पर्दे पर एक कल्पना लोक उतारने में भी कामयाब रहे। इस फिल्म की छाप बाद में उनकी कई फिल्मों जैसे, गीत गाया पत्थरों ने और जल बिन मछली-नृत्य बिन बिजली पर भी साफ दिखाई पड़ती है। नवरंग ने डबल रोल जैसे प्रयोगों के साथ-साथ गीतों के फिल्मांकन को एक नई भाषा-परिभाषा दी। सिर पर कई मटके रख नृत्य के दृश्य हों या मंदिर की बड़ी-बड़ी घंटियों वाले सेट्स, सी. रामचंद्र का यादगार संगीत हो या फिर महेंद्र कपूर-आशा भोंसले के गाए बेहद लोकप्रिय गीत। नवरंग का हर पहलू वी. शांताराम के सिनेमाई विजन का सबूत है। नवरंग की नायिका संध्या वी. शांताराम की तीसरी पत्नी थीं जिन्होंने शांताराम की दो आंखें बारह हाथ, झनक-झनक पायल बाजे और सेहरा जैसी कई फिल्मों में काम किया। संध्या ने राजकमल बैनर के बाहर फिल्में नहीं कीं। गायक महेंद्र कपूर ने अपने फिल्मी करिअर की शुरुआत नवरंग से की थी। वी. शांताराम और राजकमल कलामंदिर नवरंग जैसी कामयाबी को फिर नहीं दोहरा पाए।
अजीत सिंह
सत्या हिंदी
निर्देशक: रामगोपाल वर्मा
वर्ष: 1998
कलाकार: मनोज वाजपेयी, जेडी चक्रवर्ती, उर्मिला माताोंडकर
इस फिल्म के आखिरी में कुछ सीन हमारी व्यवस्था पर जबरदस्त टिप्पणी करते हैं। भीकू क्वहात्रे (मनोज वाजपेयी) मुंबई अंडरवर्ल्ड का सरगना, अपने साथी सत्या (चक्रवर्ती) के साथ, मुंबई के समंदर किनारे खड़े होकर सामने फैली हुई विशाल मुंबई से सवाल पूछता है, 'मुंबई का किंग कौन?’ सवाल का जवाब भी वह खुद देता है, 'भीकू क्वहात्रे।’ उसने हाल ही में मुंबई अंडरवर्ल्ड के दूसरे सरगना, भाऊ ठाकुरदास झावले को इलेक्शन जिताया है और बाकी गैंग भी लगभग खत्म कर दिए हैं। अगले 3 या 4 सींस के भीतर भाऊ ठाकुरदास झावले भीकू म्हात्रे की गोली मारकर हत्या कर देता है। भाऊ की मंशा मुंबई का किंग बनने की है। चंद दिनों का मुंबई का किंग भाऊ भीकू के साथी सत्या के हाथों मारा जाता है। भाऊ की हत्या के बाद सत्या एक हाथ में पिस्तौल लिए अपनी प्रेमिका के दरवाजे पर दस्तक देकर पुरानी जिंदगी से नाता तोडक़र सामान्य जिंदगी की ओर जाने की जी तोड़ कोशिश में लगा है। लेकिन हाथ में पकड़ी पिस्तौल सत्या का अतीत है जिसका अंत सिर्फ बंदूक की गोली से ही होगा। होता भी वैसा ही है। पुलिस एनकाउंटर में सत्या सामान्य जिंदगी की ओर दौड़ में हार जाता है। उसकी मौत हो जाती है। पूरी व्यवस्था अपने कब्जे में रखने के संघर्ष का शिकार हुए भीकू म्हात्रे और भाऊ ठाकुरदास झावले और इस व्यवस्था से बच कर भागने की सत्या की कोशिश नाकाम हो जाती है, क्योंकि हिंसा का फल हिंसा ही होता है। गोविंद निहलानी की अर्धसत्य का अपवाद छोड़ सत्या बॉलीवुड की एकमात्र फिल्म थी जिसने मुंबई अंडरवर्ल्ड का असली चेहरा सामने रखा। अपराध की दुनिया लगभग दरवाजे तक आकर रुकी है। यह अहसास इस फिल्म ने ठोस किया और इसी वजह से यह कल्ट फिल्म बन गई है।
केतन जोशी
साइको अंग्रेजी
निर्देशक: अल्फ्रेड हिचकॉक
वर्ष: 1960
