अर्जुन रामपाल अरुण गवली के रूप में नई फिल्म डैडी में अवतरित हुए हैं। जेल में रहते हुए विधायक बनने वाले गवली को रॉबिन हुड दिखाने के लिए निर्देशक असीम अहलूवालिया ने कोशिश तो बहुत की लेकिन वह उसे अग्निपथ के बच्चन और सत्या के मनोज वाजपेयी जैसा नहीं बना पाए। फिल्म अरुण गवली पर केंद्रित होने के बजाय दाउद और गवली के बीच गैंगवार और वर्चस्व पर ही अटक कर रह गई है। गवली का अपना रसूख था यह शायद निर्देशक याद नहीं रख पाए। यदि ऐसा न होता तो गवली को उसके प्रशंसक चाल में रहने वाले तमाम लोग ‘डैडी’ न कहते।
असीम ढाई घंटे में इतने लोगों से कहानी नरैट कराते हैं कि यह समझना मुश्किल होता है कि कौन सा कैरेक्टर कब आया और कब चला गया। कहानी के भीतर कहानी के साथ यह फिल्म चलती है और दर्शकों को किसी सीन का पूरा मजा लेने से रोक देती है। हर किरदार की कहानी है और वह कब शुरू होती है कब खत्म यह तय करना ही मुश्किल है। गवली अपने इलाके (मुंबई का दगड़ी चाल) क रॉबिन हुड है। कम से कम इस नाम से विख्यात तो है। लेकिन निर्देशक ने बस इन दृश्यों को छू कर निकल गए हैं। यदि वह इन दृश्यों को ही यादगार बना देते तो फिल्म में कुछ याद रखने लायक रह जाता।
यह फिल्म बिटविन द लाइंस हिंदू गैंगस्टर (गवली) और मुस्लिम गैंगस्टर (दाउद फिल्म में मकसूद नाम) को भी स्थापित करने की कोशिश करती है। क्या इसे बहुत करीने से आज की स्थितियों में हिंदूत्ववाद की राजनीति के साथ देख कर जोड़ा जाए सकता है यह बड़ा प्रश्न है।
फिल्म सत्तर के दशक को खूबसूरती से दिखाती है। अर्जुन ने अपनी एक्टिंग में कोई कमी नहीं छोड़ी है। गवली की पत्नी के रूप में ऐश्वर्या राजेश ने बहुत अच्छा अभिनय किया है। फरहान अख्तर को दर्शक उनकी आवाज से ही पहली बार पकड़ पाते हैं। नारंगी ग्लास के चश्मे में सजे फरहान के पास सीन कम थे। पर जितने भी थे उन्होंने उसके साथ न्याय किया। लेकिन एक बंद मिल के मजदूर का बेटे अरुण की कहानी को यदि निर्देशक साध पाते तो शायद वह एक डॉन को सही रूप में डॉन दिखा पाते। सब कुछ समेटने के चक्कर में जो वह दिखा सकते थे वह भी ठीक से नहीं दिखा पाए। फिल्म परदे पर चली ढाई घंटे बीते और बस खत्म हो गई।
वैसे यह गैंगस्टरों को ग्लोरिफाई करने का सीजन चल रहा है। डैडी फिल्म में हसीना पार्कर का ट्रेलर तो कम से कम यही कहता है।
आउटलुक रेटिंग 2 स्टार