अक्सर हिंदी कॉमेडी फिल्मों पर अश्लील होने का आरोप लगता है। कहा जाता है कि कॉमेडी फिल्मों में आजकल द्विअर्थी संवाद का बोलबाला रहता है इसलिए इसे परिवार के साथ नहीं देखा जा सकता। लेकिन भुजः द प्राइड ऑफ इंडिया इसे गलत साबित करती है। यह साफ-सुथरी कॉमेडी फिल्म है, जिसे पूरे परिवार के साथ देखा जा सकता है। निर्देशक अभिषेक दुधैया ने रोहित शेट्टी की तरह कारें उड़ाने की जगह प्लेन उड़ाने की नकल करने की पूरी कोशिश की है। इससे दर्शकों को एक ही फिल्म में रोहित शेट्टी स्टाइल का मजा मुफ्त में ही मिलेगा।
फिल्म की कहानी का प्लॉट यूं तो, 1971 की युद्ध पृष्ठभूमि है इसलिए कहानी बेचारी पृष्ठभूमि में ही रही है। फिल्म आने से पहले खबरें थीं कि यह फिल्म रणछोड़ दास पगी की कहानी भी बताएगी, जो पग यानी पैरों के निशान देख कर बता देते थे कि यहां से कितने सैनिक गुजरे। उनकी इसी प्रतिभा को देख कर फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ ने उन्हें सेना में स्पेशल पोस्ट क्रिएट कर रखा था। लेकिन शुरुआत में नरैशन में सिर्फ एक लाइन में ही इतनी खास बाद को निपटा दिया गया।
खैर, ये तो शुरुआत है। अगर आप कहें कि मैं एक देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्म को कॉमेडी फिल्म क्यों कह रही हूं, तो यदि स्क्वाड्रन लीडर (अजय देवगन) फिजूल में बंदूक लेकर हीरोगिरी करता दिखाया जाए, वो भी बड़ी-बड़ी बंदूकें लिए पाकिस्तानी सेना के लोगों को बड़ी थाली से रोके तो आपके रोंगटे देशभक्ति से नहीं मूर्खता से खड़े हो जाएंगे।
स्क्वाड्रन लीडर की पत्नी (प्रणिता सुभाष) रोड रोलर चलाती दिखें, तो खुद ब खुद हंसी का फव्वारा छूट जाता है। और उस पर कॉमेडी का डबल डोज जब नोरा फतेही भारतीय जासूस के रूप में बिना एक्सप्रेशन के डायलॉग बोलती हैं, तो मन कहता है, “बहन तुम तो बख्श दो।”
पूरी फिल्म ऐसे ही हास-परिहास के दृश्यों से भरी हुई है। लगता है जैसे दस अलग-अलग लोगों को फ्रैंचाइजी दे दी गई हो कि भैया तुम इतने सीन शूट कर लेना भैया तुम इतने बाद में हम लोग फुर्सत में जोड़ लेंगे। कहीं कोई तारतम्य नहीं। कोई सीन यहां चल रहा है, अगला सीन बीच में कूद पड़ता है।
फिल्म में शरद केलकर ही इकलौते शख्स हैं, जिन्होंने एक्टिंग की है। बाकी तो सब लॉकडाउन टाइमपास है।
वैसे देखा जाए, तो अजय देवगन के कारण इस फिल्म का रिव्यू भी हो रहा है, वर्ना...
रिव्यू के बाद स्टार देने की परंपरा है। लेकिन हम भारतीय सरकार से अनुरोध करते हैं कि इस योजना को बंद किया जाए, क्योंकि फिल्म में जहां इतने सितारे हों, वहां सितारे देने का क्या काम!