कलाकार: एंटनी पर्किंस, जेनेट ले, वेरा माइल्स, पैट हिचकॉक
खून-खराबे वाले दृश्यों के कारण साइको को हिचकॉक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जाती है लेकिन अब इसे सिनेमाई कला और इतिहास की सर्वश्रेष्ठ मशहूर फिल्मों में शुमार किया जाता है। हिचकॉक को सस्पेंस का उस्ताद माना जाता है जिन्होंने नोटोरियस, वर्टिगो और रियर विंडो जैसी बेहतरीन हिट फिल्में बनाई हैं लेकिन इस फिल्म में उन्होंने मनोवैज्ञानिक थ्रिलर की एक नई गाथा रची है। जेनेट लेह ने मैरियन क्रेन की भूमिका निभाई है जो मालिक की मोटी रकम लूटकर एक जुनूनी चर्मशोधक नोर्मन बेट्स के ढाबे पर ठहरती है। बेट्स के घर के पास ही उसकी विक्षिप्त मां रहती है। साइको की कहानी एक डरावनी फिल्म के सर्वश्रेष्ठ दृश्य के इर्द-गिर्द घूमती है: क्रेन की हत्या शावर के नीचे कर दी जाती है लेकिन इस खौफनाक माहौल में एक और कड़ी दर्शकों में खौफ पैदा करती है। दर्शकों को जब पता चलता है कि स्त्री-पुरुष दोनों का वेष धारण करने वाला बेट्स ही हिंसक पागल है और उसने अपनी मां के जिंदा होने की काल्पनिक छवि बनाई हुई थी जिनकी मृत्यु बहुत पहले हो चुकी थी। अंतिम दृश्य की बेहतरीन प्रस्तृति हिचकॉक की खासियत रही है। जब इस भूतहा मकान का रहस्य खुलता है तब इस कहानी में खौफनाक मोड़ आता है। तकरीबन आधी शताब्दी के बाद भी साइको ही हिचकॉक को एक फिल्मकार के रूप में स्थापित करती है।
ब्लेड रनर अंग्रेजी
निर्देशक: रिडले स्कॉट
वर्ष: 1982
कलाकार: हैरीसन फोर्ड, रुटगेर हावर, सीन यंग
एक सेमी रिटायर्ड पुलिस वाला डेकहार्ड, चार वांछित भगोड़ों की इस फिल्म में अलग क्या है? ठीक है, रिडले स्कॉट की 1982 की इस जादुई दुनिया की फंतासी, जो फिलिप के डिक की साइंस फिक्शन डू एंड्रॉइड्स ड्रीम ऑफ इलेिक्क्ट्रक शीप पर आधारित है, में हर चीज अलग है। हम 2019 के लॉस एंजिलिस में हैं और डेकहार्ड के जिम्मे है टाइरेल कॉरपोरेशन (जिसका ध्येय वाक्य है इनसानों से अधिक इंसान) द्वारा बनाए गए इनसानों जैसे प्रतिकृतियों को तलाश करने का काम जिन्हें दूसरे ग्रहों पर काम करने के लिए बनाया गया है मगर जो बदमाश होते हैं और भागकर पृथ्वी पर आ जाते हैं। मगर अन्य क्लासिक फिल्मों की तरह यह फिल्म छोटे-छोटे पलों के बारे में भी है। उदाहरण के लिए इन प्रतिकृतियों के मुखिया द्वारा डेकहार्ड की जान बचाने के दौरान अपनी जान देने और मृत्यु पूर्व स्वगत भाषण का पल। 'बारिश में आंसू’ का पल विज्ञान फंतासी फिल्मों के इतिहास के सबसे बड़े पलों में माना जाता है। मगर अब बड़े सवाल: यदि ये प्रतिकृति भावनाएं महसूस कर सकते हैं तो क्या इनके अधिकार नहीं होने चाहिए, यह कौन तय करेगा कि हम किससे प्यार करेंगे, क्या कुछ डेकहार्ड एक प्रतिकृति (आकर्षक सीन यंग) के प्यार में नहीं पड़ गया और वह सवाल जो कोई पूछने की हिम्मत नहीं कर सकता, ञ्चया डेकहार्ड खुद एक प्रतिकृति है? कोई जवाब नहीं है? चिंता की बात नहीं है, इस फिल्म की अगली कड़ी पर काम चल रहा है।
