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फिल्म "खामोशी" ने पूरे किए 26 साल, मनीषा कोइराला ने निभाई थी करियर की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका

संजय लीला भंसाली की म्यूजिकल फिल्म "खामोशी" ने अपनी रिलीज के 26 वर्ष पूरे कर लिए हैं। आज से ठीक छब्बीस साल...
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संजय लीला भंसाली की म्यूजिकल फिल्म "खामोशी" ने अपनी रिलीज के 26 वर्ष पूरे कर लिए हैं। आज से ठीक छब्बीस साल पहले 9 अगस्त 1996 को "खामोशी" सिनेमाघरों में रिलीज हुई थी।

 

 

पहली फिल्म के लिए की खूब जद्दोजहद

 

"खामोशी" संजय लीला भंसाली के फिल्मी करियर की बतौर निर्देशक पहली फिल्म थी। इस फिल्म के लिए उन्होंने जीतोड़ मेहनत की। एक नए निर्देशक के लिए फिल्म बना पाने हमेशा ही कठिन रहता है। फिल्म के सिनेमैटोग्राफर अनिल मेहता बताते हैं " मैंने संजय लीला भंसाली को हर दिन घंटों तक फिल्म एक्टर्स की वैनिटी वैन के बाहर खड़े होकर इंतजार करते देखा है। एक नए निर्देशक के साथ काम करने का रिस्क कम ही लोग लेते हैं। फिर ये वो दौर था जब सलमान खान, मनीषा कोइराला, नाना पाटेकर अपने करियर के शीर्ष पर थे। इसलिए एक नए, गैर अनुभवी और कम उम्र निर्देशक का इतने लोकप्रिय कलाकारों से मिलना आसान बात नहीं थी। लेकिन बावजूद इसके संजय ने इन सभी एक्टर्स से मुलाकात की, उन्हें अपनी कहानी सुनाई और सबको एक साथ एक धागे में पिरोकर खूबसूरत टीम तैयार की।

 

 

निजी जिन्दगी से प्रेरित थे फिल्म के सीन 

 

संजय लीला भंसाली ने बहुत संघर्ष से भरा जीवन जिया है। जीवन में भयानक दुख और घनघोर अंधेरा था। स्थिति ये थी कि संजय लीला भंसाली की मां मेहनत करके पैसे कमाती और किसी तरह बच्चों का पेट भरता। संजय लीला भंसाली के पिता और माता के बीच तनाव की स्थिति रहती है। संजय ने इसी माहौल, तनाव, झगड़ों से प्रेरणा लेकर फिल्म के कुछ सीन रचे थे। शायद इस तरह से ही उनके भीतर का दर्द बाहर आया था। 

 

 

समय से आगे की कहानी पर बनाई फिल्म 

 

उस समय हिन्दी सिनेमा में फॉर्मूला फिल्में जोर शोर से बनती थीं। गोविंदा, मिथुन चक्रवर्ती हिन्दी सिनेमा के मुख्य नायक थे, जिन्हें देखने के लिए जनता भीड़ लगाकर टिकट खरीदती थी। गंभीर, संजीदा, संवेदनशील विषयों पर फिल्म बनाने का जोखिम कोई लेना नहीं चाहता था। ऐसे में अपनी डेब्यू फिल्म के लिए अलग और संवेदनशील विषय चुनना संजय लीला भंसाली की हिम्मत दिखाता है। संजय लीला भंसाली और सुत्पा सिकंदर ( अभिनेता इरफान खान की पत्नी) ने एक ऐसी कहानी लिखी थी, जिस पर फिल्म बनने की कल्पना करना उस दौर में बहुत कठिन था। दो गूंगे बहरे दंपति की जिन्दगी की डोर उनकी बेटी से जुड़ी होती है, जिसे गाना और सपने देखना पसन्द है। एक दिन उसके सपनों को पूरा करने एक लड़का आता है और उस लड़के के कारण लड़की और उसके माता पिता के बीच दूरियां पैदा हो जाती हैं। लड़की कैसे अपनी खुशियों को जीते हुए, इस संघर्ष, इन दूरियों को कम करती है, यही खामोशी का निचोड़ है। इतनी अनकंवेंशनल कहानी पर फिल्म बनाने के लिए जो धैर्य, इच्छाशक्ति चाहिए, वही संजय लीला भंसाली को महान बनाती है। 

 

 

फिल्म की गुणवत्ता से नहीं किया समझौता

 

संजय लीला भंसाली की यह पहली फिल्म थी। उनके पास न अनुभव था और न संसाधन। कहानी भी बिलकुल नई और बिलकुल लीक से हटकर थी। बावजूद इसके संजय लीला भंसाली ने फिल्म की गुणवत्ता के साथ कोई समझौता नहीं किया। संगीतकार जतिन ललित की फिल्म "दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे" सुपरहिट साबित हुई थी। वह करियर के शीर्ष पर थे। ऐसे समय में संजय लीला भंसाली ने अपनी फिल्म के लिए उन्हें साइन किया। संजय लीला भंसाली ने फिल्म के निर्माताओं को निर्देश दिए कि जतिन ललित की फीस के साथ कोई समझौता नहीं होना चाहिए। यह एक म्यूजिकल फिल्म है, जिसके संगीत के साथ कोई कमी नहीं रखी जा सकती है। इसी तरह गीत लेखन के लिए उस्ताद गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को शामिल किया गया। यह संजय लीला भंसाली की पारखी नजर को दिखाता है कि उन्होंने शब्दों और सुरों का बेहतरीन चयन किया। 

 

 

संघर्ष के साथ किया कलाकारों के चयन

 

