एक पिता जिसकी बेटी के साथ गैंग रेप हुआ है। बाप-बेटी चैन से जीना चाहते हैं, लेकिन समाज जीने नहीं देता। फिर दोनों मिल कर बदला लेते हैं। और...और क्या फिल्म खत्म। इससे ज्यादा क्या निर्देशक कमबैक के नाम पर संजय दत्त की जान थोड़ी ले लेंगे। लेकिन अदिति राव हैदरी को सोचना होगा कि उनका करिअर अभी लंबा है। उन्होंने शायद इस वजह से फिल्म स्वीकार की होगी कि यह एक शानदार रिवेंज स्टोरी बन कर निकलेगी और वह परदे पर छा जाएंगी। लेकिन इस फिल्म में न पिता-बेटी का प्यार ही पूरी तरह दिख पाया न गुंडों से शानदार बदला।
लंबे समय से परदे से दूर संजय दत्त की इस फिल्म को उनकी कमबैक फिल्म कह कर ही प्रचारित किया गया। उनकी बेटी त्रिशला को लेकर लंबे-लंबे बयान जारी किए गए। इसे एक पिता-बेटी के अनूठे रिश्ते की तरह प्रचारित किया गया। लेकिन प्रचार में निर्देशक उमंग कुमार यह भूल गए कि फिल्म को फिल्म की तरह बनाना भी पड़ता है। केवल प्रचार से फिल्में भूमि पर ही गिर जाती हैं। मैरी कॉम फिल्म का निर्देशन करके उन्होंने जो प्रतिष्ठा अर्जित की थी, वह उन्होंने भूमि में गिरा दी।
आगरा की कहानी कब धौलपुर (राजस्थान) पहुंच जाती है पता ही नहीं चलता। न भूमि में किसी की भूमिका है, न संवाद न अभिनय। संजय दत्त इतने फीके लगे हैं कि लगता है बस कैमरे के सामने दो डायलॉग बोलना है तो जैसे तैसे बोलों और चलते बनें। शेखर सुमन ने अपनी भूमिका क्यों स्वीकार की होगी यह वही बता सकते हैं। फिल्म में संजय दत्त और शेखर सुमन का शराब पीने वाला दृश्य इतना लाउड, बचकाना बना है कि दर्शक का दिमाग वहीं उड़ जाता है। पुलिस अफसर पहले इतना खड़ूस कि रपट न लिखे, बाद में हत्या के बाद संजय दत्त की चाभी लौटा दे ताकि सबूत न रहे। जब पुलिस इतनी ही मददगार है तो फिर आखिर में अकेले हीरोगीरी करने जाने का क्या मतलब।
पूरी फिल्म में ऐसे बेजार, बेकार दृश्यों की भरमार है। लगता है बीते दशक में जैसे गली-मोहल्लों के लड़कों की मारामारी पर फिल्में बनती थीं उन्हीं में कहीं अदिति राव हैदरी और संजय दत्त को फिट कर दिया गया है। इतनी बेजारी से ही यदि संजय को काम करना है तो उनके पास काम की कमी तो नहीं रहेगी। हां यदि वह दोबारा एक्टिंग करना चाहते हैं तो उन्हें ‘मुन्ना’ बनना पड़ेगा। ढिशुम-ढिशुम तो अब उनसे होने से रही।
आउटलुक रेटिंग डेढ़ स्टार