शोले हिंदी
निर्देशक: रमेश सिप्पी
वर्ष: 1975
कलाकार: धर्मेंद्र, अमिताभ बच्चन, संजीव कुमार, हेमा मालिनी, जया भादुड़ी, अमजद खान
शोले के शोले अब भी दहक रहे हैं। भारत की सफलतम फिल्मों में से एक इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर पैसों की बरसात कर दी थी। इसकी खासियत क्या थी? जवाब आएगा, संवाद-संवाद और संवाद। गली-गली इस फिल्म के संवाद गूंजे। कालिया को अब भी नहीं पता कि उसका क्या होगा पर आज तक लोग पूछते हैं, 'तेरा क्या होगा रे कालिया?’ फिल्म का बुखार ऐसा चढ़ा था कि दो पक्के दोस्त जय-वीरू और बक-बक करने वाली लड़कियां बसंती कहलाने लगीं। सन 1975 हिंदी सिनेमा के लिए खास था। यह शायद पहली और आखिरी बार था जब हिंदी सिनेमा के सारे रंग, शैली और स्टाइल एक साथ मौजूद थे। इसी साल शोले के साथ दीवार, जूली, चुपके चुपके, धर्मात्मा, अमानुष, प्रतिज्ञा, जय संतोषी मां, खुशबू, रफूचक्कर, जमीर, वारंट, मौसम जैसी फिल्में भी रिलीज हुईं। कसी हुई कहानी, जीवंत किरदार ऐसा जो दिलो-दिमाग दोनों को छू जाए, किरदारों के बीच की बेमिसाल केमिस्ट्री, संवाद और 'टेशन से गाड़ी छूटने और हसीना कैसे नमकीन होती है’ और महबूबा-महबूबा जैसे गानों ने इस फिल्म को अलग बना दिया था। नेपथ्य में बजने वाले संगीत ने भी इस फिल्म को मजबूती दी। संगीत ही बता देता था कि अब तनाव का क्षण है। एक ईमानदार पुलिस अफसर और बदला लेने के लिए दो सडक़ छाप गुंडों की मदद लेने जैसा विरोधाभास इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत साबित हुई।
रोहित कुमार राय
द गुड, द बैड एंड द अग्ली अंग्रेजी
निर्देशक: सर्जियो लियोन
वर्ष: 1966
कलाकार: क्लाइंट ईस्टवुड, एली वालेच, ली वान क्लीफ
अच्छा(ईस्टवुड), बुरा(ली वान क्लीफ) और बदसूरत (एली वालेस) एक परित्यक्त शमशान भूमि के तीन किनारों पर कसमसा रहे हैं। उनके हाथ उनकी बंदूकों से चंद इंच दूर हैं। कौन उसे निकालने में सबसे तेज साबित होगा? सुनहरा पर्दा ईस्टवुड के हाथ का करीबी शॉट दिखाता है जो ट्रिगर के करीब है। उसके बाद कैमरा क्लीफ के हाथ पर फोकस होता है और अंत में वालेस पर। पूरे डेढ़ मिनट तक कोई संवाद नहीं सिर्फ उनके हाथों, बंदूकों और उनकी ठंडी, कुटिल और डरी हुई आंखों का दृश्य पर्दे पर है। थोड़ी बढ़ी हुई दाढ़ी और अपने चुरूट को चबाते हुए ईस्टवुड निश्चित रूप से सबसे फुर्तीला साबित होता है जो पहली ही गोली में क्लीफ का काम तमाम कर देता है मगर पूरी तरह निश्चिंत होने के लिए दो गोलियां और चलाता है। बार-बार याद आने वाले संगीत से सजी सर्जियो लियोन की यह प्रतिष्ठित फिल्म सैकड़ों फिल्मकारों द्वारा नकल की गई मगर कोई भी बेहतरीन तकनीक और सिनेमेटोग्राफी वाली इस फिल्म की ऊंचाई को नहीं छू पाया। तब कौन सोच सकता था कि क्लाइंट ईस्टवुड एक पश्चिम विरोधी संवेदनशील फिल्म अनफॉरगिवन बनाने की सोच सकते हैं?
