गोविंदा के जमाने में बे सिर-पैर की ऐसी दो-चार फिल्में आ चुकी हैं, जिसमें अमीर पिता की बेटियां और पैसों के लालच में उनसे प्यार करने वाले लफंगे टाइप लड़के। बाद में असली का प्यार, एक ऐसा ही चलताऊ विलेन, थोड़ी ढिशुम-ढिशुम और लो जी हो गई हैप्पी एंडिंग।
साजिद-फरहद ने नई कहानी पर मेहनत करने के बजाय वही पुरानी कहानी उठाई और विदेश की लोकेशन पर चार-आठ जमूरेनुमा लोगों के साथ फिल्म बना ली।
जैकी श्रॉफ, चंकी पांडे, रितेश देशमुख और बेरोजगारों के बेरोजगार अभिषेक बच्चन को तो बेरोजगारी में जो काम मिल जाए वहीं अच्छा है, लेकिन बोमन ईरानी को शायद अपनी प्रतिभा पर भरोसा कम होता जा रहा है। तीनों छोकरियों, जैकलीन फर्नाडीज, लीजा हेडन और नरगिस फाखरी के लिए जो काम मिल जाए वही ठीक।
इन फिल्मों का अलग दर्शक वर्ग है जो फूहड़ कॉमेडी पर भी ताली पीट कर हंसता है और व्हॉट्स ऐप के चुटकुलों पर ठहाके लगाता है। एक फिल्म हिट हो जाए तो यह आसान है कि उसकी अगली कड़ियां बनाते चले जाएं। शायद दर्शक भी भूल जाते हैं कि कब किस फिल्म की वास्तविक फिल्म आई थी और किस के कितने सीक्वेल आ चुके हैं। गर्मियों की छुट्टियां है और इस वीकएंड पर कोई खास काम नहीं है तो दिमाग घर रखिए और थिएटर का रुख कर लीजिए।