किसी भी विमर्श के बारे में यदि लगता है कि यह साहित्य की दुनिया तक सिमट कर रह गया है तो आर बाल्की की फिल्म की एंड का पेश है। स्त्री विमर्श तो साहित्य खास कर हिंदी साहित्य में बहुत जोर-शोर से उठता है। मगर फिल्म में बाल्की इसे अलग ढंग से दिखाने की कोशिश करते हैं।
किया (करीना कपूर) कामकाजी लड़की है। उसे पति नहीं पत्नी की जरूरत है। कबीर (अर्जुन कपूर) पढ़ा लिखा नौजवान है और उसे पति बनने से ज्यादा सुख पत्नी बनने में आता है। बस फिल्म की यही थीम है जिसे बाल्की ने अपने अंदाज में दिखाया है।
हर सीन बस जरूरत के मुताबिक है। कहीं कोई विस्तार या भाषण नहीं। जो दिखाना है उतना दिखा कर बाल्की अगले सीन पर बढ़ जाते हैं। इस फिल्म की सबसे बड़ी खासियत है कि इसमें किसी को भी गलत या सही ठहराने के लिए बाल्की ने कोशिश नहीं की है।
हालांकि वह कुछ और बातों को विस्तार दे कर बेहतर बना सकते थे। संगीत पर भी बहुत मेहनत नहीं की है। पंजाबी गाने के अलावा गुनगुनाने लायक कोई गाना नहीं। करीना वैसे भी अच्छी कलाकार हैं, सो अर्जुन थोड़ा दबे-दबे से लगे हैं। बहुत दिनों बाद स्वरूप संपत को देखना अच्छा लगता है।
आखिर में जब करीना की मां बनी स्वरूप कहती हैं, यह लड़की और लड़के की लड़ाई नहीं, कमाने वाले और घर संभालने वाले की लड़ाई है। जो कमाता है, बाहर जाता है, वह लोगों के बीच लोकप्रिय है। उससे जरा भी ध्यान हटा तो उस का अहं जाग जाता है। बस यह की और का झगड़ा, अलगाव और प्यार की जड़ है।