आज हिंदी सिनेमा की मशहूर फिल्म "शोले" को रिलीज हुए 48 साल पूरे हो गए हैं। 15 अगस्त सन 1975 को रिलीज हुई फिल्म "शोले" ने हिंदी सिनेमा के इतिहास में कामयाबी का नया कीर्तिमान स्थापित किया।
सलीम जावेद की स्क्रिप्ट को कई लोगों ने नकारा
सत्तर के दशक की शुरुआत में बॉलीवुड को एक नई लेखक जोड़ी मिली,जिसने आने वाले वक़्त में हिन्दुस्तानी सिनेमा की तस्वीर बदल कर रख दी।उस लेखक जोड़ी का नाम था सलीम - जावेद।लेखक सलीम खान और जावेद अख्तर अपने साथ भारतीय सिनेमा में एंग्री यंग मैन का दौर लेकर आए,जिसने बॉलीवुड में स्थापित हीरो के सॉफ्ट और रोमांटिक करैक्टर को तोड़ा।सन 1973 में सलीम - जावेद ने एक फ़िल्म की कहानी को चार लाइन के आईडिये के रूप में फ़िल्म निर्माताओं को सुनाना शुरू किया।सबसे पहले उन्होंने आईडिया फ़िल्म निर्देशक मनमोहन देसाई को सुनाया।उस वक़्त मनमोहन देसाई अपनी फ़िल्म "चाचा भतीजा" को लेकर काम कर रहे थे,इसलिए उन्होंने इस आईडिये में दिलचस्पी नहीं दिखाई।इसके बाद सलीम -जावेद फ़िल्ममेकर प्रकाश मेहरा के पास गये मगर उन्होंने भी इस आईडिया को लेकर फ़िल्म बनाने से मना कर दिया।उसी वक़्त धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी अभिनीत फ़िल्म सीता और गीता सुपरहिट रही थी।फ़िल्म की कामयाबी के बाद फ़िल्म निर्माता गी.पी सिप्पी ने अपने पुत्र और फ़िल्ममेकर रमेश सिप्पी से धर्मेन्द्र और हेमा मालिनी को लेकर एक एक्शन फिल्म बनाने की मंशा जताई।इसी बीच सलीम - जावेद ने गीपी सिप्पी और रमेश सिप्पी को दो फ़िल्मों के आईडिये सुनाए।गी.पी सिप्पी और रमेश सिप्पी को दोनों ही स्क्रिप्ट पसंद आईं।पहली स्क्रिप्ट पर फ़िल्म बनी "मजबूर" और दूसरी स्क्रिप्ट जो उस वक़्त चार लाइन का आईडिया थी,पर बनी फ़िल्म शोले।
संगीत निर्माण से जुड़े हैं मशहूर किस्से
शोले का म्यूजिक आर डी बर्मन ने बनाया जबकि इसके गीत आनंद बख्शी ने लिखे।फ़िल्म के लिए आनंद बख्शी ने एक क़व्वाली " चाँद सा कोई चेहरा" लिखी।क़व्वाली को किशोर कुमार,मन्ना डे,भूपिंदर सिंह और आनंद बख्शी ने आवाज़ दी।इस क़व्वाली को अभिनेता जगदीप पर फ़िल्माया जाना था मगर जब फ़िल्म पूरी हुई तो समयसीमा तक़रीबन साढ़े तीन घंटे की हो चुकी थी,जिसके बाद इस क़व्वाली को शामिल करना मुमकिन न हुआ। हालाँकि ये क़व्वाली बाद में स्वत्रन्त्र रूप से रिलीज़ हुई।
इसके साथ ही गीत "महबूबा ओ महबूबा" को गाने के लिए पहले गायिका आशा भोसले को चुना गया था।मगर जब आशा भोसले ने आर.डी बर्मन को यह गीत गाते सुना तो उन्होंने बर्मन दा को यह सुझाव दिया कि वह अकेले ही इस गीत को गाएं।आर.डी बर्मन तैयार हो गये मगर मुश्किल ये थी कि गीत एक्ट्रेस -डांसर हेलन पर फ़िल्माया जाना था।अब एक एक्ट्रेस के लिए पुरुष गायक का प्लेबैक करना अजीब लगता इसलिए सीन में एक्टर जलाल आगा को शामिल किया गया।इस तरह यह गीत बना और सुपरहिट साबित हुआ।
बड़ी जद्दोजहद के बाद चुने गए एक्टर्स
रमेश सिप्पी ने वीरू के किरदार के लिए धर्मेन्द्र और बंसती के किरदार के लिए हेमा मालिनी को चुना। ठाकुर बलदेव सिंह के किरदार के लिए एक्टर दिलीप कुमार साहब को एप्रोच किया।मगर दिलीप कुमार ने रोल करने से मना कर दिया। तब इस रोल को एक्टर संजीव कुमार को दिया गया।हालाँकि धर्मेन्द्र चाहते थे कि ठाकुर का रोल उन्हें मिले।इसपर रमेश सिप्पी ने धर्मेन्द्र को बताया कि ऐसा करने पर वीरू का रोल संजीव कुमार को मिलेगा और इस तरह उनकी हीरोइन हेमा मालिनी,संजीव कुमार ही हीरोइन हो जाएंगी।अब धर्मेन्द्र को हेमा मालिनी से मुहब्बत थी और कुछ समय पहले संजीव कुमार ने हेमा मालिनी को शादी के लिए प्रोपोज़ किया था।बस धर्मेन्द्र ने वीरू का रोल करना ही बेहतर समझा। इस तरह ठाकुर का किरदार संजीव कुमार के हिस्से में आया,जिन्होंने इसे अमर कर दिया।
