महिलाओं के लिए शिक्षा के अधिकार की लड़ाई लड़ने वाली मलाला यूसुफजई के जीवन पर आधारित फिल्म ‘गुल मकई’ दिसंबर के आखिर में रिलीज होने जा रही है। यह फिल्म जहां मलाला के संघर्ष की कहानी कहेगी वहीं इस फिल्म के अहम किरदार मुस्लिम खान (स्कूल दादा) के मानसिक बदलाव की दास्तान पर भी प्रकाश डालेगी। बॉलीवुड में दर्जनों फिल्में कर चुके अभिनेता चंद्रशेखर दत्ता मुस्लिम खान की भूमिका में नजर आएंगे। इस फिल्म में अपने किरदार समेत विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने अक्षय दुबे 'साथी' से बातचीत की। प्रस्तुत है कुछ अंश:
नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला युसूफजई की बायोपिक ‘गुल मकई’ जल्द ही रिलीज होने वाली है। आप इसमें प्रमुख विलेन की भूमिका में दिखाई देंगे। मलाला को लोग आदर्श के तौर पर देखते हैं और उनके दुश्मनों को समाज के दुश्मन की तरह, ऐसे में इस किरदार के लिए आपने कैसे हामी भरी?
मुस्लिम खान का किरदार असल में ‘स्कूल दादा’ नाम के शख्स पर आधारित है। स्कूल दादा स्कूलों को तोड़ता है। मैंने इस किरदार के मानसिक बदलाव और पतन का अध्ययन किया। यह किरदार काफी पढ़ा लिखा था। मलाला पर बायोपिक लिखने की कोशिश इसी ने सबसे पहले की थी। यह मलाला का समर्थन करता था लेकिन उम्र बढ़ने के साथ-साथ इसकी सोच में तब्दीली आई। जब यह 58 साल के आस-पास का हुआ तब कम्युनिस्ट मानसिकता का आदमी कट्टरपंथी बन गया। फिर वह बोस्टन से अफगानिस्तान आया। उर्दू, पर्सियन आदि भाषाएं सीखी। कुरान अच्छी तरह से पढ़ी और फिर सोचा कि वह व्यवस्था को बदल सकता है, तालिबान को नेतृत्व दे सकता है। उसके व्यक्तित्व में इस एकाएक बदलाव वाली बात ने मुझे बेहद आकर्षित किया। इसीलिए मैंने फिल्म के लिए हामी भरी।
आप अभी युवा हैं और मुस्लिम खान लगभग 60 वर्ष का शख्स, लिहाजा उस किरदार को निभाने में मुश्किल जरूर हुई होगी...
हां, इस दौरान काफी मुश्किलें आईं। पहले मैंने ना नुकुर की थी लेकिन मेरे हाथ में रिसर्च वर्क थमा दिया गया। इसके बारे में मुझे समझाया गया। मुझे काफी तैयारी करनी पड़ी। उससे संबंधित वीडियो को देखा। और उस मानसिक पेचिदगी को समझने की कोशिश की कि एक आदमी कैसे इतना बदल सकता है। कई तकरीरें सुनी क्योंकि यह किरदार काफी अच्छा वक्ता भी था। संयोग से मेरी आवाज भी अच्छी है।
शूटिंग के दौरान की कोई ऐसी बात जो आपके लिए चुनौती भरी साबित हुई हो...
शूटिंग काफी चुनौतीपूर्ण थी। पहले भुज में शूटिंग हुई जहां धूल, धूप और गर्मी...। वहां वैनिटी तक नहीं पहुंच सकती थी। मेकअप यहां के गर्म वातावरण की वजह से उखड़ जाता था। हमारे तंबू से शूटिंग लोकेशन की दूरी दो किलोमीटर की थी। मल्टीपल कैमरासेटअप की वजह से वन शॉट पर शूटिंग होनी थी। ऐसे में मेरा ध्यान रहता था कि मेरा परफॉर्मेंस कमतर न हो जाए। वहीं जब कश्मीर में शूटिंग हुई, तब तापमान माइनस में था। यहां मेकअप जल्दी सूख जाता था। तापमान को लेकर काफी उतार-चढ़ाव रहे और एक शॉट पर अभिनय करना काफी कठिन रहा। लेकिन मुझे एक ट्रेंड एक्टर होने का फायदा मिला।
कभी मलाला से मुलाकात हुई तो उनसे क्या कहना चाहेंगे?
मलाला से तो मेरी बात अब तक नहीं हुई है लेकिन जब कभी उनसे मुलाकात होगी तो मैं उन्हें शुक्रिया कहूंगा क्योंकि उन्होंने अपनी मुहिम को जारी रखा। उन्हें मैं कहूंगा कि वे भारत में आकर महिलाओं के हक के लिए लड़ने वालों से मिलें, उनसे बात करें और उन्हें और अधिक सशक्त करें। यहां बहुत सारे लोग छिटपुट तरीके से बहुत कुछ करना चाहते हैं मगर वे समुचित तरीके से कुछ नहीं कर पा रहे हैं। हमारे देश की हालत तालिबान जैसी नहीं है, मलाला तो तालिबान में रहकर इतनी बड़ी जंग जीत गईं।
हाल ही में आप ‘धुमकुड़िया’ में नजर आए थे। ‘रक्तचरित्र’, ‘एरर-404’, ‘रामलीला’ में भी आपके काम को सराहा गया। ‘लाखों में एक’ जैसी वेब सीरीज में आप मुख्य किरदार में दिखे। आगे किस तरह की फिल्मों में काम करने की इच्छा है?