संजय लीला भंसाली की यह पहली फिल्म थी। उनके पास एक ऐसी कहानी थी, जो उस समय फिल्मों के कल्चर से मेल नहीं खाती थी। ऐसे में किरदार निभाने के लिए कलाकारों का मिलना कठिन था। संजय लीला भंसाली हर रोज घंटों तक फिल्म एक्टर्स की वैनिटी वैन के बाहर खड़े होकर इंतजार करते थे। फिल्म की नायिका के लिए माधुरी दीक्षित से लेकर काजोल तक दौड़ में थीं। लेकिन यह मनीषा कोइराला का सशक्त निर्णय था कि उन्होंने ऐसी प्रयोगवादी फिल्म साइन की। ठीक इसी तरह सलमान खान ने भी अपनी स्टार छवि से दूर होकर एक ऐसी भूमिका निभाई जिसमें प्रेम, सुकून, जीवन अधिक था और जिस पर स्टारडम, चकाचौंध की छाया नहीं थी। नाना पाटेकर और सीमा बिस्वास ने यह दर्शाया कि अभिनय शब्दों का मोहताज नहीं होता। भाव ही प्रबल होते हैं, जो बात को पहुंचाने का काम करते हैं। किस तरह से संजय लीला भंसाली ने बेहद लोकप्रिय एक्टर्स से, इतना सधा हुआ, शानदार अभिनय कराया होगा, यह किसी जादू से कम नहीं है। 

 

 

 

मनीषा कोइराला ने किया जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन

 

सौदागर, 1942 अ लव स्टोरी और बॉम्बे जैसी फिल्मों की सफलता के बाद मनीषा कोइराला ने " खामोशी" को चुना और उसमें जीतोड़ मेहनत से अभिनय का ऐसा सम्मोहन रचा कि जिसने भी फिल्म देखी, वह जीवन भर के लिए मनीषा कोइराला का मुरीद बन गया। फिल्म समीक्षकों ने इस फिल्म को मनीषा कोइराला के अभिनय से सजी सर्वश्रेष्ठ फिल्म बताया। जहां 1942 अ लव स्टोरी में मनीषा कोइराला को बेहद सुंदर नजर आना था, वही खामोशी में मनीषा कोइराला को अपने रोम रोम से एहसास, संवेदनाओं को व्यक्त करना था। एक गूंगे माता पिता के मन की बात समझना और उनकी खुशी की वजह बनना, एक सुंदर, साफ दिल और संवेदनशील अभिनेत्री के लिए ही संभव है। इसी कामयाबी के लिए मनीषा कोइराला को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री के स्टार स्क्रीन पुरस्कार और फिल्म क्रिटिक चॉइस पुरस्कार से नवाजा गया।  

 

 

 

सलमान खान का मानवीय पक्ष दिखाई दिया

 

सलमान खान की छवि एक सख्त, बिगड़ैल, गुस्सैल आदमी की है। लेकिन उनके अंदर भी एक अलग पक्ष है, जिससे कम लोग परिचित हैं। मनीषा कोइराला बताती हैं कि संजय लीला भंसाली की इस फिल्म में कम बजट होने के कारण बड़ी दिक्कतें आईं। लेकिन सलमान खान ने हर तरीके से संजय लीला भंसाली की मदद की और यह सुनिश्चित किया कि फिल्म ठीक उसी तरह से बने, जैसा संजय लीला भंसाली का विजन है। 

 

 

गीत संगीत हुआ बेहद लोकप्रिय 

 

संगीत फिल्म की बुनियाद था। संजय लीला भंसाली ने संगीतकार जतिन ललित को अपनी कहानी, उसके किरदार, हर सीन, हर सिचुएशन समझा दी थी। संजय लीला भंसाली ने जतिन ललित को प्रयोग करने की पूरी स्वतंत्रता दी। जतिन ललित ने भी इस भरोसे का सम्मान किया और बेहतरीन संगीत तैयार किया। यही कारण है कि फिल्म का संगीत बेहद लोकप्रिय हुआ। " बाहों के दरमियान" और " आज मैं ऊपर आसमां" सुनने वालों के लिए दिलों में हमेशा के लिए अमर हो गए। जो ताजगी इस फिल्म के गीतों में थी, वह नायाब थी। मजरूह सुल्तानपुरी ने भी जिस तरह उम्र के आखिरी पड़ाव में इतने शानदार, सरल और दिल को छू लेने वाले गीत लिखे, वह उनके अनुभव की बानगी थी। 

 

 

बॉक्स ऑफिस कलेक्शन में पिछड़ने के बावजूद समीक्षकों ने सराहा

 

फिल्म रिलीज हुई तो बॉक्स ऑफिस पर कामयाब नहीं हुई। इसका मुख्य कारण था फिल्म की कहानी का अपने समय से आगे होना। यदि आज के समय में फिल्म रिलीज होती इसे क्लासिक का दर्जा मिलता और बुद्धिजीवी समाज फिल्म को सर आंखों पर बैठाता। 1996 में जिस तरह का सिनेमा बनता था और जितनी पढ़ी लिखी, समझदार जनता थी और जितना एक्स्पोज़र हिंदी सिनेमा के दर्शकों को था, उस हिसाब से इस फिल्म की कामयाबी मुश्किल थी। बावजूद इसके फिल्म ने दर्शकों के दिल में जगह बनाई। फिल्म को क्रिटिक्स ने सराहा और सम्मान भी दिया। आज 26 साल के बाद भी जब खामोशी की होती है तो जबान, दिल और आंखों में हल्की सी नमी आ जाती है। यह नमी ही फिल्म की असली जीत है, असली कमाई है। 

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