जय के किरदार के लिए रमेश सिप्पी की पहली पसंद शत्रुघ्न सिन्हा थे।मगर सलीम - जावेद फ़िल्म ज़ंजीर के बाद अमिताभ बच्चन से बेहद प्रभावित थे और चाहते थे कि उन्हें ही जय का रोल मिले। फ़िल्म में वैसे भी कई बड़े कलाकार काम कर रहे थे।अमिताभ बच्चन उस वक़्त एक आम कलाकार थे। इन्ही सब बातों को ध्यान में रखते हुए अमिताभ बच्चन ने प्रयास किए और उन्हें जय का रोल मिला।बाद में अमिताभ बच्चन ने बताया कि उन्हें जय का रोल धर्मेन्द्र जी के कहने पर मिला था।ठाकुर की बहू राधा के किरदार के लिए जया भादुरी (जया बच्चन) को कास्ट किया गया।
पूरी फीस लेकर शामिल हुए जगदीप
फ़िल्म के एक किरदार सूरमा भोपाली की कास्टिंग का भी दिलचस्प क़िस्सा है।सूरमा भोपाली के रोल को फ़िल्म पूरी होने के बाद जोड़ा गया था।सलीम -जावेद चाहते थे कि इस रोल को एक्टर जगदीप करें।मगर जगदीप ने इस रोल को करने से साफ़ मना कर दिया।इसकी दो वजहें थी। पहली वजह ये कि फ़िल्म की शूटिंग पूरी हो गई थी और उन्हें असरानी द्वारा निभाए जेलर की भूमिका के लिए एप्रोच नहीं किया गया था। दूसरी वजह ये थी कि उन्हें रमेश सिप्पी ने पिछली फ़िल्म ब्रहमचारी के लिए पूरे पैसे नहीं दिए थे। काफ़ी मनाने के बाद जगदीप इस शर्त पर तैयार हुए कि उन्हें छोटे से रोल के लिए मार्केट प्राइज़ के हिसाब से पूरा पैसा मिलेगा। इस तरह सूरमा भोपाली का किरदार फिल्म में शामिल हुआ।
गब्बर जान हथेली पर रखकर फिल्म की शूटिंग में शामिल हुए
जावेद अख्तर ने अमजद खान का अभिनय किसी नाटक में देखा था और बेहद प्रभावित हुए थे।जावेद अख्तर की सलाह से रमेश सिप्पी ने गब्बर के रोल के लिए अमजद खान को साइन किया।अभिनेता अमजद खान कास्ट होने वाले आखिरी कलाकार थे।जब शूटिंग शुरू हुई तो उन्हें मुंबई से बैंगलौर पहुँचना था।वह फ्लाइट लेकर बैंगलौर के निकले।अभी फ्लाइट ने उड़ान भरी ही थी कि पता चला विमान के हाइड्रोलिक इंजन में कुछ तकनीकी खराबी आ गयी है।सभी यात्रियों की जान हलक में अटक गयी।इसके बाद किसी तरह विमान को रास्ते में ही किसी एअरपोर्ट पर उतार लिया गया।कुछ चार-पांच घंटो के बाद विमान की तकनीकी खराबी ठीक कर ली गई।लेकिन यात्रियों ने इसमें यात्रा करने से मना कर दिया।अमजद खान को किसी भी तरह बैंगलौर पहुँचना था।अब उनके सामने दो रास्ते थे।या तो वो वह बैंगलौर न जाएँ और इस तरह रोल डैनी डेन्जोंगपा को मिल जाता,या दस साल के बाद मिले इस सुनहरे मौके को भुनाने के लिए इसी विमान में यात्रा करते हुए बैंगलौर जाएँ।अमजद खान ने विमान में यात्रा का फैसला किया।डर के आगे जीत है,ये बात अमजद खान ने साबित की।गब्बर सिंह के रोल ने उन्हें अमर कर दिया।
धर्मेन्द्र ने चलाई अमिताभ बच्चन पर गोली
जब फ़िल्म के एक्शन सीक्वेंस शूट हुए तो यह तय किया गया कि फ़िल्म में रियलिटी लाने के लिए असली गोलियों का इस्तेमाल किया जाएगा। एक रोज़ धर्मेन्द्र जो अपनी शराब पीने की आदत के चलते मशहूर थे,पूरे सुरूर में लोकेशन पर आए और उन्होंने सीन शूट के दौरान ही गोली चला दी।ये गोली अमिताभ बच्चन के नज़दीक से होकर गुज़री और वह गिर पड़े।धर्मेन्द्र को समझ नहीं आया कि ये क्या हुआ।बाद में जब उन्हें पता चला कि उन्होंने गोली चलाई है और अमिताभ को नुक्सान होते होते रह गया है,तो धर्मेन्द्र बहुत शर्मिंदा हुए और उन्होंने सभी से माफ़ी माँगी।साथ ही ये वादा किया कि अब वो शराब पीकर सेट पर नहीं आएँगे।
फिल्म हुई सुपरहिट
15 अगस्त 1975 को फ़िल्म शोले सभी सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई।ठीक उसी दिन देव आनन्द की फ़िल्म वारंट भी रिलीज़ हुई थी।देव आनन्द उस वक़्त एक बड़ा नाम थे।बहरहाल फ़िल्म शोले को शुरुआती हफ़्ते में नकारात्मक रिव्यू मिले और फ़िल्म फ़्लॉप घोषित की जाने लगी।कई जगह तो फ़िल्म थिएटर से उतरने को थी।तभी लोगों के बीच फ़िल्म की चर्चा ज़ोर पकड़ गयी और देखते ही देखते फ़िल्म के सारे शो हाउसफुल साबित हुए।देव साहब की वारंट बहुत पीछे रह गई और शोले उस दशक की सबसे सुपरहिट फ़िल्मों में शामिल रही।