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समीक्षा - बॉम्बे वेल्वेट

अनुराग कश्यप अपनी फिल्में अंधेरा बुनते हैं। ऐसा अंधेरा जिससे सभी का साबका पड़ता है। लेकिन सभी दौड़ते हुए इसलिए आगे निकल जाते हैं कि शायद आगे रोशनी की किरणें हों। अनुराग फिल्मों के सिरे इतनी आसानी से पकड़ में नहीं आते कि दर्शक उन्हें पकड़ कर फिल्मों की परद में घुसता चला जाए।
समीक्षा - बॉम्बे वेल्वेट

बाम्बे वेल्वट की कहानी भारत की शैशवास्था की कहानी है। आजादी के बाद के भारत सोशलिस्ट मॉडल पर काम करेगा या कैपलिस्ट पर यह तय करना मुश्किल था। अमीरों के जीवन पर आजादी का ऐसा कोई फर्क नहीं पड़ा था सिवाय इसके कि अब उन्हें अंग्रेजों के पीछे नहीं दौड़ना था। अमीर कैसे और अमीर, गरीब कैसे और गरीब होते गए इसका बहुत अच्छा नमूना पेश किया है कश्यप ने। अनुराग कश्यप ने एक प्रेम कथा रची जिसके नायक-नायिका दोनों ही बचपन से शरीर पर मार के निशानों को अपना स्थायी श्रृंगार मान कर बड़े हुए हैं। बलराज (रणवीर कपूर) को ‘बिग शॉट’ बनना है। और रोजी नरोना (अनुष्का शर्मा) एक क्लब में जैज गायक बन कर ही खुश है। कैजाद खंबाटा (करण जौहर) की पारखी नजर बलराज को जॉनी बलराज बनाती है और जॉनी अब कैजाद का सबसे खास है, जो उसके रास्ते में आने वाले रोड़े को हटाता चलता है।

अमिताभ बच्चन की फिल्मों में दर्शकों ने खूब देखा है गोदी में काम करने वाले मजदूर कैसे डॉन बनता है। कैसे मजदूरों की ताकत के आगे फेक्ट्री मालिक, पूंजीपति झुक जाते हैं और वह नायक हो जाता है। इस मायने में अनुराग ने मुंबई के बनने की कहानी को एक मजदूर, कुछ उद्योगपतियों की नजर से बहुत शानदार तरीके से दिखाया है। बस आखिर में रणबीर का मशीनगन नुमा बंदूके ले कर जॉन ट्रोवेल्ट की तरह लड़ना कुछ जमा नहीं। पूरी फिल्म में ज्यादातर वक्त एक आंख सूजी हुई लिए रणबीर लड़ते हुए बिना बंदूक के भी अच्छा प्रभाव जमा रहे थे।  

नरीमन पॉइंट के बनने की कहानी और बलराज की बॉम्बे पर राज करने की इच्छाओं के बीच एक अखबार के संपादक जिम्मी मिस्त्री (मनीष चौधरी) के अखबार के माध्यम से अनुराग धीरे-धीरे दर्शकों को समझाते चलते हैं कि दरअसल भारत में जो 60 के शुरुआती दशक में होता था आज भी वही होता है। फिल्म की कहानी भले ही बहुत चौंकाती नहीं है लेकिन इसके पात्रों ने बेशक चौंकाया है। रणबीर दिन ब दिन निखर रहे हैं। अपने अजीब से होंठों के बावजूद अनुष्का ने वह काम कर दिखाया जैसा 60 के दशक की एक जैज सिंगर को होना चाहिए था। इस फिल्म में सबसे ज्यादा जिसने चौंकाया वह है, करण जौहर। अपनी आंखों, भाव-भंगिमाओं से करण ने बखूबी एक अखबार के मालिक और नए बढ़ते बॉम्बे पर अपनी गिद्ध दृष्टि गड़ाए रखने वाले व्यापारी के रूप में वह खूब जमे हैं।

फिल्म का संगीत और 60 के दशक का बॉम्बे दिखाने के लिए निर्देशक ने मेहनत भी खूब की है। परिधान, मेकअप यहां तक की क्रॉकरी पर भी नजर बारीकी से रखी गई है।

यह आम दर्शकों को शायद उतनी अच्छी न लगे। लेकिन जो पूंजीवाद के मॉडल को समझते हैं और एक नए किस्म की प्रेम कहानी देखना चाहते हैं, यह फिल्म उन्हें निराश नहीं करेगी।  

     

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