जॉनी मेरा नाम हिंदी
निर्देशक: विजय आनंद
वर्ष: 1970
कलाकार: देव आनंद, हेमा मालिनी, प्रेमनाथ, आईएस जौहर
अब तक उपन्यासों में ही थ्रिलर आ रहे थे। अचानक किताबों के पन्नों से निकल कर रहस्य, डॉन, पिस्तौलें और षड्यंत्र बाहर निकल आए। सन 1970 की यह ब्लॉक बस्टर साबित हुई। यही वह फिल्म थी जिसमें हीरे और दूसरे तस्करी के सामान इधर से उधर भेजने के लिए एक खूबसूरत चेहरे का इस्तमाल किया गया था। हेमा मालिनी एक मजबूर बेटी और सीआईडी अफसर के रूप में देव आनंद ने दर्शकों के दिल में जगह बना ली थी। सीआईडी इंस्पेक्टर सोहन उर्फ जॉनी जब नकली तस्कर बन कर एक किसी को सोना देने जा रहा है और जब चश्मा लगाए एक खूबसूरत लडक़ी खिडक़ी से बाहर झांकती है तो वह अपनी ड्यूटी से ऊपर दिल को ले आता है। सीआईडी अफसर एक किस्सा सुलझाते हुए अपने दिल को उलझाता है और दर्शक आज भी नहीं भूल पाते कि पूरे कमरे में जगह-जगह खिड़कियां बंद होते हुए भी नायिका उसे प्रेम करने लगती है। याद कीजिए 'पल भर के लिए कोई हमे प्यार कर ले’ वाले गाने का पिक्चराइजेशन, जिसमें हेमा पूरे कमरे में कई खिड़कियां और रोशनदान बंद करती चलती हैं। शिफॉन की साडिय़ां और पुलिस दलबल के बीच नायक और नायिका अपना 'माल’ देने के लिए गाना गाते हुए पूरा संवाद कर लेते हैं, 'वही पुराना तेरा बहाना और ये कहना मैंने वादा तो निभाया।’ और वाकई वादा ऐसा निभा कि आज भी वह रोमांच ताजा है।
आकांक्षा पारे काशिव
भवनी भवई गुजराती
निर्देशक: केतन मेहता
वर्ष: 1980
कलाकार: नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल
गुजराती लोकनाट्य रूप 'भवाई’ में ब्रेक्चितयन थियेटर के अलगाववाद को मिलाकर उससे हिंदुुस्तानी समाज में मौजूद सबसे गहरे भेदभाव को सिनेमाई चुनौती देना, भारतीय सिनेमा पटल पर शायद ऐसा अद्भुत प्रयोग 'समांतर सिनेमा’ आंदोलन के दौर में ही संभव था। अस्सी के दशक की शुरुआत में एफटीआईआई से पढक़र निकले प्रयोगधर्मी कलाकारों की टोली में से एक निर्देशक केतन मेहता की डेब्यू यानी पहली फिल्म भवनी भवई यूं तो 'एक समय की बात है, कहीं एक राजा था’ शैली की लोककथा का जामा पहने है, लेकिन इस कल्पित कथासूत्र को बीच से तोडक़र फिल्म भारतीय समाज में दलित वर्ग के साथ सदियों से हो रहे अमानवीय व्यवहार का कच्चा-चिट्ठा खोल देती है। कहानी में कहानी शैली में लिखी गई फिल्म की पटकथा में हंसोड़ राजा चक्रसेन (नसीरुद्दीन शाह) आततायी राजव्यवस्था का प्रतीक है। वहीं कथा का वर्तमान गांव में अपनी जली हुई बस्ती को छोड़ अमानवीय शहर की ओर पलायन करते दलितों का दर्द बयां करता है। यह ऐसा विस्थापन है जिसके दोनों सिरों पर अंधेरा है। एकतरफा कथित 'विकास’ के चलते आज जब यह निर्विकल्प विस्थापन विकराल रूप ले चुका है, भवनी भवई जैसी फिल्मों की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। केतन फिल्म को 'डार्क कॉमेडी’ की तरह ट्रीट करते हैं।
मिहिर पंड्या
27 डाउन हिंदी
निर्देशक: अवतार कृष्ण कौल
वर्ष: 1974
कलाकार: सुधीर दलवी, राखी गुलजार, साधु मेहर
अवतार कृष्ण कौल 1974 में अपनी सिर्फ एक फिल्म बना पाए, 27 डाउन। इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ हिंदी फिल्म और सर्वश्रेष्ठ छायांकन का राष्ट्रीय पुरस्कार घोषित होने के एक सप्ताह के भीतर ही इस प्रतिभाशाली फिल्मकार का दुर्घटना में निधन हो गया। जे. एस आइवरी के साथ काम कर चुके कौल ने हिंदी लेखक रमेश बक्षी की कहानी अट्ठारह सूरज के पौधे पर अपनी पहली और दुर्भाग्यवश आखिरी फिल्म बनाई। मोहन राकेश हों या रमेश बक्षी उस जमाने में रेल यात्रा का अलग रोमांस था और नास्टेलजिया भी। राकेश ने कहीं लिखा था काश ये रेलगाडिय़ां आवारा होतीं, कहीं भी हमें ले जातीं। फिल्म 27 डाउन के संवाद कुछ इस तरह के हैं, 'लोग एक दिन या एक रात के बाद कहीं पहुंचते हैं पर मैं तो एक खयाल के बाद दूसरे खयाल में पहुंच जाता हूं।’ एक और संवाद, 'लोग हैं कि एक जगह से दूसरी जगह तक जाते हैं, मैं हूं कि कहीं से चल कर कहीं भी चला जा रहा हूं।’ कैमरामैन अपूर्व किशोर बीर 22 साल के थे जब श्वेत श्याम में उन्होंने अद्भुत काम किया। बाद में एक फिल्मकार के रूप में भी उन्होंने अच्छी पहचान बनाई। संगीत हरिप्रसाद चौरसिया और भुवनेश्वर मिश्र का शास्त्रीय मिठास लिए है। एम. के. रैना राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के ग्रेजुएट थे। वह इस फिल्म में चर्चित अभिनेत्री राखी गुलजार के साथ नायक थे। लेकिन बाद में उन्होंने रंगमंच में ही नाम कमाया।
राखी अपने समय कि प्रतिभाशाली अभिनेत्री थीं पर 27 डाउन या परोमा जैसी कुछ फिल्मों में ही उनकी प्रतिभा और चेहरे की मासूमियत का इस्तेमाल हो सका। रैना ने संजय नाम के रेल टिकट चेकर की भूमिका निभाई थी जो बॉम्बे-वाराणसी एक्सप्रेस में अपने अतीत को जांचने की कोशिश कर रहा है। वह कला के सपने देखने वाला युवा था पर रेल इंजन ड्राइवर अन्ना, ओम शिवपुरी के बेटे को पिता की दुनिया में भटकने के लिए मजबूर होना पड़ा। अन्ना एक दुर्घटना में लकवे का शिकार हो चुके