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हिंसा का राजमार्ग

नई फिल्म एनएच 10 की हिंसा प्रतिरोध की नहीं प्रतिशोध की हिंसा है। निर्देशक नवदीप सिंह ने मूल कहानी को पृष्ठभूमि में रख कर उस कहानी के बहाने कई बातें साधने की कोशिश की है। यह प्रयोग नया तो नहीं है पर हाल के सिनेमा में सीधी-सीधी बातें कह देने से अलग जरूर है।
हिंसा का राजमार्ग

फिल्म की शुरुआत में नायिका जब सिगरेट पीती है तो वैधनिक चेतावनी आती है, सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। दरअसल होना इसके बजाय चेतावनी आनी चाहिए, दूसरों के झगड़े में पड़ना आपके लिए हानिकारक हो सकता है। एनएच 10 पूरी तरह से दूसरों के झगड़े में पड़ कर अपना जीवन तबाह कर लेने की कहानी है। निर्देशक नवदीप सिंह उस राजमार्ग के जरिये हरियाणा में आनर किलिंग, हरियाणा में अचानक नवढनाढ्य के बढ़ जाने से बढ़ती गुंडागर्दी को परिभाषित करने की कोशिश की है। यह फिल्म उस दौर में है जब हरियाणा ही क्यों पूरे भारत में दबंगाई और गुंडागर्दी ने सिर उठा लिया है। अब यह जरूर है कि उत्तर प्रदेश के ऐसे हालातों की सुई हरियाणा की तरफ घूम गई है। मीरा (अनुष्का शर्मा) और अर्जुन (नील भूपालन) मल्टीनेशनल में काम करने वाला जोड़ा है जो शांति से अपना जीवन बिताना चाहता है। गुडगांव में रहने वाले जोड़े को एक घटना के बाद अपने लिए रिवाल्वर का लाइसेंस लेना पड़ता है। अब यही लाइसेंसी रिवाल्वर उन्हें सुरक्षा प्रदान करेगी इस मान्यात के साथ जब वे एक छोटी सी आउटिंग के लिए निकलते हैं तो उन्हें पता चलता है कि दरअसल सिर्फ बंदूक के पास में होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

दीप्ती नवल छोटी सी भूमिका में हैं और क्रूर सरपंच की भूमिका का उन्होंने निर्वहन भी ठीक किया है। अनुष्का शर्मा ने साबित किया कि पीके में यदि वह मजह शो पीस थीं तो यह फिल्म पूरी तरह उनकी है। यह भी महिला प्रधान फिल्म ही है जिसमें नायिका-नायक को आश्वासन देती है कि, तुम यहीं ठहरो मैं मदद ले कर आती हूं। इस मदद के लिए वह कहां-कहां भटकती है और पूरी रात की भटकन जब सुबह में तब्दील होती है तो मीरा का जीवन बदल चुका होता है। यह फिल्म दबंगई की है, आनर कीलिंग की है यह दर्शक की समझ पर निर्भर करेगा। लेकिन इतना तो तय है कि यह फिल्म अपने काम से काम रखने की जरूर है। यह फिल्म उस विश्वास को तोड़ देती है, जहां हमेशा कहा जाता है कि किसी को मुसीबत में देखो तो पूछो जरूर।

फिल्म में एक भी लंबा संवाद नहीं, एक भी लंबा सीन नहीं है। एक स्याह सच्चाई को दिखाने की अनुराग कश्यप मार्का यह फिल्म उन्हीं की शैली में चलने की कोशिश करती है। एक बात तो तय है कि सुदीप शर्मा ने पटकथा लिखने के लिए बहुत सोचा और तय किया कि इसे इस तरह बनाया जाए कि इसमें कहीं से भी मूल विषय सामने न आए लेकिन कहानी मूल विषय के इर्द-गिर्द ही घूमे। हिंसा का एक नया रूप इस फिल्म में है, जो अक्सर 80 के दशक में गुंडागर्दी पर बनने वाली फिल्मों में हुआ करता था। मगर अब सन 2015 आते-आते तक यह बदलाव हो गया है कि बदले की यह हिंसक कमान कमनीय काया वाली नायिका ने संभाल ली है। फिल्म की अवधि कम है बावजूद इसके लगता है कि इसे शार्ट फिल्म ही होना चाहिए था। शायद तब यह और निखर कर आती।

संगीत के नाम पर ऐसा कुछ नहीं जो आपको याद रह जाए। संवाद के नाम पर सिर्फ एक, गुडगांव में जहां आपके माल की सीमाएं खत्म होती हैं आपका संविधान वहीं खत्म हो जाता है।

यह संवाद कुछ देर आपके साथ चलता है और फिर खून के फव्वारों के बीच कहीं जहन से धुल जाता है। यह हिंसा की नई इबारत लिखने की कोशिश है जिसका सार्थक अंत पता नहीं कभी हो पाएगा या नहीं। 

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