मैं महिलाओं और बच्चों को लेकर ज्यादा संजीदा हूं। मैं फिल्मों के जरिए उनके मुद्दों पर बहुत कुछ करना चाहता हूं। मैं चाहता हूं कि सिनेमा अर्थपूर्ण बने। अगर हम सिनेमा में ऐसा कुछ परोस रहे हैं जिससे समाज भ्रमित हो रहा है तो यह सही नहीं है। हम सिर्फ मनोरंजन के लिए ऐसा न कुछ बोल दें जिससे महिलाओं और बच्चों को नुकसान हो। लेकिन मौजूदा दौर में हम कमाई देख रहे हैं। आर्ट्स सिनेमा को गाली देते हैं कि ये क्या है पैसे नहीं कमाते। लेकिन बतौर निर्माता हमें समाज को जागरूक करना होगा। हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते। इसीलिए मैं ऐसी फिल्में करना चाहता हूं जो थोड़ा समाज को मदद करे थोड़ा मुझे सहयोग करे। एक जमाना था जब ओमपुरी साहब, इरफान साहब फिल्म करते थे। यह फिल्में अर्थपूर्ण मनोरंजन करती थीं। मैं भी ऐसी फिल्में करना चाहता हूं। कंटेट के नाम पर वन लाइनर चिपकाना मुझे पसंद नहीं।
आप झारखंड के धनबाद से ताल्लुक रखते हैं। आपके लिए मायानगरी का सफर कैसा रहा?
सही बोलूं तो शुरूआती दौर मेरे लिए बेहद बुरा रहा। झारखंड से बाहर पांच साल दिल्ली में रहा। फिर तीन साल के लिए पुणे गया। लेकिन जब मुबंई आया तब यह आर्थिक मंदी का दौर था। बतौर मुख्य किरदार मेरी चार-पांच फिल्में आने वाली थीं लेकिन सारी फिल्में बंद हो गईं। मैं शिक्षक की नौकरी करना चाहता था लेकिन इसकी भी कहीं जरूरत नहीं थी। मैं पसोपेश में था। टीवी करना नहीं चाहता था। अंततः मैंने टीवी में कुछ एपिसोड किए। इसने मुझे जिंदा भी किया और लोकप्रिय भी बनाया। शुरूआती दो साल तो बिल्कुल बेरोजगार रहा। ‘रक्तचरित्र’,’एरर-404’ जैसी फिल्में जब आई तो थोड़ा कमाने-खाने लायक हुआ। ‘रामलीला’ आई तब इसने बिल्कुल मेरी जिंदगी बदल दी।
वर्तमान में ‘नेटफ्लिक्स’ जैसे प्लेटफॉर्म पर भी तरह-तरह के प्रयोग हो रहे हैं। आप इसे बतौर अभिनेता कैसा माध्यम मानते हैं?
‘नेटफ्लिक्स’ और ‘अमेजन प्राइम’ समेत एक दो प्लेटफॉर्म हैं जो अभिनेताओं के लिए काफी मददगार बने हैं। लेकिन इस तरह के बाकी माध्यमों में ‘पोर्न’ परोसा जा रहा है। मुझे लगता है कि अमेजन प्राइम के ‘लाखो में एक’ ने मुझे दोबारा जिंदा किया। इस तरह के प्रोजेक्ट मैं करना चाहूंगा। यहां अच्छे अभिनेताओं की कद्र है। अच्छा पैसा है। अच्छा बर्ताव करते हैं। कलाकारों की बातें सुनी जाती हैं। कलात्मकता को सराहा जाता है।
आप किस अभिनेता को अपना आदर्श मानते हैं और क्यों?
-तीन एक्टर जिन्हें मैं अपना आदर्श मानता हूं वो हैं मिथुन चक्रवर्ती, मनोज वाजपेयी और सौमित्र चटर्जी। इनकी फिल्में देखता हूं, इन सबसे सीखा हूं। ये तीनों नायक ऐसे हैं जिन्होंने अभिनय में मुक्कमल ट्रांसफॉर्मेशन दिया है। मिथुन दा तो कभी-कभी पहचान में नहीं आते। बांग्ला फिल्मों में और वे एक ऊंचे स्तर तर पहुंच जाते हैं। मनोज जी के फिल्मों को देखकर बड़ा हुआ हूं। उनकी कई फिल्मों को मैं संदर्भ ग्रंथ की तरह इस्तेमाल करता हूं।
‘गुल मकई’ को लेकर और कोई बात...
यह अच्छी शोधपरक फिल्म है। मलाला के माता-पिता को भी ये फिल्म पसंद आई। वे भी इसे प्रचारित करना चाह रहे हैं। यह बिल्कुल अलग किस्म की फिल्म है। काफी दिनों बाद एक अच्छी फिल्म लोगों के सामने होगी।