थे। संजय के जीवन में जीवन बीमा निगम की कर्मचारी शालिनी यानी राखी आई पर वह उसके जीवन का हिस्सा न हो सकी। उसके जीवन का हिस्सा धीमे धीमे रेल चलने का वह अनोखा संगीत था जो लुभाता भी है, एकरसता की भूल भुलैया में फंसा भी देता है। संजय और शालिनी की दिक्कत यह है कि वे परिवार के बोझ से लडऩे की कोई सार्थक कोशिश न कर अपने आप को अकेला और असहाय बनाते चले जाते हैं। शालिनी कम से कम कुछ ताकत रखती है लडऩे की। फिल्म के एक प्रसंग में कुछ प्रेमी जोड़े सार्वजानिक स्थल पर रोमानी समय बिता रहे हैं। शालिनी कुछ निडर हो कर अपनी बांहें संजय के गले में डालना चाहती है पर संजय ज्यादा डरपोक है और शरमा रहा है। संजय शुरू से डरपोक दुनिया में अपने सपने समाप्त करता रहा है। वह जे.जे.स्कूल ऑफ आट्र्स की पढ़ाई छोड़ कर रेलवे में पिता की दिलाई नौकरी को अपने जीवन के रोमांस में बदल कर फिर कोई पुल आया है
क्या की मानसिकता में फंसा हुआ है। वीनस की जो प्रसिद्ध अर्धनग्न मूर्ति उसे जे.जे. के दिनों से आक्रांत किए हुए है वह अंत में टूट जाती है। उसे टूटना ही था। पिता उसकी शादी में दहेज के रूप में मिलीं चार भैसों से खुश हैं जबकि दुर्भाग्यवश बेटे को पत्नी भी भैंस की तरह ही मिली है। वह उसके अतीत के अधूरे रोमांस को कुरेदती रहती है और वह उससे भाग कर वाराणसी की वैश्या सितारा के साथ अपनी खंडित वीनस की मूर्ति को बांहों में लेने की असफल कोशिश कर घर में बंधी भैंस के पास लौट आता है। अंत में उसे शालिनी तक पहुंचने का एक और मौका मिल रहा है पर वह कहीं न भागने और न लौटने के अस्तित्ववादी मोह का शिकार हो कर फ्रीज हो जाता है। आखिर मूल कृति जिस दौर की है वह अस्तित्ववादी ही था। शालिनी भी अपना घर छोड़ कर साधू बन गए पिता और सिलाई मशीन पर काम करती करती मर गई मां के अतीत से डरी हुई है। वह खुले नीले आसमान की चमक तक पहुंचने के लिए अपने दादा और छोटे भाई-बहनों के बंधनों को तोडऩे का साहस नहीं दिखा पा रही है। फिल्म की खासियत उसका हैंड हेल्ड कैमरे का कल्पनाशील इस्तेमाल है। स्टेशन, चलती ट्रेन का माहौल अच्छा बन पड़ा है। आखिर नायक का जन्म चलती ट्रेन में दो शहरों के बीच कहीं हुआ है इसलिए अपने दो जन्मस्थानों की विभक्त मानसिकता का भी वह बुरी तरह से शिकार है।
अनुभवी वंशी चंद्रगुप्त का प्रोडक्शन डिजाइन भी सुंदर है। अब यह फिल्म डीवीडी पर भी उपलब्ध है। युवा राखी की गहरी और बड़ी आंखों और निष्कपट चेहरे के नॉस्टेलजिया का आनंद आज के दर्शक भी उठा सकते हैं।
विनोद भारद्वाज