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शेर, शिकार और शिकारी की कहानी, आखेट

विषय-वस्तु आधारित फिल्मों के लिए यह सबसे अच्छा दौर है। यह हिंदी सिनेमा के लिए भी सुखद है कि साहित्य की...
शेर, शिकार और शिकारी की कहानी, आखेट

विषय-वस्तु आधारित फिल्मों के लिए यह सबसे अच्छा दौर है। यह हिंदी सिनेमा के लिए भी सुखद है कि साहित्य की कहानियां फिल्मी परदे पर दिखाई देने लगी हैं। पत्रकार से फिल्म निर्देशक बने रवि बुले ने अपनी पहली फिल्म के लिए युवा साहित्यकार कुणाल सिंह की कहानी आखेटक को चुना और आखेट नाम से इस पर एक सारगर्भित फिल्म बनाई है।

रवि बुले पूरी फिल्म में शेर आया, शेर आया की तर्ज पर शिकारी के धैर्य और शिकार के इंतजार के दिलचस्प तरीके से पेश करते हैं। सेव द टाइगर कैंपेन के बीच यह फिल्म अलग तरह की आशा जगाती है। बाघ के शिकार के बीच शिकारी और शिकार में सहयोग करने वाले की दारूण कथा निकल कर सामने आती है। पूरी फिल्म में बाघ के होने का अहसास इतनी शिद्दत से महसूस होता है कि जब दर्शकों को पता चलता है कि बाघ वहां हैं ही नहीं, तो वह इस त्रासदी के साथ, खुद को तुरंत जोड़ लेता है।

दिन-ब-दिन बाघों की कम और कुछ जगहों पर शून्य होती संख्या की चिंता फिल्म में होना वाकई सुखद है। नेपाल सिंह (आशुतोष पाठक) सिर्फ इस बोझ से दबे हैं कि राजा-महाराजाओं के परिवार से होने के बाद भी उन्होंने आज तक एक भी बाघ का शिकार नहीं किया। जबकि उनके परिवार के लोगों ने हजारों बाघ मार दिए। ये हजारों बाघ के मारे जाने की शान ही दरअसल उस कम होती संख्या के लिए जिम्मेदार है, जिस पर कोई नहीं सोचता। मुंसिफ मियां (नरोत्तम बेन) की कहानी से फिल्म की अलग परत खुलती है। मियां का भाई सांकेतिक रूप से बाघ की उपस्थिति दर्ज कराता है। फिल्म में एक तनावभरी उपस्थिति से दर्शकों को हरदम बाघ की आहट महसूस होती रहती है।  

वहीं जंगल के रेस्टहाउस का केयर टेकर जब राज खोलता है, तो लगता है कि उसके लिए बाघ के खौफ से ज्यादा बाघ के वजूद की कीमत है। यह कहानी दरअसल एक कबाड़ की बंदूक और एक झूठी आशा की कहानी है, जिसमें पहला जानता है कि बाघ नहीं आएगा, दूसरा जानता है कि बंदूक से गोली नहीं चलेगी। फिर भी एक-दूसरे की दिलासा में जीवन की परतें खुलती हैं और अंत में एक सकारात्मक संदेश देती है। झारखंड के पलामू के जंगलों में बाघ लुप्तप्राय हैं। पूरे भारत में इनकी संख्या तेजी से कम हो रही है। जहां बाघ हैं वहां भी अवैध शिकार की खबरें आती रहती हैं। ऐसे में फिल्म के अंत में नेपाल सिंह का चलती बस से बंदूक को फेंक देना सुखद संकेत देता है।  

रवि बुले ने कम किरदारों में बहुत दिलचस्पी से फिल्म की पटकथा का ताना-बाना बुना है। शिकार और शिकार करने की मनोवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए यह वाकई सराहनीय प्रयास है।

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